Wednesday, October 7, 2015

दादरी में कथित सेकुलरों ने दिया सांप्रदायिक रंग

शशांक द्विवेदी 
दादरी में जो हुआ वो गलत हुआ लेकिन उसके बाद जो हुआ वो तो और भी ज्यादा ग़लत है .जितनी मेरी समझ है उसके अनुसार दादरी का मामला सुनियोजित नही था ,ये एक अफवाह के बाद हुई दुर्घटना है जिसे बाद में सेकुलर लोगों ने सांप्रदायिक रंग दे दिया ,इस मामले पर टीवी चैनलों की बेवजह रिपोर्टिंग और तूल देने से यह और बिगड़ गया .अब मुख्य सवाल यह है कि जिन लोगों ने अख़लाक़ को मारा वो तो दोषी है ही लेकिन बाद में जिन बुद्धिजीवियों /सेकुलर लोगों ने इसे जबर्दस्त तूल दिया क्या वो दोषी नहीं है ?काटजू ने कहा ,शोभा डे ने कहा कि हमनें गौमांस खाया ,क्या कर लोगों ,केरल में वामपंथियों ने बाकायदा आयोजन करके गौमांस खाया ...क्या इस सबसे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होगी ? मै यहाँ हिन्दू –मुस्लिम की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि सीधे सीधे यह कह रहा हूँ कि ये कैसा वामपंथ है ,ये कैसा सेकुलरिज्म है जिसे हिन्दुओं की भावनाएं भड़काने या आहत करने में आनंद आ रहा है .ये बात भी यहाँ जानना जरुरी है कि ये सब लोग मुस्लिमों के साथ भी नहीं है बल्कि ये वो लोग है जो उनका सबसे बड़ा नुक्सान कर रहें है .आखिर ये वही बुद्धिजीवी है जिन्होंने दादरी के बाद इतना रायता फ़ैला दिया कि स्पष्ट तौर पर हिन्दू –मुस्लिम ध्रुवीकरण दिख रहा है .हर बार की तरह ,दादरी के बाद फिर मोदी को ये लोग गरियाने लगे ,दोषी बताने लगे लेकिन मुस्लिम समुदाय को ये सोचना होगा कि इन बुद्धिजीवियों के विधवा विलाप से किसे  फ़ायदा  होगा ?सीधी सी बात है इससे मोदी और भाजपा को ही फ़ायदा होगा क्योकि जब मुस्लिम एक तरफ होगा तो हिन्दुओ में भी यही भावना आयेगी ..कहने का मतलब सीधा है कि सेकुलर लोगों ही दादरी को सांप्रदायिक रंग दे दिया..जिसका सीधा फायदा ग़ाली खाने वाली भाजपा और मोदी को ही होगा और हर बार की तरह मुस्लिम समाज को फिर ये बुद्धिजीवी ठग लेंगे ...

Monday, October 5, 2015

हिमानी त्यागी का लेख और कवितायेँ

हिमानी त्यागी
दहेज का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में जो विचार कौंधते है वो हैं ससुराल पक्ष द्वारा लडकी को दहेज के लिये प्रताडित करना,लडकी को ससुराल से निकाल देना या फिर  बारात ले जाने के बाद वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष के सामने माँग रखना और वो माँग पूरी न होने पर बारात का वापस लौट जाना | इन घटनाओं को सुनकर या पढकर हम सभी के मुँह से 'गलत' शब्द निकलता है,हम ऐसा करने वालो को अपराधी करार देते हैं | 
लेकिन यदि इस मुद्दे के दूसरे पक्ष पर गौर किया जाए तो उसमें  शादी की बात आते ही लडके वालो की ओर से पहला सवाल शादी के बजट से सम्बन्धित ही होता है और यदि बजट उनकी इच्छा से कम हो तो उन्हे आगे बात करने में कोई दिलचस्पी नही रहती,इसमे वधू पक्ष भी पीछे नही रहता,लडकी के पिता क्योंकि अच्छा रिश्ता हाथ से नही जाने देना चाहते इसलिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है,भले ही उन्हे कर्ज ही क्यों न लेना पडे | आश्चर्य की बात ये है कि हमारा समाज इसे दहेज नही बल्कि परम्पराओं का नाम देता है |जबकि सच्चाई ये है कि यें परम्पराएँ उस दहेज की मांग से भी ज्यादा खतरनाक है | इन परम्पराओं को निभाने के लिये एक इंसान का पूरा जीवन कर्ज चुकाने में चला जाता है,ये परम्पराएँ एक इंसान की रातों की नींद व दिन का सुकून छीन लेती है |लेकिन अफसोस कि इस बुराई को खत्म करने की तरफ न तो सरकार का ध्यान जाता है और न ही समाज का | 
यदि कोई पिता अपनी बेटी को बेच दे तो वहाँ का समाज उसे अपने साथ बैठने तक नही देता,उस इंसान को समाज से बेदखल कर दिया जाता है लेकिन विडम्बना ही है कि जो लोग खुलेआम बैठकर अपने बेटो का सौदा कर रहे हैं वही समाज उन्हे दुगुनी इज्जत दे रहा है | ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि बेटी का पिता होना किसी भी इंसान को कमजोर होने का एहसास कराता है और यही कमजोरी उसे इस बुराई के सामने झुकने के लिये मजबूर कर देती है | और ये कमजोरी इसलिए है क्योंकि एक तय उम्र के अन्दर बेटी की शादी होनी जरूरी है,यदि ऐसा नही होता तो समाज के ताने जीना मुश्किल कर देते है |
लेकिन क्या इस स्थिति को इसी तरह चलते रहने के लिए छोड देना समझदारी होगी | यदि देश की गुलामी के समय हर कोई यही सोच लेता कि हमारा आजाद होना असम्भव है तो क्या ये कार्य सम्भव हो पाता,यदि उस समय कोई भी अपना जीवन दाँव पर लगाकर ये बीडा न उठाता तो क्या हम आज एक आजाद देश के नागरिक होते |बाल विवाह व लडकियों को शिक्षित न करने जैसी कुप्रथाओं को कुदरत का नियम मानकर यदि कोई भी इस दिशा में प्रयास के लिए आगे न आता तो क्या ये बदलाव सम्भव था |
किसी भी क्षेत्र में बदलाव के लिए किसी न किसी को तो आगे आना ही पडता है |और इस विषय में ये उम्मीद युवाओं से की जा सकती है |देश के युवा इस बुराई को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है | बस जरूरत है तो केवल थोडे साहस व जागरूकता की |
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कमजोर हूँ नही,कमजोर बनाया जाता है मुझे 

जिन्दगी तो मिली पर जीने का अधिकार न मिला,
प्यार तो मिला पर अपनो का एतबार ना मिला,
आज हूँ पिता की "चिन्ता" तो कल पति की "जिम्मेदारी",
क्या बस यही पहचान है मेरी,
बेटा करेगा नाम रोशन ,बेटी तो होती है पराया धन,
यही सुनते-सुनते बीत गया मेरा बचपन,
मैं भी तो थी तुम्हारा ही अंश,फिर क्यूँ बना ली मुझसे इतनी दूरी,
ये नियति थी या थी जमाने की मजबूरी,
कमजोर हूँ नही मैं,कमजोर मुझे बनाया जाता है,
ताउम्र औरों के भरोसे जीना सिखाया जाता है,
गलती पर किसी ओर की,सिर झुकाना सिखाया जाता है,
पाप करे कोई ओर,मुँह मुझे छिपाना सिखाया जाता है,
अस्मिता को अपनी बचाने का यही रास्ता है तेरे पास,
गलत को सहन कर बन्द कर लेना अपनी आवाज,
ये जीवन है पाया या पायी है कोई सजा,
तमाम उम्र बीत गयी पर हमें हमारा वजूद न मिला,
हमसे तो अच्छे हैं यें परिंदे जिनका न कोई समाज है न अधिकारी,
सुबह बेखौफ भरते हैं उँची उडान खुले आसमान मे,और इसी में जी लेते हैं उम्र सारी