रचना त्रिपाठी
स्त्री हो या पुरुष- दोनों के जीवन
में प्रेम का होना बहुत जरुरी है! प्रेम- यह वो संजीवनी है जिसे पाने की चाह शायद
हर प्राणी में होती है। पर प्रेम में पागल होकर प्रेमी के साथ विवाह कर लेना बहुत
समझदारी नहीं होती। क्योंकि प्रेम और विवाह दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। इसलिए
प्रेम को विवाह के खाके में फिट करना थोड़ा कठिन हो जाता है। तो जरुरी नहीं है कि
जिससे प्रेम करें उससे विवाह भी करें। क्यों कि प्रेमविवाह में विवाह के बाद
पवित्र प्रेम की जैसी आशा होती है वह कहीं न कहीं विवाह के पश्चात क्षीण होने लगती
है।
देश की अदालत ने लिव-इन को क़ानूनी
मान्यता भले ही दे दी हो,
लेकिन
हमारी सामाजिक बनावट ऐसी नहीं है जहाँ प्रेम करने वालों को शादी किये बिना विशुद्ध
प्रेम की मंजूरी मिलती हो। इसलिए प्रेमीयुगल इस संजीवनी को पाने की चाह में प्रेम
की परिणति विवाह के रूप में करने को मजबूर हो जाते हैं; और विवाह हो जाने
के बाद वैसा प्रेम बना नहीं रह पाता। दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे युगलों की भी बहुत बड़ी
संख्या है जिनके जीवन में प्रेम का आविर्भाव ही शादी के बाद होता है। अरेंज्ड
मैरिज की इस व्यवस्था को समाज में व्यापक मान्यता प्राप्त है। इसमें साथ-साथ पूरा
जीवन बिताने के लिए ऐसे दो व्यक्तियों का गठबंधन करा दिया जाता है जो उससे पहले एक
दूसरे को जानते तक नहीं होते। फिर भी अधिकांशतः इनके भीतर ठीक-ठाक आकर्षण, प्रेम और समर्पण का
भाव पैदा हो जाता है। गृहस्थ जीवन की चुनौतियों का मुकाबला भी कंधे से कंधा मिलाकर
करते हैं। संबंध ऐसा हो जाता है कि इसके विच्छेद की बात प्रायः कल्पना में भी नहीं
आती। ऐसी आश्वस्ति डेटिंग करने वाले प्रेमी जोड़ों में शायद ही पायी जाती हो। वहाँ
तो कौन जाने किस मामूली बात पर रास्ते अलग हो जाँय कह नहीं सकते। प्रेम उस मृगनयनी
के समान है जिसे पाकर कोई भी फूला न समाये लेकिन शादीशुदा व्यक्ति के लिए है यह
अत्यंत दुर्लभ है। यह मत भूलिए कि विवाह उस लक्ष्मण रेखा से कम नहीं जिससे बाहर
जाने की तो छोड़िये ऐसा सोचना भी भीतर से हिलाहकर रख देता है।
विवाह के पश्चात् स्त्री पुरुष के
बीच प्रेम का अस्तित्व वैसा नहीं रह जाता जैसा कि विवाह से पहले रहता है। प्रेम का
स्वभाव उन्मुक्त होता है और विवाह एक गोल लकीर के भीतर गड़े खूंटे से बँधी वह
परम्परा है जिसके इर्द गिर्द ही उस जोड़े की सारी दुनिया सिमट कर रह जाती है। फिर
विवाह के साथ प्रेम का निर्वाह उसके मौलिक रूप में सम्भव नहीं रह जाता। प्रेम का
विवाह के बाद रूपांतरण सौ प्रतिशत अवश्यम्भावी है। विवाह और प्रेम को
एक में गड्डमड्ड कर प्रेमविवाह कर लेने वालों की स्थिति वेंटिलेटर पर पड़े उस मरीज
की भाँति हो जाती है जिसकी नाक में हर वक्त ऑक्सीजन सिलिंडर से लगी हुई एक लंबी
पाइप से बंधा हुआ मास्क लगा रहता है। यह प्रेम-विवाह में प्रेम-रस का वह पाइप होता
है जिसपर यह संबंध जिन्दा रहता है। जिसके बिना चाहकर भी दूर जाने की सोचना खतरे को
दावत देने जैसा है। सिलिंडर से लगी वह पाइप सांस लेने में सहायक तो जरूर बन जाती
है पर वह स्वाभाविक जिंदगी नहीं दे पाती। अगर जिंदगी बची भी रह जाय तो शायद उसे
उन्मुक्त होकर जीने की इजाजत न दे।