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इसरों-देवास डील
बड़े मामलों के ये महज छोटे किरदार
आखिरकार भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एंट्रिक्स-देवास मुद्दे पर अपनी जाँच रिपोर्ट सार्वजानिक कर दी । जिसमे पूर्व इसरो प्रमुख जी माधवन नायर और तीन अन्य वरिष्ठ वैज्ञानिकों को इस सौदे में भारी अनिमितताओं का दोषी पाया गया गया है । पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट के अनुसार एंट्रिक्स-देवास सौदे में पारदर्शिता की कमी थी। इस मामले में गंभीर प्रशासनिक और प्रक्रियागत गलती के साथ साथ जानबूझकर कर देवास को फायदा पहुँचाया गया ।
इसी वजह से एंट्रिक्स-देवास विवाद के मद्देनजर केंद्र सरकार ने यह फैसला लिया की भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष और पद्मविभूषण से सम्मानित वैज्ञानिक जी माधवन नायर को अब कोई भी सरकारी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाएगी। सरकार ने नायर समेत इसरो के चार अधिकारियों को भी ब्लैक लिस्ट कर दिया है।
इसरो की व्यवसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास मल्टीमीडिया के बीच हुए एस बैंड स्पेक्ट्रम सौदे को सरकार द्वारा रद्द किए जाने के बाद सवाल उठता है कि पहले चरण में ही इस सौदे पर हस्ताक्षर क्यों किए गए और इसे रद्द करने में इतना समय क्यों लगा।
देश के लोगों को साफ साफ यह समझाना चाहिए कि अंतरिक्ष आयोग की सिफारिश के बावजूद यह सौदा रद्द करने में सरकार को कई माह का समय क्यों लगा। जब अंतरिक्ष आयोग ने सौदा रद्द करने की सिफारिश की थी, तब ही इसे रद्द क्यों नहीं किया गया। इसकी पूरी जाच होनी चाहिए और इससे जुड़े लोगों को देश के सामने जवाब देना चाहिए।
एस बैंड स्पेक्ट्रम के 70 मेगा हर्ट्ज को 1000 करोड़ रूपये में निजी कंपनी को देने का यह सौदा विवादों में घिर गया था जिसके बाद इसे रद्द कर दिया गया। सीएजी इस मामले में कार्रवाई शुरू कर चुका है। महत्वपूर्ण सवाल है कि सौदे को एक महत्वपूर्ण चरण में क्यों रद्द किया गया जबकि कुछ माह में यह प्रभावी होने वाला था। समझौते के वक्त राधाकृष्णन भी एंट्रिक्स बोर्ड के सदस्य थे, लेकिन उन्होंने उस समय कुछ भी नहीं कहा था। आज वह समझौते को गलत कैसे बता सकते हैं?
देश यह जानना चाहता है कि ऐसा क्या गलत हुआ जिससे समझौता रद्द किया गया। देश का आम आदमी जानना चाहता है कि जिस क्षेत्र में अब तक निजी कंपनियों को अनुमति नहीं दी गई वहा क्या सरकार पिछले दरवाजे से विदेशी कंपनियों को आने की अनुमति दे रही थी। स्पेक्ट्रम के बेचे जाने वाले बैंड का इस्तेमाल तटरक्षक जैसी एजेंसिया करती हैं। निश्चित रूप से इससे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उठता है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन की व्यावसायिक इकाई अंतरिक्ष और देवास मल्टीमीडिया के बीच सैटेलाइट स्पेक्ट्रम के हुए सौदे में जो अनियमितता बरती गयी वे देश का भरोसा हिलाने वाले हैं। एक देश के रूप में भारत जिन कुछ उपलब्धियों पर नाज करता रहा है, इसरो और परमाणु अनुसन्धान संस्थानों का नाम प्रमुख रहा है। पिछले कुछ समय, खासकर एंट्रिक्स -देवास डील से जुड़ी खबरों के सामने आने के बाद से इसरो की ओर लोगों का ध्यान गया है। वास्तव में इसरो और परमाणु-अनुसन्धान से जुड़ी संस्थाओं के बारे में समाचार माध्यमों में अधिकतर अच्छी खबरें ही प्रकाशित होती रही हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का उपग्रह बनाने और उन्हें प्रक्षेपित करने का शानदार रिकॉर्ड रहा है इसलिए इसरो से जुड़े वैज्ञानिकों पर भी देश को गर्व है। लेकिन देवास डील की इस अनियमितता ने लोगो को चौंका दिया है ।
एंट्रिक्स इसरो की कारोबारी इकाई है, जो मुख्यतः उपग्रह के स्पेक्ट्रम निजी क्षेत्र की कंपनियों को किराये पर देने तथा सैटेलाइट इमेजरी को बेचने का काम करती है। अन्त्रिक्स और चेन्नई की निजी कंपनी देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड के बीच २००५ में एक अनुबंध हुआ था। इस अनुबंध के तहत अंतरिक्ष द्वारा देवास को एस. बैंड स्पेक्ट्रम देने थे, जिसके बदले देवास १२ वर्षों में किस्तों पर कुल ३० करोड़ रुपए एंट्रिक्स को देता।
अनुबंध के समय प्रतिष्ठित अंतरिक्ष वैज्ञानिक जी. माधवन नायर इसरो के भी अध्यक्ष थे और अनुबंध को अंतिम रूप देने वाले अंतरिक्ष बोर्ड के भी। उनकी अध्यक्षता में अंतरिक्ष बोर्ड ने देवास के साथ करार को मंजूरी दी थी।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के अनुसार इस करार से सरकार को दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। देवास प्रकरण भी २जी स्पेक्ट्रम घोटाले जैसा ही है। साल २०१० के अंतिम महीनों में आई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट से इसका खुलासा होने के बाद से यह प्रकरण पूरे देश में काफी चर्चित रहा और संसद में भी इस पर बहस हुई । साल २०११ के फरवरी में सरकार ने यह करार रद्द कर दिया था।
अभी तक की जांच में जो सामने आया है उससे लगता है की इस सौदे में माधवन नायर और उनके कुछ सहयोगियों की भूमिका संदेहास्पद रही है। पूर्व केंद्रीय सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार ने माधवन नायर समेत इसरो के चार पूर्व अधिकारियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया है। ष्ब्लैक लिस्टष् करने का मतलब अब इन चारों अधिकारियों को कोई सरकारी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाएगी। प्रसिद्द वैज्ञानिक जी माधवन नायर ने भारत के चंद्रयान-मिशन जैसी कई महत्वाकांक्षी परियोजना में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से उनका काफी सम्मान भी है और सरकार द्वारा उन्हें पद्म श्री और पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन केंद्र सरकार की मौजूदा कार्रवाई से उनका दामन दागदार हुआ है और इससे नाराज माधवन ने इस कार्रवाई को विभागीय राजनीति की वजह से बताया है। वो केंद्र सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती देने की बात भी तैयारी कर रहे है । माधवन को अदालत में जाने का पूरा अधिकार है, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एस बैंड स्पेक्ट्रम आवंटन का मामला भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा और देश के संसाधनों की लूट जैसा ही है। यह मामला देश में खनन परियोजनाएं निजी क्षेत्र को लीज पर देने जैसा हैं। जहाँ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार फैला है ।
इस तरह के प्रकरणों में भ्रष्टाचार की वजह यह है कि हमारे देश में राष्ट्रीय संसाधनों के निजी क्षेत्र में इस्तेमाल की कोई स्पष्ट नीति ही नहीं है। अंतरिक्ष-देवास करार, २जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खनन परियोजनाएं निजी क्षेत्र को लीज पर देने का मामला हो या, इस तरह के सभी मामले राष्ट्रीय संसाधनों के उपयोग के बारे में देश में स्पष्ट और पारदर्शी नियम-कायदे बनाने की मांग करते हैं।
इस मामले पर जारी ताजा घटनाक्रम में अब केंद्रीय मंत्री वी नारायणसामी यह कह रहे हैं कि सरकार उनकी बात सुनने को तैयार है?अब एक प्रश्न उठता है की यदि इन वैज्ञानिकों पर प्रतिबंध लगाने के पहले उनका पक्ष जानना जरूरी नहीं था तो फिर क्या कारण है कि अब सरकार उनकी बात सुनने को तैयार है? सीधी सी बात है की इस मामले में सरकार पर भी दबाव है ।
दबाव की सबसे बड़ी वजह प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के प्रमुख प्रो. सीएनआर राव ने इस मामले में सरकार के फैसले की ने तीखी आलोचना की है। उनका कहना है की माधवन नायर सहित उनके तीन सहयोगी वैज्ञानिकों को कचरे की तरह फेंक दिया गया। उनका सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है जिसने सारे देश का ध्यान आकृष्ट किया है वह है कि आखिर सरकार ऐसी ही कार्रवाई भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ क्यों नहीं करती? यह सामान्य बात नहीं कि प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के प्रमुख वैज्ञानिकों संबंधी सरकार के किसी फैसले की इतनी कठोर आलोचना करें।
इस मामले में यह भी सार्वजनिक होना चाहिए कि क्या एंट्रिक्स-देवास करार के लिए सिर्फ यही चार वैज्ञानिक जिम्मेदार थे? यह सवाल इसलिए, क्योंकि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र सीधे प्रधानमंत्री के तहत काम करता है। क्या यह संभव है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत कार्य करने वाला कोई संगठन इतना बड़ा फैसला ले ले और उसे इसकी जानकारी किसी को न हो ?इस मामले का सच पूरे देश के सामने आना ही चाहिए ।
इसरो से जो भी वैज्ञानिक जुड़े हैं या जुड़े रहे हैं, उन पर पूरा देश गर्व करता है। ऐसी संस्था पर जब कीचड़ उछलता है, तो उसके दाग पूरे देश के भरोसे पर लगते हैं। अभी तक इसरो जिस माहौल में काम कर रहा था, वह पूरी तरह से सरकारी माहौल था। उसे सरकार द्वारा व सरकार के लिए ही सब कुछ करना होता था। लेकिन अब पूरी दुनिया की तरह ही उपग्रह सेवाएं भारत में भी निजी क्षेत्रों के पास आ रही हैं। पहले इन उपग्रहों का इस्तेमाल सिर्फ सरकारी एजेंसियां करती थीं, लेकिन अब आम नागरिक भी करता है। अब यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि इंटरनेट सेवा से लेकर टीवी चौनल दिखाने का काम सिर्फ सरकारी कंपनियों के भरोसे ही हो। ऐसे में, सरकारी संगठनों को आप निजी क्षेत्र से व्यवहार करने से तो नहीं रोक सकते।
लेकिन ऐसे पारदर्शी प्रावधान जरूर बनाए जा सकते हैं, जिनके कारण कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह राष्ट्रीय संसाधनों को लूटने या लुटाने की कोशिश न कर सके। ऐसे प्रावधानों का अभाव ही देश को अपने संसाधनों का सही मूल्य हासिल करने से वंचित रखता है।
बेशक कोई व्यक्ति देश से बड़ा नहीं होता और अगर माधवन सचमुच अपनी ख्याति की आड़ में भ्रष्टाचार कर रहे थे तो उनके खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन उन्हें भी अपनी बात कहने का पूरा मौका मिलना चाहिए ,कोई भी कार्यवाही एकतरफा नहीं होनी चाहिए । सबसे बड़ी बात तो यह है कि वर्ष 2005 में हुए इस सौदे को जब रद्द किया गया था तो इसके पीछे सरकार ने प्राथमिकताएं बदल जाने जैसी कमजोर दलील दी थी और कहा था कि एस बैंड की जरूरत उसे अब सेना के लिए पड़ रही है। कहीं भी इस सौदे की वैधता पर सवाल नहीं उठाए गए थे। इसरो ने यह सौदा अपनी व्यापारिक कंपनी एंट्रिक्स के माध्यम से उसी रूप में किया था जिसके आधार पर वह पहले भी ट्रांसपोंडरों को निजी कंपनियों को दिया करती थी। ऐसे में जरूरी है कि प्रधानमंत्री खुद मामले में हस्तक्षेप करें ताकि असलियत देश के सामने आए और इसरो के वैज्ञानिकों का मनोबल भी न टूटे।
शशांक द्विवेदी (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
दैनिक भास्कर (राष्ट्रीय संस्करण )में ०७ /०२/२०१२ को प्रकाशित
कायदा तोड़ने वाले कानून मंत्री
कायदा तोड़ने वाले कानून मंत्री
केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद लगातार चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन कर रहे हैं। आयोग की ताकीद के बावजूद खुर्शीद अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी बयान देते रहे। हद तो तब हो गई, जब उन्होंने कहा कि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जीतती है तो पिछड़े वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे में अल्पसंख्यकों का उप-कोटा 4.5 प्रतिशत से बढ़ाकर नौ प्रतिशत कर देगी। इस तरह जब पानी सिर से ऊपर होने लगा तो चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाते हुए शनिवार को कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के खिलाफ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा और तत्काल उनके निर्णायक हस्तक्षेप की मांग की। संभवत: देश के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि कानून मंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति लगातार कानून तोड़ रहा है। शायद यह भी पहली बार ही है, जब चुनाव आयोग को किसी केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति के पास जाना पड़ा है। इस पूरे प्रकरण को गहराई से देखें तो समझ में आता है कि बिना आलाकमान की मर्जी के कम से कम सलमान खुर्शीद से इस कदर बेलगाम होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वैसे भी जब राष्ट्रपति ने आयोग की शिकायत पर कार्रवाई के लिए गेंद प्रधानमंत्री के पाले में डाल दी है तो वहां से भी कार्रवाई के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। अलबत्ता, कांग्रेस पार्टी ने खुर्शीद के बयानों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि किसी को भी संवैधानिक संस्था के नियम-कायदों को दरकिनार नहीं करना चाहिए। जिस तरह से प्रधानमंत्री इस पूरे मसले पर खामोश हैं, इससे तो यही मतलब निकाला जाएगा कि सरकार में अहम पदों पर बैठा आदमी कुछ भी बोले, लेकिन सरकार कुछ नहीं करेगी। सलमान खुर्शीद के बयानों से तो ऐसा लगने लगा है कि वह चुनाव आयोग को कुछ समझते ही नहीं हैं। वह संवैधानिक संस्था की दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ा रहे हैं और सरकार तथा कांग्रेस पार्टी उन्हें लगातार सह दे रही है। क्या यह लोकतांत्रिक देश के लिए ठीक है? वास्तव में चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की केंद्रीय मंत्री द्वारा अवज्ञा अप्रत्याशित है। उनके अनुचित और गैरकानूनी कृत्य से संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज के बीच नाजुक संतुलन पर दबाव बन गया है। दूसरी ओर पूरा देश इस बात से स्तब्ध है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर अफसोस जताने के बजाय कानून मंत्री खुर्शीद ने आक्रामक रुख अपनाया। वास्तव में यह अप्रत्याशित और दुर्भाग्यपूर्ण है। आदर्श आचार संहिता पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति है और सुप्रीमकोर्ट की भी मुहर लगी हुई है। बहरहाल, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को लिखे पत्र में आयोग ने कहा है कि इस मोड़ पर तत्काल और निर्णायक हस्तक्षेप के लिए चुनाव आयोग का आपके पास आना आवश्यक और अपरिहार्य है, ताकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव निष्पक्ष ढंग से संपन्न कराए जा सकें। एक तरह से देश का निर्वाचन आयोग राष्ट्रपति से न्याय की भीख मांग रहा है। अब देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति कि पहल पर केंद्र सरकार क्या कदम उठाती है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद सिर्फ चुनाव आचार संहिता का ही उल्लंघन नहीं कर रहे हैं, बल्कि अल्पसंख्यक मुस्लिमों और बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच दरार डालने का भी काम कर रहे हैं। पिछले दिनों आजमगढ़ में चुनाव प्रचार के दौरान सलमान खुर्शीद ने कहा कि बाटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देखकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की आंखों से आंसू फूट पड़े थे। सवाल यह नहीं है कि सोनिया गांधी रोई थीं या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि इस मुद्दे को लेकर लोगों की भावनाएं कितनी बार भड़काई जाएंगी। जबकि पिछले दिनों गृहमंत्री पी चिदंबरम ने साफ कर दिया था कि बाटला हाउस मुठभेड़ फर्जी नहीं थी और उसकी दोबारा जांच का सवाल ही नहीं है। फिर भी इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के मंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह लगातार भड़काऊ बयान दे रहे हैं। कांग्रेस के नेता, मंत्री आजमगढ़ जाकर बार-बार इस मुद्दे पर अल्पसंख्यक मुस्लिमों को जिस प्रकार से गुमराह कर रहे हैं, वह स्तब्ध करने वाला है। क्या इन नेताओं ने कभी शहीद इंस्पेक्टर मोहन शर्मा के घर जाना जरूरी समझा या उनके बारे में कभी कोई सकारात्मक बात की, जिन्होंने देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। उनकी इन बातों से देश की सुरक्षा में लगे जवानों का मनोबल तो टूटता ही है, आतंकवादियों के हौसले भी बुलंद होते हैं। एक सवाल और उठता है कि क्या सोनिया गांधी कभी कश्मीरी पंडितों के लिए रोई थीं, जो आज अपने ही कश्मीर में पराए हो गए हैं? क्या संसद पर हमले में शहीद हुए जवानों की तस्वीरों को देखकर उनकी आंखों से आंसू फूटे थे? सच तो यह है कि संसद पर हुए हमले शहीद हुए जवानों के परिजन आज भी दर-दर भटक रहे हैं। उनकी पीड़ा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शहीदों के मेडल तक वापस कर दिए। कांग्रेस अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच भावनाएं भड़काने का जो खेल खेल रही है, वह इस देश के लिए भारी पड़ने वाला है। बार-बार आजमगढ़ जाकर मुस्लिम वोटों की खातिर भावनाएं भड़काना ठीक नहीं है। कांग्रेस आग से खेल रही है, जिसकी बड़ी कीमत इस देश को चुकानी पड़ेगी, क्योंकि इन्ही सब कारणों से ही देश का विभाजन हुआ था। उस समय भी कांग्रेस के ही एक धड़े ने हिंदू और मुसलमानों के बीच भावनाएं भड़काने का काम किया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कुख्यात आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन को ओसामा जी और संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को अफजल जी कहकर बुलाते हैं। वह तो यह भी कहते हैं कि मुंबई हमले में संघ का हाथ है और बाटला हाउस मुठभेड़ फर्जी थी। यह सब बातें क्या साबित करती हैं? क्या यह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति नहीं है? क्या यह मुस्लिम वोटों की खातिर देश को बांटने कि राजनीति नहीं है। देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील और गंभीर मुद्दे पर सोनिया गांधी को देश को जवाब देना होगा कि क्या वह बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद रोई थीं। अगर हां, तो क्यों? अगर नहीं, सलमान खुर्शीद पर शिकंजा क्यों नहीं कसा गया? हालांकि केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद अब अपनी बात से पीछे हटने लगे हैं, लेकिन उनका यह बयान और भाषण तो रिकॉर्ड हो चुका है। कई बार न्यूज चैनलों ने दिखाया और सुनाया है। तब वह पीछे कैसे हट सकते हैं? अपनी ही बात को गलत साबित कैसे कर सकते हैं? सलमान खुर्शीद जो बार-बार अपना बयान बदल रहे हैं, इसमें भी बड़ी साजिश और दबाव नजर आता है, जबकि इस मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री शरद पवार भी कह रहे हैं कि सरकार के दो मंत्रियों के बीच इस मुद्दे पर मतभेद और अलग-अलग बयानबाजी चिंताजनक है। सियासी रणनीति के तहत बाटला हाउस घटना को लेकर कांग्रेस और सरकार दोमुंही बातें कर रही है, जो देश को अस्वीकार्य है। ऐसा खेल बंद होना चाहिए। अगर सलमान खुर्शीद या दिग्विजय राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं तो प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को चाहिए कि वे उन्हें मंत्री और पार्टी के महत्वपूर्ण पद से तुरंत इस्तीफा देने कहें या बर्खास्त करें। कांग्रेस पार्टी बार-बार इस मुद्दे को उछालकर क्या साबित करना चाहती है। देश में पंथनिरपेक्षता का डंका पीटने वाली कांग्रेस पार्टी क्या वास्तव में पंथनिरपेक्ष है या यह सिर्फ महज दिखावा है। देश की सुरक्षा से जुड़े इतने संवेदनशील और गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को देश को जवाब देना होगा। शशांक द्विवेदी (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण )में १४ /०२/२०१२ को प्रकाशित
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