Rajsthan patrika article on parmadu sanyantra par rajneeti..
Saturday, October 29, 2011
Patrika Raipur, 28-10-2011 :DigitalEdition
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Hindi News and Article
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Thursday, October 20, 2011
Friday, October 14, 2011
Tuesday, October 11, 2011
Check out तकनीक का जादूगर « जागरण मेहमान कोना
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dainik jagran article on 10oct11 on steve jobs
Sunday, October 9, 2011
श्रधांजलि स्टीव जॉब्स
नवप्रवर्तन ही सफल जीवन जीने की कुंजी है
एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स इस दुनिया में नहीं रहे पर उनके विचार हमेशा प्रासंगिक रहेगे|जीवन कि विषम परिस्थितियों में गुजर कर भी उन्होंने जो किया वह आज की युवा पीढ़ी के लिए एक मिसाल रहेगी | उनके पूरे जीवन को ध्यान से देखे तो पता चलता है कि वो योग्यता ,क्षमता ,मौलिकता ,नवप्रवर्तन में विश्वास रखते थे | उनके पास कोई तकनीकी डिग्री नहीं थी फिर भी उन्होंने अपने विश्वास,समर्पण ,मेहनत के जरिये विश्व में एक नयी तकनीकी कंप्यूटर क्रांति की आधारशिला रखीं| स्टीव जॉब्स इस शताब्दी की महान प्रतिभा थे। स्टीव ने हमेशा बड़े सपने देखे, बड़ी कल्पनाएं कीं। जब कंप्यूटिंग की दुनिया काली स्क्रीनों से जद्दोजहद करती थी, वे मैकिंटोश कंप्यूटरों के माध्यम से ग्राफिकल यूजर इंटरफेस; कंप्यूटर की चित्रात्मक मॉनीटर स्क्रीन ले आए। जब इस मशीन के साथ हमारा संवाद कीबोर्ड तक सिमटा हुआ था तब उन्होंने माउस को लोकप्रिय बनाकर कंप्यूटिंग को काफी आसान और दोस्ताना बना दिया। कंप्यूटर के सीपीयू टावर का झंझट खत्म कर उसे मॉनीटर के भीतर ही समाहित कर दिया तो सिंगल इलेक्टि्रक वायर कंप्यूटिंग डिवाइस पेश कर हमें तारों के जंजाल में उलझने से बचाया। इसके बाद आइपॉड (2001), आइफोन (2007) तथा आइपैड (2010) की अपरिमित सफलता हमारे सामने आई। जब दुनिया कीबोर्ड और मोबाइल कीपैड में उलझी थी, तो उन्होंने हमें टचस्क्रीन से परिचित कराया। स्टीव जॉब्स थे ही ऐसे अनूठे, अलग, मनमौजी किंतु परिणाम देने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले|
स्टीव जॉब्स ने विश्वविद्यालय में अपनी पढाई बीच में ही छोड़ दी उसके बाद ही उन्होंने अपने जीवन में बड़े बड़े प्रयोग किये और तकनीक को एक नयी दिशा दी |वास्तव में डिग्री और योग्यता का कोई सम्बन्ध नहीं है | आज के युवा सिर्फ डिग्री के पीछे भाग रहे है जबकि अगर ध्यान से देखा जाये तो विश्व में बड़े से बड़े काम उन लोगो ने किये जिनके पास कोई डिग्री नहीं थी | 12 जून, 2005 को स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में उनका भाषण विश्व के हर विद्यालय में प्रेरक पाठ के नाते पढ़ाए जाने योग्य है।
उन्होंने कहा मैं स्नातक नहीं हो सका, पहली बार मैं किसी कॉलेज के दीक्षांत कार्यक्रम के इतने करीब आया हूं। आज मैं अपनी जिंदगी की तीन कहानियां आपको सुनाना चाहता हूं। बस यही, कोई बड़ी बात नहीं, सिर्फ तीन कहानियां। आज उनकी वही ३ कहानिया विश्व इतिहास की सबसे अमूल्य धरोहर बन गई है |
अपने भाषण में उन्होंने माना कि मृत्यु को उन्होंने जीवन के बड़े कार्य शीघ्र करने का सबसे बड़ा उपकरण बनाया। उन्होंने कहा, ‘यही (मृत्यु) वह गंतव्य है, जो हममें से सबका साझा है। समय सीमित है, व्यर्थ में दूसरों का समय कभी खराब मत करो। इसलिए जो करना है, उसमें आलस्य मत करो।’ अपने दिल कि सुनो और आगे बढ़ो |
उन्होंने कहा मैं स्नातक नहीं हो सका, पहली बार मैं किसी कॉलेज के दीक्षांत कार्यक्रम के इतने करीब आया हूं। आज मैं अपनी जिंदगी की तीन कहानियां आपको सुनाना चाहता हूं। बस यही, कोई बड़ी बात नहीं, सिर्फ तीन कहानियां। आज उनकी वही ३ कहानिया विश्व इतिहास की सबसे अमूल्य धरोहर बन गई है |
अपने भाषण में उन्होंने माना कि मृत्यु को उन्होंने जीवन के बड़े कार्य शीघ्र करने का सबसे बड़ा उपकरण बनाया। उन्होंने कहा, ‘यही (मृत्यु) वह गंतव्य है, जो हममें से सबका साझा है। समय सीमित है, व्यर्थ में दूसरों का समय कभी खराब मत करो। इसलिए जो करना है, उसमें आलस्य मत करो।’ अपने दिल कि सुनो और आगे बढ़ो |
वह वास्तव में एक युग द्रष्टा थे जिन्होंने सिर्फ सपने ही नहीं देखे बल्कि उन सपनो को यथार्थ के धरातल पर साकार भी किया | उन्होंने अपनी तकनीकों, उत्पादों और विचारों के जरिए विश्व में क्रांतिकारी बदलाव लाए। आइटी की दुनिया में तकनीक का सृजन करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन उसे सामान्य लोगों के अनुरूप ढालने और खूबसूरत रूप देने वाले बहुत कम। स्टीव जॉब्स एक बहुमुखी प्रतिभा, एक पूर्णतावादी, करिश्माई तकनीकविद और अद्वितीय रचनाकर्मी थे। तकनीक के संदर्भ में उन्हें एक पूर्ण पुरुष कहना गलत नहीं होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए बिल्कुल सही कहा कि स्टीव की सफलता के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी कि विश्व के एक बड़े हिस्से को उनके निधन की जानकारी उन्हीं के द्वारा आविष्कृत किसी न किसी यंत्र के जरिए मिली।
कैंसर जैसे अपराजेय प्रतिद्वंद्वी के सामने भी प्रबल आत्मबल का परिचय दिया। स्टीव जानते थे कि उनके इलाज की अपनी सीमाएं हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें जाना होगा ।अपनी मृत्यु को निश्चित जानकर भी उन्होने उसको भी जिया और कहा जब मैंने मौत को सबसे नजदीक से देखा और उम्मीद करता हूं कि अगले कुछ दशकों में बस यही सबसे नजदीकी हो। उस दौर को जीकर अब मैं आपसे ये ज्यादा मजबूती से कह सकता हूं, मुझे मौत लाभकारी लगी। लेकिन मृत्यु पूरी तरह से आध्यात्मिक अवधारणा है। दुनिया में कोई भी आदमी मरना नहीं चाहता। यहां तक कि जो लोग दिल में स्वर्ग की ख्वाहिश पाले रखते हैं, वे भी मरना नहीं चाहते। पर हकीकत तो यहीं है|
आप के पास समय बहुत कम है, इसलिए इसे किसी और की जिंदगी जीने के लिए बर्बाद मत करो। सिद्धांतों के भंवर में मत उलझो। किसी और के मत को अपनी भीतरी आवाज पर हावी मत होने दो। सबसे अहम अपने दिल और अन्तज्ञाüन की सुनो और उसका अनुसरण करो।
आप के पास समय बहुत कम है, इसलिए इसे किसी और की जिंदगी जीने के लिए बर्बाद मत करो। सिद्धांतों के भंवर में मत उलझो। किसी और के मत को अपनी भीतरी आवाज पर हावी मत होने दो। सबसे अहम अपने दिल और अन्तज्ञाüन की सुनो और उसका अनुसरण करो।
वास्तव में तीन सेबों ने पूरी दुनिया बदल दी। जन्नत के वर्जित सेब ने, आइजक न्यूटन के सामने गिरे सेब ने और स्टीव जॉब्स के सेब यानी एप्पल ने। सेब (एप्पल) को फल से मशीन बना देने वाले जॉब्स शायद दुनिया के सबसे मशहूर बिजनेसमैन होंगे।एप्पल कंप्यूटर को दुनिया के सामने लाने वाले लोग स्टीव जॉब्स को एक कामयाब बिजनेसमैन, एक बेहतरीन आविष्कारक, एक लीडर और एक जिद्दी इंसान के तौर पर जानते हों लेकिन उनसे जुड़े लोग बताते हैं कि वह किसी बच्चे से कम नहीं थे। किसी नये प्रोडक्ट को लेकर जॉब्स का लगाव लड़कपन की हद तक चला जाता था और उन्हें चैन तभी आता, जब उस प्रोडक्ट की कामयाबी पक्की हो जाती।कई महान अमेरिकी कंपनियों की तरह जॉब्स ने भी एप्पल की शुरुआत अपने गैरेज में की थी। नाम एप्पल जरूर रखा गया और इसका निशान भी जन्नत के प्रतिबंधित फल की तरह दिखता है, जिसकी एक बाइट ली जा चुकी है। एप्पल का पहला लोगो भी एक सेब का पेड़ था, जिसके नीचे आइजक न्यूटन बैठे दिखते थे। बाद में जब लोगो बदला तो जॉब्स के पसंदीदा म्यूजिक बैंड बीटल्स के साथ उनका झगड़ा भी हुआ। एप्पल का लोगो बीटल्स की कंपनी के लोगो से मिलता जुलता था। पर बाद में सब सुलझ गया।
वास्तव में स्टीव जॉब्स जैसे लोग रोज रोज जन्म नहीं लेते ,उनके जीवन का आधारभूत सिद्धांत स्टे हंग्री-स्टे फूलिश (भूख रखिये और नासमझ बने रहिये ) सदियों तक लोगो को प्रेरणा देता रहेगा |जीवन में हमेशा कुछ नया करने के लिए तत्पर रहना चाहिए क्योकि नवप्रवर्तन ही सफल जीवन जीने की कुंजी है |आज वो हमारे बीच नहीं है पर उनके द्वारा किये गए काम हमेशा हमें उनकी यद् दिलाते रहेगे और हमें प्रेरणा देते रहेगे |उनके प्रति सच्ची श्रधांजलि यही होगी कि युवा वर्ग अपनी योग्यता ,क्षमता ,मौलिकता और मेहनत के साथ काम करे |
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प्रभातखबर 5-OCT-2011
स्तरीय तकनीकी शिक्षा वक्त की जरूरत
तकनीकी शिक्षा के मौजूदा सत्र में देश में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रह गयीं. अकेले यूपी में 70,000 जबकि राजस्थान में 17,000 सीटें खाली रह गयीं. ऐसे ही आंकड़े लगभग हर राज्य के हैं. यह पहली बार हो रहा है कि एक तरफ़ सरकार उच्च शिक्षा के बाजारीकरण पर जुटी है, दूसरी तरफ़ लोगों का रुझान इस तरफ़ कम हो रहा है.
देश की उन्नति और विकास के लिए तकनीकी शिक्षा का ढांचा और मजबूत होना चाहिए, लेकिन सरकार सिर्फ़ इसे व्यावसायिक बनाने में जुटी है. देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी के बिना लगातार कॉलेज खुल रहे हैं. लोगों को यह एक अच्छा व्यवसाय नजर आने लगा है. पिछले दिनों इस पर योजना आयोग ने अपना दृष्टिकोण-पत्र जारी किया है. आयोग चाहता है कि ऐसे उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना के लिए अनुमति दे दी जानी चाहिए, जिनका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हो.
दृष्टिकोण-पत्र के मुताबिक 1 अप्रैल 2012 से शु हो रही 12वीं पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा, खासकर तकनीकी शिक्षा, के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बड़ी भूमिका देने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने की जरूरत है. अभी इस दृष्टिकोण-पत्र पर सरकार की मुहर नहीं लगी है. इसके बावजूद यह सुझाव पिछले वर्षो में उच्च शिक्षा क्षेत्र के बारे में चली चर्चा के अनुरूप ही है. विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखा खोलने की इजाजत के साथ भी यह बात जुड़ी हुई है कि वे सिर्फ़ मुनाफ़े की संभावना दिखने पर ही यहां आयेंगे.
व्यापारीकरण, व्यावसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है. मंडी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है. इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन देकर खरीदा जा सकता है. परिणाम: शिक्षा में भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है, जो धन के आधार पर आइआइटी, एमबीए, सीए, एमबीबीएस आदि उपाधियों के लिए प्रवेश पाकर उच्च भावना से ग्रस्त और धनाभाव के कारण प्रवेश से वंचित हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं.
दोनों ही श्रेणियों के छात्र ग्रस्त हैं. सामाजिक असंतुलन और विषमता इसका ही परिणाम है. शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था एवं शिक्षकों का उद्देश्य व्यावसायिक हितों के अनुरूप शिक्षा का बाजारीकरण करना हो गया है. वहीं शिक्षा ग्रहण करने वाले शिक्षार्थी का एकमात्र लक्ष्य अधिक नंबर लाकर ऊंचे वेतन वाले पदों को प्राप्त करना रह गया है. इससे व्यावसायिक एवं स्वार्थपरक व्यक्तित्व युक्त युवा पीढ़ी का निर्माण हो रहा है.
गांधी जी ने कहा था कि देश की समग्र उन्नति और ओर्थक विकास के लिए तकनीकी शिक्षा का गुणवत्ता पूर्ण होना जरूरी है. उन्होंने इसे प्रभावी बनाने के लिए कहा था कि कॉलेज में हाफ़-हाफ़ सिस्टम हो, यानी आधे समय में किताबी ज्ञान दिया जाये और आधे समय में व्यावहारिक पक्ष बताकर उसका प्रयोग सामान्य जिंदगी में कराया जाये. भारत में तो गांधी जी की बातें ज्यादा नहीं सुनी गयी, लेकिन चीन ने इसे पूरी तरह से अपनाया. आज स्थिति यह है कि उत्पादन की दृष्टि में चीन भारत से बहुत आगे है.
भारतीय बाजार चीनी सामानों से भरे-पड़े हैं. दिवाली और रक्षाबंधन जैसे भारतीय त्योहारों पर भी बाजार में सबसे ज्यादा पटाखे और राखियां चीन की ही बनी हुई मिलती है. वास्तव में हम अपने ज्ञान को ज्यादा व्यावहारिक नहीं बना पाये हैं. देश के विकास के लिए हमें अधिक से अधिक योग्य इंजिनियर चाहिए. आज कोरिया में 95, चीन व जर्मनी में 80, ऑस्ट्रेलिया में 70, ब्रिटेन में 60 फ़ीसदी युवक तकनीकी शिक्षा से लैस हैं, जबकि भारत में तकनीकी शिक्षा पाने वाले युवाओं का प्रतिशत महज 4.8 है. देश की आबादी में प्रतिवर्ष 2.8 करोड़ युवा जुड़ जाते हैं तथा 1.28 करोड़ युवाओं की लेबर फ़ोर्स में एंट्री होती है, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 25 लाख ट्रेंड होते हैं. जबकि जो रोजगार पैदा हो रहे हैं, उनमें 90 फ़ीसदी ऐसे रोजगार हैं, जिसमें तकनीकी शिक्षा की जरूरत होती है.
सरकार तकनीकी शिक्षा प्रणाली में बदलाव के लिए जो कदम उठा रही हैं, मसलन प्रवेश परीक्षाओं से लेकर सिलेबस तक में जो बदलाव किये जा रहे हैं, उनका एक ही मकसद है कि कैसे भारत में दुनिया के बाजार के लिए पेशेवर लोगों की फ़ौज तैयार की जाये. इसके जरिये हम अपनी समस्याओं को नहीं तलाश रहे हैं, बल्कि दुनिया के लिए प्रशिक्षित नौकर तैयार कर रहे हैं. इससे हमारे नौजवान सिर्फ़ तकनीकी डिग्रियां हासिल कर वैश्विक बाजार में दोयम दर्जे की नौकरी कर रहे होंगे. तकनीकी क्षेत्र में कुछ नया नहीं कर पायेंगे.
हां, हमारे नौजवानों को नौकरी मिल जायेगी और इस सस्ती फ़ौज की बदौलत दुनिया मुनाफ़ा कमायेगी. इसलिए ऐसे प्रस्ताव से सिर्फ़ विदेशी कंपनियों को फ़ायदा होगा. आज जरूरत है ऐसे तकनीकी ज्ञान की, जो वास्तविकता के धरातल पर हो और व्यावहारिक भी हो, जो कुछ सकारात्मक कर पाने के लिए नौजवानों में समझ और उत्साह पैदा करे.
(शशांक द्विवेदी : इंजीनियरिंग कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)
Thursday, October 6, 2011
Wednesday, October 5, 2011
कॉरपोरेट चिंताओ के बजाय बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये
कॉरपोरेट चिंताओ के बजाय बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये
तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता और आईआईटी को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो चुकी है | इस बार इन्फोसिस के मानद चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति ने सार्वजानिक तौर पर पैन आईआईटी सम्मेलन में सैकड़ों पूर्व आईआईटी छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि हाल के वर्षों में आईआईटी में प्रवेश पाने वाले छात्रों की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है , और इसके लिए कोचिंग संस्थानों को जिम्मेदार है| असल में उनकी इस बात के कई मायने है ,पहली तो यह है कि उनकी इस चिंता के पीछे इंडस्ट्री को कार्य कुशल इंजिनियर न मिल पाना है | पिछले दिनों उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के गिरते स्तर पर उद्योग एवं व्यापार जगत की सर्वोच्च संस्था फिक्की ने भी चिंता जताते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखा था। जिसमें कहा गया था कि उद्योग जगत का 65 फीसद हिस्से को उच्च एवं तकनीकी शिक्षा से सही स्नातक नहीं मिल रहे है और न ही इन कालेजों से निकलने वाले छात्र उद्योगपतियों की कसौटी पर खरे उतर पा रहे है।यह पहली बार नहीं है जब किसी ने आईआईटी को लेकर इस तरह कि टिपण्णी कि है इसके पहले भी वरिष्ठ शिक्षाविद यशपाल और जयराम रमेश ने आईआईटी पर तल्ख टिप्पणियाँ कि थी | इसके पहले भी आईआईटी के पूर्व छात्र और कॉरपोरेट हस्ती एनआर नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक ए बेटर इंडिया, ए बेटर वर्ल्ड में ऐसी चिंता व्यक्त कर चुके है|
वास्तव में अगर ध्यान से देखा जाये तो उनकी चिंता पूरी तरह से कॉरपोरेट से जुड़ीं हुई है | उनका तकनीकी शिक्षा के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष से कोई लेना देना नहीं है तभी वह कह रहे है कि हमें ईट स्नातकों को कार्यकुशल करना पड़ता है | उनका सीधा सा मतलब है कि ईट ऐसे स्नातक पैदा करे जिनका कॉरपोरेट के लोग पूरा दोहन कर सके |
आज देश में ऐसी स्थिति है कि बुनियादी तकनीकी और विज्ञानं से कोई नहीं जुडना चाहता| आईआईटी के अधिकांश छात्र बीटेक करने के बाद अमेरिका में बसना चाहते हैं या किसी कॉरपोरेट संस्था या प्रशासनिक सेवा में कार्य करना पसंद करते हैं| कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है| देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? शिक्षा व शोध के अभावों को भूलकर कई बार कहा जाता है कि आईआईएम, आईआईटी में काफी तनख्वाह दिलवाने वाली पढ़ाई होती है। दूसरे लोग भी यह देखते हैं कि किस संस्थान के छात्रों को कितने पैसे की नौकरी ऑफर हुई।यह गलत सोच है, इससे निकलने कीजरूरत है।
अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है।
अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है।
विज्ञान में उच्च स्तरीय शोध के लिए जो संस्थान जाने जाते हैं, उनमें प्रमुख रूप से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बंगलुरु, टाटा फंडामेंटल रिसर्च इंस्टीटूट’ तथा भाभा रिसर्च इंस्टीटूट जैसे केंद्रों का उल्लेख किया जा सकता है। आईआईटी का नाम इसमें नहीं आता। यहां शोध करनेवाले विद्यार्थी आईआईटी डिगरीधारक नहीं, बल्कि उन तमाम विश्वविद्यालयों से निकले होते हैं, जो अभावों से जूझते हुए भी शोध को आगे ले जानेवाले हमारे सबसे बड़े स्रोत हैं। दुखद है कि इनकी गुणवत्ता के विकास के लिए हमने कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई।
आर्थिक उदारीकरण के बाद जब से उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण होने लगा है, कॉरपोरेट जगत के लोग ही यह तय करते हैं कि अमुक विश्वविद्यालय या शोध संस्थान ‘वर्ल्ड क्लास’ है। उन्होंने ही तय किया है कि आईआईटी का विद्यार्थी ‘वर्ल्ड क्लास’ है। उनके अनुसार आईआईटी का महत्व इसलिए है कि वह अमेरिका और दूसरे बड़े औद्योगिक राष्ट्रों के लिए आवश्यक वर्क फोर्स मुहैया कराता है। आज इसीलिए बुनियादी विज्ञान विषयों की उपेक्षा कर सॉफ्टवेयर प्रशिक्षण को महत्व दिया जा रहा है। जबकि अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा, पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा। चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए। ‘वर्ल्ड क्लास’ बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।
जिस बाजार आधारित व्यवस्था के पीछे हम दौड़ रहे हैं, उसमें ‘वर्ल्ड क्लास’ वही माना जाएगा, जो कॉरपोरेट हित के लिए काम करता हो। कॉरपोरेट व्यवस्था के समर्थक विशेषज्ञ उसी ‘मॉडल’ को बनाने में जुटे हैं, जिससे कॉरपोरेट को लाभ होता है।
यह निराशाजनक ही है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सारी अपेक्षाएं मात्र आईआईटी और कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों से ही होती है। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। इसी प्रकार, देश भर के छात्रों का दबाव दिल्ली के कुछ गिने-चुने महाविद्यालयों पर होता है। देश में इस समय 25 हजार से भी अधिक महाविद्यालयों के विकास के लिए कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर संपूर्ण विकास की ओर हमें ध्यान देना होगा। कॉरपोरेट निर्धारित वर्ल्ड क्लास मापदंडों के पीछे न भागकर हमें उसके लिए राष्ट्र की समस्याओं के अनुकूल मापदंड बनाने होंगे।
नई तकनीक के विकास में जो मौलिक काम हो रहे हैं, उन्हें बढ़ावा देना होगा। देश में बड़ी संख्या में छोटे-छोटे, लेकिन उपयोगी आविष्कार हुए हैं, उन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है। ऎसे आविष्कारों के बारे में अकसर छपता रहता है, लेकिन उस ओर सरकार कम ध्यान देती है, जिससे नई तकनीक के विकास को ज्यादा बल नहीं मिलता है। भारतीय समाज में आज तकनीकी विकास के अनुकूल माहौल बनाने की जरूरत है| आज तकनीकी शिक्षा के समग्र विकास कि जरुरत है पूरे उच्च शिक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए सरकार को पहल करनी पड़ेगी |साथ में इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति भी होनी चाहिए जिसे कड़ाई से पूरे देश में लागू किया जाये तभी हम वास्तविक अर्थों में तकनीकी शिक्षा को एक नयी दिशा दे पायेगे | ये काम यथार्थ के ठोस धरातल पर होना चाहिए |
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