फिरोज
बख्त अहमद
जब कलम और पैसे का कभी मेल नहीं हुआ
तो भला वो गालिब के ही साथ कैसे रहता। गालिब की जीवन के संबंध में गालिब अकेडमी
द्वारा प्रकाशित और डॉ. अकील अहमद द्वारा संपादित गालिब संस्करण में उनके कुछ बड़े
रोचक प्रसंग बयान किए गए हैं। गालिब 1840 से 15 फरवरी 1869 यानी अपनी मृत्यु तक हमेशा फाकाकशी का ही
शिकार रहे। जो थोड़ी-बहुत पेंशन मिलती थी, वह कर्जदारों को
चली जाती थी। पहली तारीख आते ही गालिब के घर दर्जी, धोबी,
राशन-परचून वाले, दूध वाले, किताब वाले आदि दस्तक देना शुरू कर देते थे। बेचारी पत्नी उमराव बेगम को
मुश्किल हो जाता था टालना।
एक बार ऐसा हुआ कि
गालिब के पास एक भी पैसा न रहा। तब वे गली कासिमजान, बल्लीमारान
वाले अपने मकान में रहते थे। घर में खाने को दाना नहीं था। वे उन दिनों अपना फारसी
दीवान लिख रहे थे और नए शेरों की रचना के लिए शराब की सख्त जरूरत थी उन्हें। मजबूर
हो कर जनानखाने में गए जहां उनकी धर्म पत्नी उमराव बेगम रहती थीं। उनसे इधर-उधर के
बहाने बनाकर पैसे देने की विनती की। मगर उन्होंने साफ मना कर दिया।
फिर ताना देते हुए
बोलीं, मिर्जा खुदा के दरबार में सच्ची दुआ करो और नमाज पढ़ो
तो मुराद पूरी होगी! गालिब उन्हें खुश करने के लिए नमाज के पाक-साफ कपड़े पहने और
जामा मस्जिद की ओर निकल पड़े। मशहूर शायर मरहूम वाजिद सहरी लिखते हैं कि रास्ते
में अनेकों व्यक्ति उन्हें मिले और यह देख कर चकित हुए कि सूर्य पश्चिम से कैसे
निकला अर्थात गालिब जामा मस्जिद की ओर कैसे? वे तो रोजा और नमाज
से दूर ही रहा करते थे।
जामा मस्जिद पहुंच कर गालिब ने हौज
से वजू किया और सुन्नतें पढ़ने बैठ गए। इस संदर्भ में यह याद रहे कि सुन्नतें नमाज
का एक अंग है। नमाज तीन भागों में बंटी हैं-सुन्नतें, फर्ज और नफिल। इन में सबसे महत्वपूर्ण है फर्ज वाला भाग जो सुन्नतों के
बाद और नफिलों के पूर्व पढ़ा जाता है और जिसे इमाम पढ़ाता है। फर्ज नमाज जमात
(समूह) के साथ पढ़ी जाती है। उधर जब गालिब ने सुन्नतें पढ़ लीं तो मस्जिद में
इधर-उधर ताकने लगे। सुन्नतें मनुष्य स्वयं अपने लिए नहीं बल्कि हजरत मुहम्मद (स)
के लिए पढ़ता। फर्ज अल्लाह के लिए पढ़े जाते हैं और गालिब ने आखिर सुन्नतें भी
कैसे पढ़ लीं। यह समय दोपहर की नमाज का था। उधर गालिब घुटनों पर सिर झुका कर बैठ
गए कि कब खुदा का हुक्म हो और शराब की बोतल उनके चरणों में गिरे।
अभी गालिब साहब
मस्जिद पहुंचे ही होंगे कि एक शागिर्द उन से मिलने को उनके घर गए। उन्हें अपने
उस्ताद गालिब से अपनी शायरी ठीक करानी थी। उमराव बेगम ने बताया कि उस्ताद तो आज
जामा मस्जिद गए हैं नमाज पढ़ने। शागिर्द को भी आश्चर्य हुआ कि गालिब और जामा
मस्जिद! उसने जब पूरा हाल सुना तो तुरन्त बाजार गया और शराब की एक बोतल खरीदी। उसे
कोट के भीतर छिपा कर वह मस्जिद गया और गालिब को आवाज दी। पहले तो उन्होंने अनसुनी
कर दी, मगर दूसरी बार जब शागिर्द ने पुकारा तो देखा कि वह
कोट की अंदर की जेब की ओर इशारा कर रहा था। उस्ताद यह देख कर जूतियां उठाकर चल
पड़े।
गालिब को जमात में
सम्मिलित न होते देख कर लोगों को बड़ी हैरानी हुई कि इमाम साहब तो नमाज पढ़ाने आ
रहे हैं और गालिब साहब मस्जिद से बाहर जा रहे हैं। एक मित्र तो यहां तक बोले गालिब
साहब, जिंदगी में पहली बार तो आप मस्जिद में आए हैं और बिना
फर्ज पढ़े जा रहे हैं। आखिर मामला क्या है?'' तब गालिब बोले,
'भाई, बिना फर्ज पढ़े, मेरा
काम तो सुन्नतों से ही हो गया है!
गालिब का घर हकीमों
वाली मस्जिद के नीचे था और लोग प्रायः उन्हें टोका करते थे कि मस्जिद के ठीक जेरे
साया (नीचे) बैठकर वे शराब न पिएं। उसी पर गालिब ने शेर पढ़ा था,
जाहिद शराब पीने दे
मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां
खुदा न हो!
गरीबी ही गालिब पर
गालिब (हावी) रही। थोड़ी-बहुत आमदनी मुशायरों से या वजीफों से हो जाती थी। लगातार
कमाई का कोई जरिया नहीं था। लेकिन गालिब ऊंची नाक वाले व्यक्ति थे और स्वाभिमान व
शानो शौकत नवाबों से भी बड़ी थी। यह शान पैसे की न थी, बल्कि
मिजाज की थी। मुशायरों में वे सदा स्टेज के ऊपर व बीच में या बादशाह के बराबर
बैठना पसंद करते थे।