Tuesday, February 19, 2013

तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा ,दुनियाँ बदल सकता हूँ मै ........

शशांक -प्रियंका 
आज मेरी और प्रियंका की शादी की चौथी सालगिरह है .ये चार साल हँसते –खेलते ,लड़ते –झगड़ते ,तारीफों-शिकायतों के बीच ऐसे गुजरे की पता ही नहीं चला .आज से 9 साल पहले अमर उजाला, आगरा और आगरा हमारे प्रेम का साक्षी बना . उस समय मै बीटेक फाइनल ईयर का छात्र था और अमर उजाला के लिए एक कॉलम “साइबर बाइट्स” लिख रहा था और मेरे कुछ लेख जनसत्ता ,दैनिक जागरण , अमरउजाला ,आज आदि में प्रकाशित हो चुके थे .जबकि प्रियंका अमर उजाला में सब एडिटर के रूप में काम कर रही थी .हम दोनों की वर्किंग  फील्ड(इंजीनियर-पत्रकार ) अलग थी ,दोनों के घर वाले भी एकदम खिलाफ थे  .परिस्थितियाँ विपरीत थी .घर वालों को मनाने में 5 साल लग गये ,लेकिन इन 5 सालों मे भी  हमने  शानदार जिंदगी जिया ,खूब मस्ती की ,मजा आया .हमने सोचा था कि किसी ही हाल में घर वालों के आशीर्वाद से ही शादी करेंगे .वही किया ,आज हमारे घर वाले इस रिश्ते से बहुत ज्यादा खुश है ...वास्तव में पति-पत्नी का रिश्ता बहुत ही खूबसरत होता है .एक दूसरे के सहयोग से दुनियाँ बदली जा सकती है ,कुछ भी हासिल किया जा सकता है (....तुम जो पकड़ लो हाथ मेरा ,दुनियाँ बदल सकता हूँ मै ........)ईश्वर करे हमारा ये रिश्ता हमेशा यू ही मजबूत बना रहें ..आप सभी मित्रों की  /बड़ों के आशीर्वाद /शुभकामनायों की आकांक्षा हमेशा बनी रहेगी ...

Friday, February 15, 2013

कैसे टूटें जाति की बेडि़यां

बंधुराज लोण
आजादी मिलने के बाद से आज तक स्वतंत्र भारत में आरक्षण पर जितनी चर्चा हुई है उतनी दूसरे विषय पर शायद ही हुई होगी। गणतांत्रिक भारत के इतिहास में आज तक का यह सर्वाधिक विवादित मुद्दा रहा है। वैसे भारत में आरक्षण का इतिहास काफी पुराना रहा है। परंपरा के अनुसार ऊपरी जातियों को आरक्षण दिया ही गया था, पर नियमानुसार इस देश में छत्रपति शाहूजी महाराज ने पहली बार 26 जुलाई 1902 को अपने प्रांत में आरक्षण देने का कानून बनाया था। भीमराव अंबेडकर कहते थे कि इस देश में श्रम का ही नहीं, श्रमिकों का भी विभाजन किया जा चुका है। इसीलिए जाति आधारित आरक्षण दिया गया, पर अब उनके नाती व भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के नेता प्रकाश अंबेडकर ने इस राजनीतिक आरक्षण को रद करने की मांग की है। उन्होंने मांग की है कि स्कूल छोड़ने पर दिए जाने वाले प्रमाण पत्र से जाति का उल्लेख हटा दिया जाए। अंबेडकर ने गोलमेज परिषद् और साइमन कमीशन के सामने 1920 में अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने की मांग की थी। फिर 1932 में जैसे ही ब्रिटिश सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण बहाल किया, महात्मा गांधी ने पुणे में अनशन शुरू कर दिया। तब महात्मा गांधी व अंबेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ और उसके बाद अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र की कल्पना साकार हुई। आज धारा 334 के तहत राजकीय आरक्षण मिलता है। तब से यह 10-10 साल के लिए बढ़ाया जाता रहा है। जाति आधारित समाज में दलित राजनीतिक सत्ता से वंचित थे। आरक्षण के चलते उन्हें सीधे संसद पहुचने का अवसर मिला। प्रकाश अंबेडकर के मुताबिक आरक्षित सीट सही अर्थ में अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि का चुनाव नहीं करती, बल्कि उससे खड़ा हुआ उम्मीदवार राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करता है। आरक्षित सीट से चुने गए सबसे ज्यादा सांसद समाजवादी पार्टी के हैं और नौकरी में प्रोन्नति के लिए आरक्षण का इसी ने विरोध किया है। प्रकाश अंबेडकर के सपा के इस विरोधाभास पर सवाल उठाया है, जिस पर विवाद शुरू हो गया है। शरद पवार तथा शिवसेना ने उनका समर्थन किया है। यहां काशीराम का जिक्र करना भी जरूरी है। वह आरक्षण को लेकर कभी उत्साही नहीं रहे। उनका कहना था की मांगने से अच्छा खुद देने की स्थिति में पहुंचना चाहिए। इसलिए उन्होंने खुद आरक्षित सीट से कभी चुनाव नहीं लड़ा था। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और सत्ता हासिल की। सवाल उठता है कि यदि कांशीराम यह कर सकते हैं तो आरक्षण की क्या जरुरत है? कुछ समय पहले चुनाव के दौरान शरद पवार महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी के चार सांसदों को चुनकर लाए थे। विशेष बात यह थी की इनमें से किसी ने भी आरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ा था। उस समय राजनीतिक आरक्षण खत्म करने की मांग उठी थी। वर्तमान में संसद में आरक्षित सीटों से चुनकर आए 123 सांसद हैं। उन्हें अपनी जाति से कितना प्यार है? अनुसूचित जाति के लोगों पर होने वाले अत्यचार के संबंध में उन्होंने कब आवाज उठाई? आरक्षण से अनुसूचित जाति का संगठन मजबूत नहीं होता है। प्रकाश ने सियासी दलों से अपील की है कि वे बिना आरक्षण के ही अनुसूचित जाति के लोगों को उम्मीदवार बनाएं। उनकी इस मांग को महाराष्ट्र के सवण विचारकों ने समर्थन दिया है। यह होना भी चाहिए, लेकिन क्या राजनीतिक दल अनुसूचित जाति के लोगों को मौका देंगे? इसमें संदेह नहीं कि आरक्षित सीट से चुनकर आए विधयाकों और सांसदों का झुकाव जाति की तुलना में पार्टी के प्रति अधिक रहेगा। अपने यहां राजनीति में दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। ऐसा होने के बावजूद यह तय है कि जाति आधारित राजनीतिक आरक्षण रद करने की मांग को अनुसूचित जाति वर्ग के लोग और उनके नेतागण अपनी मंजूरी कभी नहीं देंगे। राजनीति में आरक्षण को रद किए जाने से जातिवाद कम होगा, इस समझ का भी कोई कारण नजर नहीं आता है। 1932 में बाबासाहेब अंबेडकर ने कास्ट इन इंडिया (भारत में जातिवाद) नामक शोध पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया था कि जाति किस तरह राष्ट्र विरोधी और विकास विरोधी है। उन्होंने जाति के भेदभाव को खत्म करने की मुहिम शुरू की थी और संविधान में कानूनी तौर पर जाति को खत्म करने भी कोशिश की, लेकिन भारतीय जनमानस पटल से न जाति गई और न जातिगत शोषण ही खत्म हुआ, बल्कि उसका स्वरूप बदल गया। आज उन्हीं अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर एक बार फिर जातिवादी आंदोलनों को हवा दी जा रही है। इससे अंतत: जातिगत व्यवस्था और जाति आधारित भेदभाव खत्म होने के बजाय बढ़ेंगे ही। अब सवाल है स्कूल छोड़ने पर दिए जाने वाले प्रमाण पत्र से जातिसूचक नाम हटाने का। सही मायनों में देखा जाए तो इस मांग का विरोध करने का कोई कारण नजर नहीं आता। आज भी महाराष्ट्र में लाखों बौद्ध धर्मावलंबी ऐसे हैं जिन्होंने स्कूल के प्रमाण पत्र में जाति का उल्लेख नहीं करने का आग्रह किया है, लेकिन सरकार उन्हें यह मौका नहीं देना चाहती है। स्कूल के प्रमाण पत्र में से यदि जातिसूचक नाम को हटा भी दिया जाता है तो उन्हें मिलने वाली सुविधाओं पर उसका कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि जाति प्रमाण पत्र तो अलग से मिलता ही है। जाति प्रमाण पत्र न होने की सूरत में आज भी उस जाति को मिलने वाले लाभ व्यक्ति विशेष को नहीं मिलते हैं। फिर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कागज में से जाति को निकाल देने से बहुत कुछ हासिल हो जाएगा। यह जाति की बेडि़यां तोड़ने के लिए अब तक किए गए प्रयासों की अगली कड़ी होगा। महाराष्ट्र में जाति के भेदभाव को खत्म करने के अनेक प्रयास हुए। बाबा साहेब अंबेडकर ने अंतरजातीय विवाह को जातिगत भेदभाव को खत्म करने का प्रभावी मार्ग बताया था, लेकिन आज भी अंतरजातीय विवाह पर ऑनर किलिंग हो रही है। वीर सावरकर ने भी जाति की बेडि़यां तोड़ने की मुहिम चलाई थी, लेकिन वह भी अपर्याप्त ही रही। अंतरजातीय विवाह, स्त्री-पुरुष समानता, सभी को समान शिक्षा की राह इतनी आसान नहीं है। राजनीतिक आरक्षण जातिगत भेदभाव को खत्म करने का उपाय नहीं, बल्कि जातीय प्रदूषण फैलाने का हथियार है। आरक्षण सामान अवसर प्राप्त करने का एक हिस्सा मात्र है। जब समान अवसर प्राप्त हो गए तो उसकी जरूरत खत्म हो जानी चाहिए। महाराष्ट्र में इस तरह के विवाद पहले भी होते रहे हैं और विवाद के परिणाम के तौर पर हर बार कोई न कोई सकारात्मक पहल जरूर हुई है। ऐसे विवादों का होना इस लिहाज से भी अच्छा है कि उनसे एक विमर्श होता है और वह विमर्श सामाजिक चेतना को जगाने का काम करता है। लिहाजा, ऐसे मसलों पर वाद-विवाद होना चाहिए, क्योंकि इससे सकारात्मक सामाजिक बदलाव की संभावना से इन्कार नहींकिया जा सकता। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

गालिब ने जब अल्लाह से शराब मांगी


फिरोज बख्त अहमद
जब कलम और पैसे का कभी मेल नहीं हुआ तो भला वो गालिब के ही साथ कैसे रहता। गालिब की जीवन के संबंध में गालिब अकेडमी द्वारा प्रकाशित और डॉ. अकील अहमद द्वारा संपादित गालिब संस्करण में उनके कुछ बड़े रोचक प्रसंग बयान किए गए हैं। गालिब 1840 से 15 फरवरी 1869 यानी अपनी मृत्यु तक हमेशा फाकाकशी का ही शिकार रहे। जो थोड़ी-बहुत पेंशन मिलती थी, वह कर्जदारों को चली जाती थी। पहली तारीख आते ही गालिब के घर दर्जी, धोबी, राशन-परचून वाले, दूध वाले, किताब वाले आदि दस्तक देना शुरू कर देते थे। बेचारी पत्नी उमराव बेगम को मुश्किल हो जाता था टालना।

एक बार ऐसा हुआ कि गालिब के पास एक भी पैसा न रहा। तब वे गली कासिमजान, बल्लीमारान वाले अपने मकान में रहते थे। घर में खाने को दाना नहीं था। वे उन दिनों अपना फारसी दीवान लिख रहे थे और नए शेरों की रचना के लिए शराब की सख्त जरूरत थी उन्हें। मजबूर हो कर जनानखाने में गए जहां उनकी धर्म पत्नी उमराव बेगम रहती थीं। उनसे इधर-उधर के बहाने बनाकर पैसे देने की विनती की। मगर उन्होंने साफ मना कर दिया।

फिर ताना देते हुए बोलीं, मिर्जा खुदा के दरबार में सच्ची दुआ करो और नमाज पढ़ो तो मुराद पूरी होगी! गालिब उन्हें खुश करने के लिए नमाज के पाक-साफ कपड़े पहने और जामा मस्जिद की ओर निकल पड़े। मशहूर शायर मरहूम वाजिद सहरी लिखते हैं कि रास्ते में अनेकों व्यक्ति उन्हें मिले और यह देख कर चकित हुए कि सूर्य पश्चिम से कैसे निकला अर्थात गालिब जामा मस्जिद की ओर कैसे? वे तो रोजा और नमाज से दूर ही रहा करते थे।
जामा मस्जिद पहुंच कर गालिब ने हौज से वजू किया और सुन्नतें पढ़ने बैठ गए। इस संदर्भ में यह याद रहे कि सुन्नतें नमाज का एक अंग है। नमाज तीन भागों में बंटी हैं-सुन्नतें, फर्ज और नफिल। इन में सबसे महत्वपूर्ण है फर्ज वाला भाग जो सुन्नतों के बाद और नफिलों के पूर्व पढ़ा जाता है और जिसे इमाम पढ़ाता है। फर्ज नमाज जमात (समूह) के साथ पढ़ी जाती है। उधर जब गालिब ने सुन्नतें पढ़ लीं तो मस्जिद में इधर-उधर ताकने लगे। सुन्नतें मनुष्य स्वयं अपने लिए नहीं बल्कि हजरत मुहम्मद (स) के लिए पढ़ता। फर्ज अल्लाह के लिए पढ़े जाते हैं और गालिब ने आखिर सुन्नतें भी कैसे पढ़ लीं। यह समय दोपहर की नमाज का था। उधर गालिब घुटनों पर सिर झुका कर बैठ गए कि कब खुदा का हुक्म हो और शराब की बोतल उनके चरणों में गिरे।

अभी गालिब साहब मस्जिद पहुंचे ही होंगे कि एक शागिर्द उन से मिलने को उनके घर गए। उन्हें अपने उस्ताद गालिब से अपनी शायरी ठीक करानी थी। उमराव बेगम ने बताया कि उस्ताद तो आज जामा मस्जिद गए हैं नमाज पढ़ने। शागिर्द को भी आश्चर्य हुआ कि गालिब और जामा मस्जिद! उसने जब पूरा हाल सुना तो तुरन्त बाजार गया और शराब की एक बोतल खरीदी। उसे कोट के भीतर छिपा कर वह मस्जिद गया और गालिब को आवाज दी। पहले तो उन्होंने अनसुनी कर दी, मगर दूसरी बार जब शागिर्द ने पुकारा तो देखा कि वह कोट की अंदर की जेब की ओर इशारा कर रहा था। उस्ताद यह देख कर जूतियां उठाकर चल पड़े।

गालिब को जमात में सम्मिलित न होते देख कर लोगों को बड़ी हैरानी हुई कि इमाम साहब तो नमाज पढ़ाने आ रहे हैं और गालिब साहब मस्जिद से बाहर जा रहे हैं। एक मित्र तो यहां तक बोले गालिब साहब, जिंदगी में पहली बार तो आप मस्जिद में आए हैं और बिना फर्ज पढ़े जा रहे हैं। आखिर मामला क्या है?'' तब गालिब बोले, 'भाई, बिना फर्ज पढ़े, मेरा काम तो सुन्नतों से ही हो गया है!

गालिब का घर हकीमों वाली मस्जिद के नीचे था और लोग प्रायः उन्हें टोका करते थे कि मस्जिद के ठीक जेरे साया (नीचे) बैठकर वे शराब न पिएं। उसी पर गालिब ने शेर पढ़ा था,
जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो!

गरीबी ही गालिब पर गालिब (हावी) रही। थोड़ी-बहुत आमदनी मुशायरों से या वजीफों से हो जाती थी। लगातार कमाई का कोई जरिया नहीं था। लेकिन गालिब ऊंची नाक वाले व्यक्ति थे और स्वाभिमान व शानो शौकत नवाबों से भी बड़ी थी। यह शान पैसे की न थी, बल्कि मिजाज की थी। मुशायरों में वे सदा स्टेज के ऊपर व बीच में या बादशाह के बराबर बैठना पसंद करते थे।

Wednesday, February 13, 2013

महाकुंभ हादसे पर मेरी यह कविता

“मौत “
किसी के लिए आंकड़ों का खेल है ,
किसी के लिए राजनीति का खेल है ,
किसी के लिए जाति और धर्म का खेल है ,
किसी के लिए दिखावे की संवेदना का खेल है ,
लेकिन आम आदमी की “मौत “ ,
उसके परिवार की उम्मीदों की मौत है 
उसके सपनों की मौत है 
सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी में मौत बन जाती है “कागजी “
जिससे मानवीय संवेदनाएं कोसों दूर है 
जहाँ कागज में 
मौत को मुआवजें के तराजू में तौला जाता है 
जहाँ मौत को जाति और धर्म के तराजू में तौला जाता है
लेकिन मौत को मौत के तराजू में कभी तौला नहीं जाता 
अक्सर मौत हार जाती है मुआवजें के सामने 
पैसे के सामने 
अक्सर सरकारें भूल जाती है 
आम आदमी के दर्द को ,मातम को 
उसके आसुंओं को 
क्या मुआवजा लौटा सकता है 
किसी की जिंदगी को 
किसी के सपनों को 
किसी की उम्मीदों को ....
स्वरचित –शशांक द्विवेदी

Monday, February 11, 2013

महाकुंभ में .....

पिछले महीने २७ जनवरी को पूर्णिमा के विशेष स्नान के दिन माँ के साथ संगम ,महाकुंभ स्नान के लिए इलाहाबाद गया था .उस दिन स्नान के बाद मन बहुत प्रफुल्लित था ,मेला क्षेत्र में मेला प्रशासन की व्यवस्था भी अच्छी थी ..लेकिन शहर के अंदर और स्टेशन पर भीड़ को देखते हुए कोई खास इंतजाम नहीं थे सिवाय इसके कि कई सारे टी टी रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े होकर अपनी ड्यूटी बजा रहें थे ...हताहत होने या भगदड़ के लिए चिकित्सा के कोई भी इंतजाम नहीं थे ..उस दिन स्टेशन पर मुझे लगा था कि भीड़ बहुत ज्यादा है (उस दिन १ करोड़ ) लेकिन रेलवे प्रशासन संजीदा नहीं है ,सिर्फ खाना पूर्ति है ..यही लापरवाही कल स्टेशन पर मातम में बदल गयी ..जब प्रशासन को पता था कि आज ३ करोड़ की भीड़ जुट सकती है तो उसके हिसाब से इंतजाम क्यों नहीं किये ...कल की घटना से मुझे बहुत ज्यादा दुःख हुआ .. उन सभी परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए उन्हें भावभीनी श्रधांजली ...