Thursday, May 31, 2012
Wednesday, May 23, 2012
Tuesday, May 22, 2012
काले धन पर श्वेत पत्र
काले धन पर पर्दा
केंद्र सरकार को पता नहीं है कि देश में कितना काला धन है। काले धन पर सरकार का बहु प्रतीक्षित श्वेत पत्र सूचनाओं, रणनीतियों और साहस में खोखला निकला है। ज्यादा छिपाने और कम बताने वाले इस श्वेत पत्र में वित्त मंत्रालय ने देश में काले धन के जो अंदाज दिए भी हैं वह आंकड़े आठवें दशक के हैं। जबकि तब से देश की अर्थव्यवस्था का आकार काफी बढ़ चुका है। यह पुराने आंकड़े भी सरकार के अपने नहीं बल्कि स्वतंत्र विशेषज्ञों के हैं।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा में सोमवार को काले धन पर श्वेत पत्र पेश किया। श्वेत पत्र सरकार की तरफ से किसी विशेष मुद्दे पर आधिकारिक तौर पर जारी किया गया नीतिगत पत्र होता है। इसे सरकार स्वेच्छा से भी जारी करती है। कभी-कभी किसी मुद्दे पर अस्पष्टता की स्थिति में सांसदों की मांग को ध्यान में रखते हुए जारी किया जाता है। इसका उद्देश्य सरकार की नीतियों को जनता के सामने लाना और उस मसले की स्थिति को पेश करना होता है। पिछला श्वेत पत्र पूर्व केंद्रीय रेलमंत्री ममता बनर्जी बतौर रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के पांच वर्षो के कार्यकाल के दौरान वित्तीय हालात को स्पष्ट करने के लिए लाई थीं।
काले धन पर पेश इस श्वेत पत्र में सरकार ने जो जानकारियां उपलब्ध कराई हैं वो कई तथ्य उपलब्ध कराने की सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े कर रही है। सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त का गठन कर काले धन की समस्या से निपटने का जो भरोसा दिया उसकी कलई भी सोमवार को संसद में खुल गई। श्वेत पत्र आने के चार-पांच घंटे के भीतर ही सरकार ने लोकपाल कानून को संसद की प्रवर समिति के पास भेज कर इसे लंबे समय के लिए टाल दिया है।
विदेश में जमा काली कमाई के जो आंकड़े सरकार ने श्वेत पत्र में दिखाए हैं उससे ज्यादा जानकारी तो अंतरराष्ट्रीय रिसर्च एजेंसियों के पास उपलब्ध है। श्वेत पत्र के इस आंकड़े पर भरोसा करना मुश्किल होगा कि 2010 में विदेशी बैंकों खासतौर पर स्विस बैंकों में भारतीयों के सिर्फ 9295 करोड़ रुपये ही जमा है। सरकार कह रही है कि यह राशि 2006 में 23,373 करोड़ रुपये थी यानी कि टैक्स हैवेन को भारत से पैसा भेजने में कमी आई है?
भारत से टैक्स हैवेन जाने वाले पैसे के मामले यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष [आइएमएफ] और ग्लोबल इंटीग्रिटी फाउंडेशन [जीआइएफ] के सर्वविदित आंकडे़ दोहराती है। इस मामले में भी सरकार ने अपनी तरफ से कोई जानकारी जुटाने की कोशिश नहीं की है। इन आंकड़ों के मुताबिक 2001 में 88 अरब डालर की काली कमाई देश से बाहर गई। सरकार ने माना है कि दोहरे कर से बचने वाली संधियां ही काले धन के सृजन का मुख्य स्त्रोत बन रहीं हैं।
बताया कम छिपाया ज्यादा:-
-विदेशी बैंकों में खाता रखने वालों का नाम नदारद
-काले धन पर आठवें दशक के एनआइपीएफपी रिपोर्ट का ब्योरा
-काले धन का सृजन रोकने वाले कानूनों का उल्लेख
-रीयल एस्टेट, सार्वजनिक खरीद, वित्तीय बाजार और बुलियन काला धन सृजन के प्रमुख स्त्रोत
छद्म नामों से हो रहा देश में निवेश
सरकार के श्वेत पत्र ने देश में होने वाले विदेशी निवेश की भी कलई खोल दी है। सरकार ने एक तरह से स्वीकार कर लिया है कि दोहरे कराधान से बचने के लिए किए जाने वाले समझौते [डीटीएए] की आड़ में भारत में काला धन निवेश किया जा रहा है। इस समझौते का ही असर है कि पिछले 12 वर्षो में भारत में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश [एफडीआइ] का बड़ा हिस्सा सिंगापुर और मॉरीशस के जरिये आ रहा है। सरकार को इस बात की आशंका है कि भारतीय ही इन देशों के रास्ते काला धन एफडीआइ के रुप में देश में भेज रहे हैं।
श्वेत पत्र डीटीएए को लेकर सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करता है। खासतौर पर जब सरकार यह समझती है कि डीटीएए की खामियों को दूर करने में गार [कर चोरी रोकने के सामान्य नियम] काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं फिर उसे क्यों लंबित किया जा रहा है? वित्त मंत्री ने वित्त विधेयक 2012-13 में इसे प्रस्तावित किया था लेकिन बाद में हटा दिया था। यह श्वेत पत्र इस तथ्य को भी सामने लाता है कि कर चोरी और काले धन के संबंध में विदेश से सूचनाएं तो खूब आ रही हैं लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई करने को लेकर सरकार सुस्ती दिखा रही है। यह भी स्पष्ट है कि देश की जनता भारत में अर्जित धन को विदेश में छिपाने वाले लोगों के नाम कभी नहीं जान सकेगी। विदेशी सरकारों के साथ होने वाले समझौते की वजह से सरकार ऐसा नहीं कर सकेगी।
श्वेत पत्र के मुताबिक अप्रैल, 2000 से मार्च, 2011 के बीच भारत ने जितना एफडीआइ आकर्षित किया उसका 51 फीसद से ज्यादा हिस्सा मॉरीशस और सिंगापुर में पंजीकृत कंपनियों ने किया। इन दोनों देशों के साथ भारत का पुराना समझौता है जो दोहरे कराधान की समस्या से कंपनियों को राहत देता है। सरकार को अंदेशा है कि भारत में काली कमाई की जाती है और उसे किसी न किसी तरीके से इन देशों के रास्ते फिर भारत में लगाकर 'सफेद' कर लिया जाता है। इस बारे में बाहरी एजेंसियां तो काफी कुछ कह चुकी हैं। यह पहला मौका है जब सरकार इसे स्वीकार कर रही है। सरकार ने कहा है कि इस खामी को दूर करने के लिए इन दोनों देशों के साथ नए सिरे से डीटीएए करने की तैयारी है।सबसे ज्यादा काली कमाई कंपनियों ने बनाई
देश में कितना काला धन छिपा है, इसका आकलन सरकार तो सही-सही अभी तक नहीं लगा पाई है लेकिन उसने जो आंकड़े दिए हैं उससे स्पष्ट है कि यह आम अनुमान से काफी ज्यादा है। सिर्फ पिछले पांच वर्षो में ही आयकर विभाग की विभिन्न एजेंसियों ने देश-विदेश में मोटे तौर पर दो लाख करोड़ रुपये के काले धन का पता लगाया है। विदेशों में कारोबार फैला रहा भारतीय कारपोरेट उद्योग हो या देश के छोटे व्यापारी या आम कर दाता, काला धन बनाने में सब एक से बढ़ कर एक हैं।
काले धन पर सरकार की तरफ से पेश श्वेत पत्र में पहली बार आयकर विभाग के छापों और इसमें उजागर होने वाले धन के बारे में विस्तार से जानकारी उपलब्ध कराई गई है। अमूमन ये आंकड़े पिछले छह वित्त वर्षो के हैं, जो अपने आप ही बता रहे हैं कि काले धन की समस्या कितनी विकराल हो गई है। मसलन, आयकर विभाग कानून के तहत मारे जाने वाले छापों में पकड़े जाने वाली राशि इन वर्षो में तीन गुनी हो चुकी है। 2006-07 में 3612.89 करोड़ के काले धन का पता चला था जबकि 2011-12 में आंकड़ा 9289.43 करोड़ रुपये का हो गया।
छोटी व मझोली औद्योगिक इकाइयां भी पीछे नहीं। गत छह वर्षो में इनके बीच किये गये सर्वे से 26,579 करोड़ के काले धन का पता चला है। रिपोर्ट से यह भी साफ होता है कि कारपोरेट सेक्टर में भी काले धन के मामले काफी तेजी से बढ़े हैं। चाहे विदेशों में कारोबार फैला रही देशी कंपनियां हो या भारत में कार्यरत विदेशी कंपनियां, सही तरीके से कर अदा करने में इन सब की भूमिका संदेहास्पद है। अंतरराष्ट्रीय कराधान निदेशालय को इनसे सही आय व कर वसूलने में नाकों चने चबाना पड़ता है। पिछले एक दशक के दौरान उन भारतीय कंपनियों के एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर वसूला गया जो सही सूचना नहीं दे रही थी।
श्वेत पत्र के मुताबिक, गत दो वर्षो के दौरान भारतीय कंपनियों ने विदेशी सहयोगी कंपनियों की मिलीभगत से 67,768 करोड़ का कर बचाने की कोशिश की है। यह पूरा खेल ट्रांसफर प्राइसिंग है जिसमें ये कंपनियां एक उत्पाद या सेवा का भारत में तो कुछ और मूल्य दिखाती हैं लेकिन विदेशों में ज्यादा राजस्व प्राप्त करती हैं।
आयकर विभाग के छापे में जब्त धन
09-10-301--132.2----8101
10-11-440--184.15--10,649
11-12-499--271------9289
Monday, May 21, 2012
"गंगा "पर विशेष
राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी
प्राधिकरण के निर्देशन में गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना के लिए प्रधानमंत्री की
अध्यक्षता में गंगा नदी की सफाई एवं बहाव को सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट की
आर्थिक मामलों की समिति ने रू 7000 करोड़ मंजूर किये। इस रू 7000 करोड़ की धनराशि में रू 5100 करोड़ केन्द्र तथा रू 1900 करोड़ उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड व अन्य राज्य देगें। केन्द्र की इस रू 5100
करोड़ की धनराशि में रू 4600
विश्वबैंक बतौर कर्ज देगा। इस परियोजना
को अगले 8 वर्षों में पूरा किया जाना
सुनिश्चित होगा तथाकुल व्यय लगभग रू 15000 करेड़ का अनुमान है। गंगा की सफाई तथा बहाव को सुनिश्चित करने
के लिए गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना का खाका कानपुर आई0आई0टी0 के नेतृत्व में देश के प्रमुख सातों (कानपुर सहित) आई.आई.टी.
ने किया है।
गंगा नदी तथा गंगा घाटी की
विशालता का अन्दाज कुछ जानकारियों से लगाकर हम इसकी गम्भीरता का एहसास कर सकेगें।
अपने उद्गम स्थल गोमुख से अपने समर्पण बिन्दु गंगा सागर तक गंगा नदी की लम्बाई 2510
किमी0 है। इस गंगाघाटी का क्षेत्रफल 9,07,000 वर्ग किमी0 है तथा इसका सम्पर्क देश के 11 राज्यों से हैं। इन 11 राज्यों में से 5 राज्यों मे गंगा नदी का पवित्र स्पर्श है। गंगा नदी में
छोटी-बडी प्रमुख नदियॉ महाकाली, करनाली, कोशी, गण्डक, घाघरा, यमुना, सोन तथा महानन्दा आदि मिलकर इसके स्वरूप को विशालता, पवित्रता तथा गहराई देती हैं। गंगा नदी के तट पर हरिद्धार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, गाजीपुर, पटना तथा कोलकाता जैसे धार्मिक, राजनैतिक गतिविधियों के केन्द्र तथा आर्थिक रीढ़ के शहर स्थित
हैं। गंगा नदी की विशालता तथा उपादेयता का अन्दाज इसी बात से लगाया जाता है कि
गंगा घाटी में निवास करने वाली तथा निर्भर रहने वाली लगभग 50 करोड़ आबादी दुनिया की किसी भी नदी घाटी में रहने वाली आबादी से
ज्यादा है। जीवन के लिए भोजन हेतु सिंचाई के मामले गंगा नदी घाटी देश की कुल
सिंचित क्षेत्र का 29.5 प्रतिशत
है।
भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे लम्बी
नदी, लगभग 50 करोड़ की आबादी का भरण पोषण करने वाली पवित्र गंगा, पंच प्रयागों के प्राण से अनुप्राणित गंगा, ऋगवेद के श्लोक (10.75) में वर्णित गंगा, रामायण में सीता द्वारा पूजी गई गंगा, भगवान विष्णु के अंगूठे से निकली विष्णुपदी गंगा, संगम इलाहाबाद में भुनि भारद्वाज द्वारा अर्चित की गई गंगा, रोम की पियज्जा नबोना में वर्णित दुनिया की 4 प्रमुख नदियों नील, दानुबे, रियोदिला प्लांटा में शुमार चैथी गंगा, आमेजन तथा कांगो के बाद सर्वाधिक जलराशि की गंगा, समय के साथ अपने पुत्रों की उपेक्षा से आहत होकर दुनियॉ की
सबसे प्रदूषित नदी कैसे बन गई?
भागीरथ के प्रयासों से धरती पर लाई गई गंगा भागीरथी प्रयासों
से ही स्वच्छ, निर्मल और अविरल होगी। गंगा को
मात्र नदी या उपभोग करने का पानी समझने वालों को जानना चाहिए कि अनुपम
पारिस्थितिकी तन्त्र को संजोये, जैव विविधता को अन्दर समेटे तथा सामाजिक सांस्कृतिक धरोहर वाली
नदी गंगा केवल एक नदी ही नहीं बल्कि वह गंगा हमारे लिए व हमारी संस्कृति के लिए मॉ
है, देवी है, परम्परा है, संस्कृति है और बहुत कुछ है जिसको जाना नहीं जा सकता है सिर्फ
समझा व महसूस किया जा सकता है।
गंगा के प्रदूषण के लिए बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण तथा कृषि के कारण ज्यादा जिम्मेदार है। बढ़ती आबादी और शहरीकरण से गंगा नदी घाटी पर दबाब बढ़ गया जिसके कारण नदी का प्रदूषण स्तर बढ़ता गया और गंगाजल आचमन की तो छोड़िये स्नान के योग्य भी नहीं रहा। वैज्ञानिको के अनुसार जो बैक्टीरिया 500 फैकल प्रति 100 मिली होना चाहिए वह 120 गुना ज्यादा 60,000 फैकल प्रति 100 मिली पाया गया, जिससे गंगा स्नान योग्य भी नहीं रह गई। उत्तर प्रदेश के अन्दर कन्नौज से लेकर पवित्र शहर वाराणसी तक लगभग 450 किमी के बीच गंगा सर्वाधिक प्रदूषित हैं इस क्षेत्र की फैक्ट्रिया इस नदीं को प्रदूषित कर रही है। एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार गंगा में 75 प्रति सीवरेज तथा 25 प्रतिशत औद्योगिक प्रदूषण पाया जाता है। इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्व अपने द्वारा फैलाये गये प्रदूषण से बेखबर भी नहीं है। हॉ उनको जानकर भी अनजान रखने वाली शासन प्रणाली गंगा की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है।
गंगा के प्रदूषण के लिए बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण तथा कृषि के कारण ज्यादा जिम्मेदार है। बढ़ती आबादी और शहरीकरण से गंगा नदी घाटी पर दबाब बढ़ गया जिसके कारण नदी का प्रदूषण स्तर बढ़ता गया और गंगाजल आचमन की तो छोड़िये स्नान के योग्य भी नहीं रहा। वैज्ञानिको के अनुसार जो बैक्टीरिया 500 फैकल प्रति 100 मिली होना चाहिए वह 120 गुना ज्यादा 60,000 फैकल प्रति 100 मिली पाया गया, जिससे गंगा स्नान योग्य भी नहीं रह गई। उत्तर प्रदेश के अन्दर कन्नौज से लेकर पवित्र शहर वाराणसी तक लगभग 450 किमी के बीच गंगा सर्वाधिक प्रदूषित हैं इस क्षेत्र की फैक्ट्रिया इस नदीं को प्रदूषित कर रही है। एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार गंगा में 75 प्रति सीवरेज तथा 25 प्रतिशत औद्योगिक प्रदूषण पाया जाता है। इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार तत्व अपने द्वारा फैलाये गये प्रदूषण से बेखबर भी नहीं है। हॉ उनको जानकर भी अनजान रखने वाली शासन प्रणाली गंगा की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है।
हमारी स्वार्थ परक उपभोग वाली मानसिकता ने हमारे पारिस्थितिकी
तन्त्र का कितना नुकसान कर दिया है इसकों हमारी आने वाली पीढ़ी भुगतेगी। अगर हम
वास्तविक धर्म में विश्वास रखते थे तो मोक्ष दायिनी मॉ स्वरूपा गंगा को प्रदूषित न
करते। हम 800 ई0 के ब्रह्मानन्द पुराण में वर्णित निर्मल गंगा मन्त्र,
"गंगा पुष्यजलां प्राप्य त्रयेदश
विवत्र्रयेत्। शौचच माचमनं सेकं निर्माल्यं मलधर्षणम्। गात्र संवाहनं क्रीडां
प्रति ग्रहम थोरतिम्। अन्य तीर्थ रत्रि चैवः अन्य तीर्थ प्रशंनम्।
वस्त्रत्यागमथाघातं सन्तांरच विशेषताः"।। में वर्णित 13 प्रतिबन्धित कार्य न करते जैसे मल त्याग, धार्मिक पूजन सामग्री का धोना, गन्दे पानी का विसर्जन, चढावे के फूल इत्यादि फेंकना, मैल धोना, स्नान में रासायनिको का प्रयोग, जल क्रीडा करना , दान की मांग करना, अश्लीलता, गलत मन्त्रों का उच्चारण, वस्त्रों को फेकना, वस्त्रों को धोना तथा तैर कर नदी का पार करना वर्जित है। 800
ई0 को ब्रह्मानन्द पुराण में भी यह मन्त्र समय कालीन सिद्ध है तथा
यही मन्त्र इक्कीसवीं सदी में भी सत्य है।
यह सही है कि गंगा की सफाई के प्रयास हुए परन्तु किये गये यह प्रयास पूर्णतया असफल सिद्ध हुए हैं। सन् 1986 मं गंगा एक्शन प्लान प्रथम तथ बाद में गंगा एक्शन प्लान द्वितीय चलाये जिसमें सरकार के अनुसार लगभग रू 950 करोड़ बर्बाद हुए और परिणाम जस का तस रहा। जानकार हैरान होगी कि गंगा एक्शन प्लान प्रथम के पहले तथा प्लान के बाद नापे गये गंगा के बनारस घाट के प्रदूषण स्तर मे कोई अन्तर नहीं आया था। यह दोनो एक्शन प्लान ब्यूरो क्रेशी की लेट लतीफी और लाल फीताशाही के शिकार हो गये। गंगा के निर्मल करने के प्रयासो के तहत उत्तराखण्ड की सरकार ने लाल कृष्ण आड़वानी के उपस्थिति में अप्रैल, 2010 में ‘स्पर्श गंगा’ अभियान की शुरूआत की थी। इस अभियान को दलाई लामा, बाबा राम देव तथा चिन्दानन्द सरस्वती का आर्शीवाद था। सिविल सोसायटी ने भी अपने-अपने स्तर पर गंगा की स्वच्छता और बहाव को अक्षुण्ण रखने के लिए सतत् और गम्भीर प्रयास किये। अब तक के किये गये प्रयासों में तकनीकविदों, पर्यावरणविदों तथा सांस्कृतिकदूतों को एक साथ नहीं लिया गया था। इन परियोजनाओं का आधार सिर्फ बड़े शहर थे तथा राज्य सरकारों और नगर निकायों की भागीदारी आवश्यक तौर पर सुनिश्चित नहीं की गई थी।
गंगा के तट पर उसके नैसर्गिक बहाव को रोककर बॉध बनाना तथा ऊर्जा पैदा करना विकसित देश की आवश्यकता तो हो सकती है परन्तु पारिस्थितिक तन्त्र से खिलवाड़ आवश्यकता से अधिक महॅगा सौदा है। गंगा के तट पर पहले से ही दो बड़े-बड़े बॉध बन चुके हैं तथा कई छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनायें काम रही है। अब गंगा अधिक भार अपने ऊपर सहने को तैयार नहीं दिखती। प्रोफेसर बी0डी0 अग्रवाल के सन् 2008 तथा सन् 2009 के अनशन के दौरान मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन से पतित पावनी गंगा के उद्धार का मार्ग खुलता प्रतीत हुआ। अब गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना के तहत हर तरह के पहलुओं को ध्यान में रखने की बात कही गई है। इस प्रबन्धन योजना में तकनीक का इस्तेमाल, पर्यावरणविदों की राय तथा सांस्कृतिक दूतों (पण्डो, पण्डितों, पुजारियो और साधु-सन्तो आदि) का समायोजन किये जाने की योजना है। शासन स्तर भी सहयोग की अपेक्षा की जा रही है तथा इस योजना के क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों नीति, कानून और शासन की ध्यान रखने की बात की जा रही हैं इस बार पूरी नदी घाटी (क्षेत्रफल 9,07000 वर्ग किमी) को समाहित किया जा रहा हैं तथा उपकरण और प्रणाली के तौर पर भू स्थानिक डाटा बेस प्रबन्धन, माडलिंग और सिनैरियों जनरेशन और संचार माध्यम के व्यवहारिक विकास पर जोर दिया गया है। यह तो भविष्य ही बतायेगा कि यह गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना कारगर होगी या फिर गंगा एक्शन प्लान की तरह हवा हवाई सिद्ध होगी। कुछ भी हो यदि यह योजना सफल हुई तो भारतीय तकनीक प्रबन्धन को एक ऊँचा मुकाम मिलेगा अन्यथा देश की अग्रणी संस्था आई.आई.टी. की साख पर बट्टा लगेगा। तकनीक के अलावा असली जनजागरण मुहिम पर्यावरणविदों, सांस्कृतिक दूतों, तथा राजनैतिक दलों को एक साथ चलानी होगी तब कहीं गंगा की अविरलता तथा निर्मलता सुरक्षित तथा संरक्षित रहेगी।
यह सही है कि गंगा की सफाई के प्रयास हुए परन्तु किये गये यह प्रयास पूर्णतया असफल सिद्ध हुए हैं। सन् 1986 मं गंगा एक्शन प्लान प्रथम तथ बाद में गंगा एक्शन प्लान द्वितीय चलाये जिसमें सरकार के अनुसार लगभग रू 950 करोड़ बर्बाद हुए और परिणाम जस का तस रहा। जानकार हैरान होगी कि गंगा एक्शन प्लान प्रथम के पहले तथा प्लान के बाद नापे गये गंगा के बनारस घाट के प्रदूषण स्तर मे कोई अन्तर नहीं आया था। यह दोनो एक्शन प्लान ब्यूरो क्रेशी की लेट लतीफी और लाल फीताशाही के शिकार हो गये। गंगा के निर्मल करने के प्रयासो के तहत उत्तराखण्ड की सरकार ने लाल कृष्ण आड़वानी के उपस्थिति में अप्रैल, 2010 में ‘स्पर्श गंगा’ अभियान की शुरूआत की थी। इस अभियान को दलाई लामा, बाबा राम देव तथा चिन्दानन्द सरस्वती का आर्शीवाद था। सिविल सोसायटी ने भी अपने-अपने स्तर पर गंगा की स्वच्छता और बहाव को अक्षुण्ण रखने के लिए सतत् और गम्भीर प्रयास किये। अब तक के किये गये प्रयासों में तकनीकविदों, पर्यावरणविदों तथा सांस्कृतिकदूतों को एक साथ नहीं लिया गया था। इन परियोजनाओं का आधार सिर्फ बड़े शहर थे तथा राज्य सरकारों और नगर निकायों की भागीदारी आवश्यक तौर पर सुनिश्चित नहीं की गई थी।
गंगा के तट पर उसके नैसर्गिक बहाव को रोककर बॉध बनाना तथा ऊर्जा पैदा करना विकसित देश की आवश्यकता तो हो सकती है परन्तु पारिस्थितिक तन्त्र से खिलवाड़ आवश्यकता से अधिक महॅगा सौदा है। गंगा के तट पर पहले से ही दो बड़े-बड़े बॉध बन चुके हैं तथा कई छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनायें काम रही है। अब गंगा अधिक भार अपने ऊपर सहने को तैयार नहीं दिखती। प्रोफेसर बी0डी0 अग्रवाल के सन् 2008 तथा सन् 2009 के अनशन के दौरान मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन से पतित पावनी गंगा के उद्धार का मार्ग खुलता प्रतीत हुआ। अब गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना के तहत हर तरह के पहलुओं को ध्यान में रखने की बात कही गई है। इस प्रबन्धन योजना में तकनीक का इस्तेमाल, पर्यावरणविदों की राय तथा सांस्कृतिक दूतों (पण्डो, पण्डितों, पुजारियो और साधु-सन्तो आदि) का समायोजन किये जाने की योजना है। शासन स्तर भी सहयोग की अपेक्षा की जा रही है तथा इस योजना के क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों नीति, कानून और शासन की ध्यान रखने की बात की जा रही हैं इस बार पूरी नदी घाटी (क्षेत्रफल 9,07000 वर्ग किमी) को समाहित किया जा रहा हैं तथा उपकरण और प्रणाली के तौर पर भू स्थानिक डाटा बेस प्रबन्धन, माडलिंग और सिनैरियों जनरेशन और संचार माध्यम के व्यवहारिक विकास पर जोर दिया गया है। यह तो भविष्य ही बतायेगा कि यह गंगा नदी घाटी प्रबन्धन योजना कारगर होगी या फिर गंगा एक्शन प्लान की तरह हवा हवाई सिद्ध होगी। कुछ भी हो यदि यह योजना सफल हुई तो भारतीय तकनीक प्रबन्धन को एक ऊँचा मुकाम मिलेगा अन्यथा देश की अग्रणी संस्था आई.आई.टी. की साख पर बट्टा लगेगा। तकनीक के अलावा असली जनजागरण मुहिम पर्यावरणविदों, सांस्कृतिक दूतों, तथा राजनैतिक दलों को एक साथ चलानी होगी तब कहीं गंगा की अविरलता तथा निर्मलता सुरक्षित तथा संरक्षित रहेगी।
Tuesday, May 15, 2012
प्रौद्योगिकी विकास की राह
प्रौद्योगिकी विकास की राह पर हम
प्रियंका शर्मा
द्विवेदी
आज का दिन प्रौद्योगिकी के लिहाज से हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण
है, क्योंकि इसी दिन 1998 में पोकरण में दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया गया था। तभी
से हर साल 11 मई का दिन
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। पोकरण परीक्षण निश्चित रूप से हमारी बड़ी तकनीकी क्षमता को दर्शाता है। इस दिन हमने न केवल अपनी उच्च प्रौद्योगिक प्रगति का प्रदर्शन किया, बल्कि किसी को कानों-कान इस परीक्षण की भनक तक नहीं लगने दी। अपने उपग्रहों से पूरी दुनिया पर नजर रखने वाला अमेरिका भी गच्चा खा गया
था।
प्रौद्योगिकी विकास की इसी कड़ी में पिछले दिनों हमने सुदृढ़ स्वदेशी
प्रौद्योगिकी का परिचय देते हुए इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल
(आईसीबीएम) अग्नि-5 और देश का पहला
स्वदेश निर्मित रडार इमेजिंग उपग्रह (रीसैट-1) का सफल प्रक्षेपण किया। जाहिर है, हमारा देश स्वदेशी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर रक्षा और अंतरिक्ष के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। अग्नि-5 के सफल परीक्षण के साथ विश्व में भारत के स्वदेशी मिसाइल
कार्यक्रम की धाक जम गई है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के
बाद भारत आईसीबीएम मिसाइल तैयार करने वाला छठा देश बन चुका है। यह मल्टीपल
इंडिपेंडेंटली टार्गेटेबल रिएंट्री ह्वीकल (एमआरटीआरवी) से लैस है, जिसकी मारक क्षमता के दायरे में लगभग आधी दुनिया है। यह देश का पहला कैनिस्टर्ड मिसाइल है, जिसे एक स्थान से दूसरे
स्थान पर ले जाना आसान है। दुनिया भर से मिली प्रतिक्रिया से जाहिर है कि हमने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है, क्योंकि यह मिसाइल 80 फीसदी से अधिक स्वदेशी प्रौद्योगिकी और उपकरणों से सज्जित
है।
रीसैट-1 इसरो का पहला स्वदेशी रडार इमेजिंग सैटेलाइट है, जो हर तरह के मौसम, बारिश, तेज गरमी, कोहरे और चक्रवात में भी तसवीरें लेने में सक्षम है। हमारे लिए यह एक बड़ी कामयाबी है, क्योंकि अभी तक हम कनाडियाई उपग्रह से ली गई तसवीरों पर निर्भर हैं। इससे पहले उपग्रहों के
महत्वपूर्ण घटक सिंथेटिक अपरचर रडार
(एसएआर) का आयात किया गया था, मगर रीसैट-1 में लगने वाले एसएआर का विकास भारत में
किया गया है। रीसैट-1 अन्य दूरसंवेदी उपग्रहों की तुलना में उन्नत व जटिल है। इसीलिए इसका इसका वजन 1,850 किलोग्राम है और यह सबसे वजनी माइक्रोवेव
उपग्रह है। इससे देश की निगरानी क्षमता काफी बढ़ जाएगी। इसका उपयोग आपदाओं की भविष्यवाणी, प्रबंधन, फसलों की पैदावार और रक्षा क्षेत्र में किया जाएगा। इसरो के प्रक्षेपण वाहन ‘पीएसएलवी’ ने रीसैट-1 के प्रक्षेपण के साथ 20 सफल उड़ानें पूरी कर अपनी विश्वसनीयता स्थापित की है। इसरो द्वारा प्रक्षेपित यह अब तक का सबसे भारी उपग्रह है, जो उसके करीब 10 वर्षों के प्रयासों का प्रतिफल है।
प्रौद्योगिकी मोरचे पर इस कामयाबी के बावजूद हमारे रक्षा वैज्ञानिकों को
दुश्मनों की मिसाइल को मार गिराने वाली इंटरसेप्टर मिसाइल और मिसाइल
डिफेंस सिस्टम पर काम करने की जरूरत है, क्योंकि अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन जैसे देश इसे विकसित कर चुके हैं। मिसाइल डिफेंस सिस्टम से दुश्मन की
मिसाइल को हवा में ही नष्ट किया जा सकता है। इसलिए हमें अपनी सैन्य क्षमताओं
को स्वदेशी तकनीक से अत्याधुनिक बनाना होगा, ताकि कोई भी दुश्मन देश हमारी तरफ आंख उठाने से पहले सौ बार सोचे। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर हमें उन्नत और आधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास के लिए संकल्प लेना होगा, क्योंकि अभी प्रौद्योगिकीय क्षमता के विकास को बढ़ावा देने के लिए और भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
बेशक हमने रक्षा एवं अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास में काफी
कामयाबी प्राप्त की है, लेकिन विकसित
राष्ट्र बनने के लिए काफी कुछ करना बाकी है।
अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 11/05/2012 को प्रकाशित
लेख लिंक
Subscribe to:
Posts (Atom)