Saturday, January 19, 2013

चुनौतियों के चक्रव्यूह में गणतंत्र !

राजेश कश्यप 
 छह दशक पार कर चुके गौरवमयी गणतंत्र के समक्ष यत्र-तत्र-सर्वत्र समस्यांए एवं विडम्बनाएं मुंह बाए खड़ी नजर आ रही हैं। देशभक्तों ने जंग-ए-आजादी में अपनी शहादत एवं कुर्बानियां एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए दीं, जिसमें गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, बेकारी, शोषण, भेदभाव, अत्याचार आदि समस्याओं का नामोनिशान भी न हो और राम राज्य की सहज प्रतिस्थापना हो। यदि हम निष्पक्ष रूप से समीक्षा करें तो स्थिति देशभक्तों के सपनों के प्रतिकूल प्रतीत होती है। आज देश में एक से बढ़कर एक समस्या, विडम्बना और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को सहज देखा जा सकता है।
देश में भ्रष्टाचार न केवल चरम पर पहुंच चुका है, बल्कि यह एक नासूर का रूप धारण कर चुका है। इस समय भी देश आदर्श सोसायटी, राष्ट्रडल खेल और टू-जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों के दंश से तिलमिला रहा है। देश स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक जीप घोटाला, हर्षद मेहता काण्ड, हवाला काण्ड, हर्षद मेहता काण्ड, झामूमो रिश्वत काण्ड, दूरसंचार घोटाला, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, सत्यम घोटाला, तहलका काण्ड आदि सेकड़ों घोटालों  के दंश का शिकार हो चुका है। कई लाख करोड़ रूपये घोटालों की भेंट चढ़ चुके हैं। इसके अलावा देश व विदेश में कई हजार करोड़ रूपये कालेधन के रूप में जमा हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है।
भ्रष्टतंत्र के समक्ष लोकतंत्र दम तोड़ता नजर आ रहा है। भ्रष्टाचारियों को नकेल डालने के लिए सशक्त जन लोकपाल बिल लाने और विदेशों में जमा काले धन को लाकर राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने के लिए क्रमशः वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने गतवर्ष राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाए। लेकिन, वे सत्तारूढ़ सरकार के चक्रव्युह और राजनीतिकों के कुचक्रों की भेंट चढ़ गए। अन्ना के आन्दोलन को जहां ‘आजादी की दूसरी जंग’ कहा गया तो दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के आन्दोलन के दमन को ‘जलियांवाला बाग काण्ड’ के पुर्नावलोकन की संज्ञा दी गई। ये दोनों ही संज्ञाएं छह दशक पार कर चुके गणतंत्र के लिए विडम्बना ही कही जाएंगीं।
देश के समक्ष आतंकवादी घटनाएं बड़ी चिंता एवं चुनौती का विषय बनी हुई हैं। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आंतकवाद पर भी अंकुश नहीं लग पा रहा है। दिल्ली, जोधपुर, जयपुर, मालेगाँव आदि आतंकवादी हमलों के बाद भी आतंकवाद के प्रति सरकार का रवैया ढूलमूल रहा, जिसका खामियाजा पूरे देश ने मुम्बई आतंकवादी हमले के रूप में भुगतना पड़ा। सबसे बड़ी विडम्बना का विषय यह है कि मुम्बई आतंकवादी हमले के दोषी कसाब को आज तक फांसी नहीं हो पाई है। संसद हमले के आरोपी अफजल गुरू की फांसी का मामला भी ठण्डे बस्ते में पड़ा हुआ है। देश आतंकवादी के खौफ से उबर नहीं पा रहा है, यह गौरवमयी गणतंत्र के लिए बेहद शर्मिन्दगी का विषय है।
देश का अन्नदाता किसान कर्ज के असहनीय बोझ के चलते आत्महत्या करने को विवश है। नैशनल क्राइम रेकार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन 46 किसान आत्महत्या करते हैं। रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 1997 में 13,622, वर्ष 1998 में 16,015, वर्ष 1999 में 16,082, वर्ष 2000 में 16,603, वर्ष 2001 में 16,415, वर्ष 2002 में 17,971, वर्ष 2003 में 17,164, वर्ष 2004 में 18241, वर्ष 2005 में 17,131, वर्ष 2006 में 17,060, वर्ष 2007 में 17,107 और वर्ष 2008 में 16,632 किसानों को कर्ज, मंहगाई, बेबशी और सरकार की घोर उपेक्षाओं के चलते आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा। इस तरह से वर्ष 1997 से वर्ष 2006 के दस वर्षीय अवधि में कुल 1,66,304 किसानों ने अपने प्राणों की बलि दी और यदि 1995 से वर्ष 2006 की बारह वर्षीय अवधि के दौरान कुल 1,90,753 किसानों ने अपनी समस्त समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का सहारा लेना पड़ा।
देश में गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य स्थापित है। एशिया विकास बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 75 फीसदी लोग निर्धन मध्य वर्ग में आते हैं, जिनकी मासिक आय 1035 रुपये से कम है। निम्न मध्य वर्ग, जिसकी आय 1035 से 2070 रुपये के बीच है, में लगभग 22 करोड़ लोग हैं। 2070-5177 आय वर्ग वाले मध्य-मध्य वर्ग के लोगों की संख्या पांच करोड़ से कम है। उच्च मध्य वर्ग के लगभग 50 लाख लोगों की मासिक आय 10 हजार का आंकड़ा छूती है। केवल 10 लाख लोग, जिन्हें अमीर समझा जाता है, की आय 10 हजार रुपये से अधिक है। गत वर्ष प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व अध्यक्ष सुरेश तेन्दुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति के अध्ययन के अनुसार देश का हर तीसरा आदमी गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है। गाँवों में रहने वाले 41.8 प्रतिशत लोग जीवित रहने के लिए हर माह सिर्फ 447 रूपये खर्च कर पाते हैं। देश के 37 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीब हैं। जबकि भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेन गुप्त आयोग के अनुसार भारत के 77 प्रतिशत लोग (लगभग 83 करोड़ 70 लाख लोग) 20 रूपये से भी कम रोजाना की आय पर किसी तरह गुजारा करते हैं। जाहिर है कि महज 20 रूपये में जरूरी चीजें भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि पूरी नहीं की जा सकती। इनमें से 20 करोड़ से अधिक लोग तो केवल और केवल 12 रूपये रोज से अपना गुजारा चलाने को विवश हैं।
भूख और कुपोषण की समस्या राष्ट्रीय शर्म का विषय बन चुकी है। हाल ही में भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक और विश्व की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश को हकीकत का आईना दिखाया। इस सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से कम है।  रिपोर्ट के अनुसार देश के 100 जिलों के 60 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि भी सामान्य नहीं हो रही है। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात तो यह है कि देश की 92 प्रतिशत माताओं ने ‘कुपोषण’ शब्द कभी सुना तक नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस रिपोर्ट के तथ्यों को राष्ट्रीय शर्म करार देना स्थिति की गंभीरता का सहज अहसास करवाता है।
विष्व भूख सूचकांक, 2011 के अनुसार 81 विकासशील देशों की सूचनी में भारत का 15वां स्थान है। इस सूचकांक के मुताबिक भूखमरी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश, युगांडा, जिम्बाबे व मलावी देशों की भारत की तुलना में स्थिति कहीं अधिक बेहतर है। यदि गरीबी के आंकड़ों पर नजर डाला जाए तो विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की सिफारिश के मुताबिक देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाती है।
बड़ी विडम्बना का विषय है कि देश में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों टन अनाज देखरेख के अभाव में गोदामों में सड़ जाता है और देश के 20 करोड़ से अधिक व्यक्ति, बच्चे एवं महिलाएं भूखे पेट सोने को विवश होते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1997 से अक्तूबर, 2007 तक की दस वर्षीय अवधि में एफसीआई के गोदामों में 10 लाख, 37 हजार, 738 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया। इस अनाज से अनुमानतः एक करोड़ से अधिक लोग एक वर्ष तक भरपेट खाना खा सकते थे। लेकिन, सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ। सबसे रोचक बात तो यह भी है कि गतवर्ष 12 अगस्त, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को आदेशात्मक सुझाव दिया कि अनाज सड़ाने की बजाय गरीबों को ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) के जरिए मुफ्त बांटने का आदेशात्मक सुझाव दिया था। इसे भी सरकार ने नकार दिया।
देश  का नौजवान बेकारी व बेरोजगारी के चंगुल में फंसकर अपराधिक मार्ग का अनुसरण करने के लिए विवष है। पैसे व ऊंची पहुँच रखने वाले लोग ही सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियों पर काबिज हो रहे हैं। पैसे, सिफारिष, गरीबी, और भाई-भतीजावाद के चलते देष की असंख्य प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। निरन्तर महंगी होती उच्च शिक्षा गरीब परिवार के बच्चों से दूर होती चली जा रही है। आज की  शिक्षा पढ़े लिखे बेरोजगार व बेकार तथा अपराधी तैयार करने के सिवाय कुछ नहीं कर पा रही है। क्या शिक्षा में आचूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है?
दहेजप्रथा, कन्या-भ्रूण हत्या, नारी-प्रताड़ना, हत्या, बलात्कार जैसी सामाजिक कुरीतियां व अपराध समाज को विकृत कर रहे हैं। नशा, जुआखोरी, चोरी, डकैती, अपहरण, लूटखसोट जैसी प्रवृतियां देश की नींव को खोखला कर रही हैं। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता लिंगानुपात, घटते रोजगार, प्रदूषित होता पर्यावरण, पिंघलता हुआ हिमालय, गन्दे नाले बनती पवित्र नदियां आदि विकट समस्याएं गणतंत्र के समक्ष बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। कुल मिलाकर इस समय हमारा गौरवमयी गणतंत्र अनेक विकट समस्याओं के सशक्त चक्रव्युह में फंसा हुआ है। गणतंत्र की गौरवमयी गरिमा बनाए रखने के लिए इस चक्रव्युह का शीघ्रातिशीघ्र भेदन किया जाना अति आवश्यक है। इसके लिए हर भारतवासी को चुनौतियों का डटकर मुकाबला करने, इनसे निपटने की कारगर रणनीति बनाने, सार्थक चिन्तन करने और अपनी सकारात्मक भूमिका सुनिश्चित करने का संकल्प लेने की नित्तांत आवश्यकता है।

Wednesday, January 9, 2013

आईआईटी की बढ़ी फीस

आईआईटी  की बढ़ी फीस को लेकर छात्र अभिभावक सब परेशान हैं, मध्यम व गरीब घर के बच्चे जो कर्ज लेकर, माँ के गहने गिरवी रख, एजुकेशन लोन आदि लेकर पढ़ाई कर रहे हैं वे तो मानसिक तनाव में आ गए हैं कि आखिर कैसे पूरा होगा इंजीनियरिंग का सपना । क्योंकि पहले से तय फीस को लेकर उनके घरों में जो बजट तैयार है वह फीस वृद्धि के फैसले की वजह से अचानक गड़बड़ा सकता है। देश में  लाखों गरीब बच्चे-बच्चियाँ स्कूली जीवन में ही इंजीनियर-डॉक्टर बनने के सपने देखते हैं लेकिन  देश में महगीं तकनीकी शिक्षा की वजह से उनकी  इच्छाओं  और सपनों पर पानी फिर जाता है ।  क्या केंद्रीय सरकार को गरीब प्रतिभावान छात्रों की कोई फिक्र है ? किसी देश या समाज के सर्वांगीण विकास  में उच्च और तकनीकी शिक्षा का सबसे बड़ा योगदान होता है । गौर से देखा जाए, तो दुनिया के ताकतवर व समृद्ध देशों की सफलता का एक बड़ा कारण विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा ही है।

Tuesday, January 8, 2013

एक बार फिर आरक्षण का जुआ खेल रही है सरकार


अनूप कुमार भटनागर।। 

टू जी स्पेक्ट्रम कांड के बाद कोयला कांड में बुरी तरह घिरीमनमोहन सिंह सरकार जनता का ध्यान बांटने के लिए अबपदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे का सहारा लेने की तैयारी में है।मनमोहन सिंह सरकार के नीतिकारों और सलाहकारों ने अगलेसाल दस राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और फिर2014 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीति की बिसातबिछाने की कवायद शुरू कर दी है। इस राजनीतिक कवायद मेंसुप्रीम कोर्ट की 1992 और 2006 व्यवस्थाएं बाधक बन रहीहैं। पदोन्नति में आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन करने कीदिशा में कोई भी कदम बढाने से पहले सरकार को यह भली भांति समझना होगा कि उसके इस कदम की न्यायिकसमीक्षा होगी। सुप्रीम कोर्ट ने बीते अप्रैल में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा अनुसूचित जातिऔर अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया था। 

बीएसपी का गेम 
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की मुख्य वजह यह थी कि राज्य सरकार इन वर्गो के कर्मचारियों को पदोन्नति मेंआरक्षण देने के निर्णय के समर्थन में जाति आधारित आंकडे़ पेश नहीं कर सकी थी। न्यायालय की इस व्यवस्था केबाद बहुजन समाज पार्टी ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। राज्यसभा में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने इसे जोर -शोर से उठाकर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपीए सरकार और उसके घटक दलों को इसका फायदा लेने के लिएप्रेरित किया। सरकार ने भी सोचा कि विवादों से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए इससे अच्छा अवसर नहींमिलेगा। सीएजी की ताजा रिपोर्ट के कारण संकट में घिरी सरकार ने इस गतिरोध को दूर करने के लिए सर्वदलीयबैठक बुलाने की बजाए पदोन्नति में आरक्षण के सवाल पर ऐसी बैठक बुलाने में पूरी तत्परता दिखाई। बैठक मेंप्रधानमंत्री ने इस सवाल पर सैद्धांतिक सहमति व्यक्त की लेकिन समाजवादी पार्टी सहित कई दलों की आपत्ति केकारण इस पर आम सहमति नहीं बन पाई। 

इंदिरा साहनी केस 
यह सिलसिला और आगे बढ़े , इससे पहले हमें 19 अक्टूबर 2006 को एम नागराज प्रकरण में भारत केतत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईएस सभरवाल की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ की व्यवस्था को ध्यान में रखनाहोगा। इस पीठ के बाकी दोनों सदस्य भी बाद मेंदेश के मुख्य न्यायाधीश बने। न्यायमूर्ति के जी बालाकृष्णन अबराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं जबकि न्यायमूर्ति एसएच कपाडिया देश के वर्तमान मुख्य न्यायाधीशहैं। संविधान पीठ की राय थी कि यह व्यवस्था संविधान के बुनियादी ढांचे और इसके अनुच्छेद 16 में प्रदत्त समताके अधिकार के अनुरूप नहीं है। न्यायालय ने इस निर्णय में अन्य पिछडे़ वर्गो के लिए आरक्षण देने के सरकार केनिर्णय से जुडे़ बहुचर्चित इंदिरा साहनी मामले में 16 नवंबर ,1992 को सुनाये गए फैसले को अपना आधारबनाया। इस निर्णय में व्यवस्था दी गई थी कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के तहत नौकरी की शुरुआत मेंआरक्षण दिया जा सकता है लेकिन पदोन्नति के मामले में इसका विस्तार नहीं किया जा सकता। इस निर्णय सेपहले पदोन्नति में भी आरक्षण की व्यवस्था थी। 
1992 के इस निर्णय से अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था प्रभावितहो रही थी , इसलिए सरकार ने इन वर्गो के लिए यह सुविधा बनाए रखने के इरादे से 77 वां संविधान संशोधनकरके अनुच्छेद 16 में एक नया प्रावधानअनुच्छेद 16 (4- ) जोड़ा , जिसका अभिप्राय पिछडे़पन और अपर्याप्तप्रतिनिधित्व वाली अनुसूचित जाति और जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ देना था। यह नयाप्रावधान जून 1995 से प्रभावी हुआ था। लेकिन वीरपाल सिंह और अजित सिंह के प्रकरण में न्यायालय कीव्यवस्थाओं की वजह से सरकार को एक बार फिर 2001 में 85 वां संविधान संशोधन करके अनुच्छेद 16 (4-  )में पुन : संशोधन करना पड़ा। नागराज के मामले में संविधान पीठ के निर्णय में आरक्षण की सीमा 50 फीसदीतक सीमित रखने , इन वर्गो में संपन्न तबके की अवधारणा और पिछडे़पन तथा अपर्याप्त प्रतिनिधित्व जैसेबाध्यकारी कारणों की संवैधानिक अनिवार्यता को दोहराया गया था। न्यायालय का मत था कि इसके बगैरसंविधान के अनुच्छेद 16 में प्रदत्त समान अवसर का ढांचा ही चरमरा जाएगा। 
संविधान पीठ ने यह भी कहा था कि पदोन्नति के मामले में राज्य अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण व्यवस्था करने के लिए बाध्य नहीं है। इसके बावजूद यदि कोई राज्य अपने विवेकाधिकार का इस्तेमालकर पदोन्नति के मामले में ऐसी व्यवस्था करना चाहते हैं तो उन्हे ऐसे वर्ग के पिछडे़पन और नौकरी में अपर्याप्तप्रतिनिधित्व के आंकडे़ एकत्र करने होंगे। लेकिन ऐसा करते समय भी राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि 50फीसदी की सीमा या संपन्न तबके के सिद्धांत का पालन हो और अनिश्चितकाल के लिए आरक्षण का विस्तार नकिया जाए। न्यायपालिका की इतनी स्पष्ट राय के बावजूद सरकार तथा चुनिंदा राजनीतिक दल एससी - एसटीके नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकने को आतुर हैं और वे एक और संविधान संशोधन की कवायद शुरू करानेजा रहे हैं। 
वाहनवती की सलाह 
अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती ने कानून मंत्रालय को भेजी गई अपनी सलाह में केंद्र सरकार से कहा है किपदोन्नति में आरक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्णयों केआलोक में बहुत सोच समझ कर कदमउठाने की आवश्यकता है क्योंकि इसके कानून का रूप लेते ही इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी जा सकती है।वाहनवती का सुझाव है कि नागराज प्रकरण में आई न्यायिक व्यवस्था के मद्देेनजर संविधान के अनुच्छेद 16 केसाथ ही अनुसूचित जाति और जनजातियांे की सूची से संबंधित अनुच्छेद 341 और 342 में भी संशोधन करनापड़ सकता है। अटार्नी जनरल ने सरकार को आगाह किया है कि यदि इन संशोधनों की संवैधानिकता को भीन्यायालय में चुनौती दी गई तो इसके नतीजों के बारे में कोई कयास लगाना नामुमकिन होगा। क्या हम उम्मीदकरें कि इन जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए जल्दबाजी में कोईकदम नहीं उठाएगी ?