Sunday, June 30, 2019

आयुर्वेद में भी होती है सर्जरी

आयुर्वेद में भी होती है सर्जरी
Know about Surgery in Ayurveda

भारत में आज भले ही आयुर्वेद लोगों की पहली पसंद न हो, लेकिन एक वक्त था जब यहां एलोपैथी का नाम तक नहीं था। लोग आयुर्वेद से ही सभी तरह का इलाज कराते थे। इसमें सर्जरी भी शामिल थी। ईसा पूर्व छठी सदी (आज से लगभग 2500 साल पहले) में धंवंतरि के शिष्य सुश्रुत ने सुश्रुत संहिता की रचना की जबकि एलोपैथी में मॉडर्न सर्जरी की शुरुआत 17-18वीं सदी में मान सकते हैं। आयुर्वेदिक सर्जरी से जुड़ी तमाम जानकारी दे रहे हैं डॉ. राजीव पुंडीर

बेशक आयुर्वेद भारत का बहुत ही पुराना इलाज का तरीका है। जड़ी-बूटियों, मिनरल्स, लोहा (आयरन), मर्करी (पारा), सोना, चांदी जैसी धातुओं के जरिए इसमें इलाज किया जाता है। हालांकि कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है:

1. काय चिकित्सा (मेडिसिन): ऐसी बीमारियां जिनमें अमूमन दवाई से इलाज मुमकिन है, जैसे विभिन्न तरह के बुखार, खांसी, पाचन संबंधी बीमारियां
2. शल्य तंत्र (सर्जरी): वे बीमारियां जिनमें सर्जरी की जरूरत होती है, जैसे फिस्टुला, पाइल्स आदि
3. शालाक्य तंत्र (ENT): आंख, कान, नाक, मुंह और गले के रोग
4. कौमार भृत्य (महिला और बच्चे): स्त्री रोग, प्रसव विज्ञान, बच्चों को होने वाली बीमारियां
5. अगद तंत्र (विष विज्ञान): ये सभी प्रकार के विषों, जैसे सांप का जहर, धतूरा आदि जैसे जहरीले पौधे का शरीर पर पड़ने वाले असर और उनकी चिकित्सा का विज्ञान है।
6. रसायन तंत्र (रीजूवनेशन और जेरियट्रिक्स): इंसानों को स्वस्थ कैसे रखा जाए और उम्र का असर कैसे कम हो।
7. वाजीकरण तंत्र (सेक्सॉलजी): लंबे समय तक काम शक्ति (सेक्स पावर) को कैसे संजोकर रखा जाए।
8. भूत विद्या (साइकायट्री): मनोरोग से संबंधित।

सर्जरी शुरुआत से ही आयुर्वेद का एक खास हिस्सा रहा है। महर्षि चरक ने जहां चरक संहिता को काय-चिकित्सा (मेडिसिन) के एक अहम ग्रंथ के रूप में बताया है, वहीं महर्षि सुश्रुत ने शल्य-चिकित्सा (सर्जरी) के लिए सुश्रुत संहिता लिखी। इसमें सर्जरी से संबंधित सभी तरह की जानकारी उपलब्ध है।
सर्जरी के 3 भाग बताए गए हैं:
1. पूर्व कर्म (प्री-ऑपरेटिव)
2. प्रधान कर्म (ऑपरेटिव)
3. पश्चात कर्म (पोस्ट-ऑपरेटिव)

इन तीनों प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए 'अष्टविध शस्त्र कर्म' (आठ विधियां) करने की बात कही गई है:
1. छेदन (एक्सिजन): शरीर के किसी भाग को काट कर निकालना
2. भेदन (इंसिजन): किसी भी तरह की सर्जरी के लिए शरीर में चीरा लगाना
3. लेखन (स्क्रैपिंग): शरीर के दूषित भाग को खुरच कर दूर करना
4. वेधन (पंक्चरिंग): शरीर के फोड़े से पूय (पस) या दूषितद्रव लिक्विड को सुई से छेद करके निकालना
5. ऐषण (प्रोबिंग): भगंदर जैसी बीमारियों को जांचना। इसमें टेस्ट के लिए धातु के उपकरण एषणी (प्रोब)की मदद ली जाती है।
6. आहरण (एक्स्ट्रक्सन): शरीर में पहुंचे किसी भी तरह के बाहरी पदार्थ को औजार से खींचकर बाहर निकालना, जैसे: गोली, पथरी या दांत
7. विस्रावण (ड्रेनेज): पेट, जोड़ों या फेफड़ों में भरे अतिरिक्त पानी को सुई की मदद से बाहर निकालना
8. सीवन (सुचरिंग): सर्जरी के बाद (शरीर में चोट लगने से कटे-फटे अंग और त्वचा) को वापस उसी जगह पर जोड़ देना

इनके अलावा, घाव कितने तरह के होते हैं, सीवन (घाव सीने या कटे अंगों को जोड़ने) में इस्तेमाल होने वाला धागा कैसा होना चाहिए, सीवन कितने तरह की होती हैं और सीवन का काम किस प्रकार से करें, ये सभी बातें बहुत ही विस्तार से सुश्रुत संहिता मे समझाई गई हैं।
जाहिर है, जब सर्जरी होती है तो इसमें सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट्स की भी जरूरत होगी। सुश्रुत ने 101 तरह के यंत्रों के बारे में बताया है। विभिन्न प्रकार की चिमटियां (फोरसेप्स) और दर्शन यंत्र (स्कोप्स) शामिल हैं। ताज्जुब की बात है कि सुश्रुत ने चिमटियों का जो वर्णन विभिन्न पशु-पक्षियों के मुंह की आकृति के आधार पर किया था, वे औजार आज भी उसी प्रकार से वर्गीकृत हैं। इन औजारों का उपयोग मॉडर्न मेडिसिन के सर्जन जरूरत के हिसाब से वैसे ही कर रहे हैं, जैसा पहले आयुर्वेद के सर्जन करते थे।
कौन-कौन-सी सर्जरी किन-किन बीमारियों में करनी चाहिए, यह वर्णन भी सुश्रुत संहिता में किया गया है। बड़ी सर्जरी जैसे उदर विपाटन (लेप्रोटमी) किन रोगों में करें और छोटी या बड़ी आंत (स्मॉल या लार्ज इंटस्टाइन) में छेदन (एक्सिजन), भेदन (इंसिजन) करने के बाद उनका मिलान और सीवन (घाव को सीने का काम) किस प्रकार से करें और चीटों का इस्तेमाल कैसे करें, इसके बारे में भी सुश्रुत संहिता में उल्लेख है।
आयुर्वेदिक सर्जरी की खासियत
खून में होने वाली गड़बड़ी को आयुर्वेद में बीमारियों का सबसे अहम कारण माना गया है। इन्हें दूर करने के दो उपाय बताए गए हैं: पहला है, सिर्फ दवाई लेना और दूसरा दवाई के साथ खून की सफाई (रक्त-मोक्षण)। दूषित रक्त को हटाना सर्जरी की एक प्रक्रिया है। इसके लिए आयुर्वेद में खास विधि अपनाई जाती है।

लीच थेरपी
आयुर्वेद में खून की सफाई के लिए जलौकावचरण (लीच थेरपी) का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैसे: किस तरह के घाव में जलौका यानी जोंक (लीच) का उपयोग करना चाहिए, यह कितने प्रकार की होती है, जलौका किस प्रकार से लगानी चाहिए और उन्हें किस तरह रखा जाता है, ऐसे सभी सवालों के जवाब हमें सुश्रुत संहिता में मिलते हैं। आर्टरीज और वेन्स में खून का जमना और पित्त की समस्या से होने वाले बीमारी, जैसे: फोड़े, फुंसियों और त्वचा से जुड़ी परेशानियों में लीच थेरपी से जल्दी फायदा होता है।
दरअसल, जलौका दो तरह के होते हैं: सविष (विषैली) और निर्विष (विष विहीन)। चिकित्सा के लिए निर्विष जलौका का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों को देखकर भी पहचाना जा सकता है। निर्विष जलौका जहां हरे रंग की चिकनी त्वचा वाली और बिना बालों वाली होती है। सविष जलौका गहरे काले रंग का और खुरदरी त्वचा वाला होता है। इस पर बाल भी होती हैं। अमूमन निर्विष जलौका साफ बहते हुए पानी में मिलती हैं, जबकि सविष जलौका गंदे ठहरे हुए पानी और तालाबों में पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि जलौका दूषित रक्त को ही चूसती है, शुद्ध रक्त को छोड़ देती है। जलौका (लीच) लगाने की क्रिया सप्ताह में एक बार की जाती है। इस प्रक्रिया में मामूली-सा घाव बनता है, जिस पर पट्टी करके उसी दिन रोगी को घर भेज दिया जाता है।

प्लास्टिक सर्जरी
प्राचीन काल में युद्ध तलवारों से होते थे और अक्सर योद्धाओं की नाक या कान कट जाते थे। कटे हुए कान और नाक को फिर से किस प्रकार से जोड़ा जाए, इस प्रक्रिया की पूरी जानकारी सुश्रुत संहिता में दी गई है। इसके लिए संधान कर्म (प्लास्टिक सर्जरी) की जाती थी। इन्हीं खासियतों की वजह से महर्षि सुश्रुत को 'फादर ऑफ सर्जरी' भी कहा जाता है। फिलहाल आयुर्वेद में प्लास्टिक सर्जरी चलन में बहुत कम है।

क्षार सूत्र चिकित्सा: खून बहाए बिना सर्जरी
शरीर के कई ऐसे हिस्से हैं जिन पर सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट्स से सर्जरी नहीं करने की बात कही गई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए गुदा (एनस) में होने वाली समस्याएं, जैसे: अर्श या बवासीर (पाइल्स) और भगंदर (फिस्टुला) में 'क्षार सूत्र चिकित्सा' का इस्तेमाल बहुत कामयाब रहा है। इस इलाज में मरीज को अपने काम से छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ती क्योंकि कोई बड़ा जख्म नहीं बनता और खून भी नहीं निकलता। यह ब्लडलेस सर्जरी का बेहतरीन उदाहरण है।
यह सच है कि जब से ऐनिस्थीसिया की खोज हुई है, शरीर के किसी भी हिस्से की सर्जरी करना आसान हो गया है, लेकिन एनस जैसी जगहों पर सर्जरी से मिलने वाली कामयाबी को लेकर अभी निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। यही वजह है कि आयुर्वेद में फिस्टुला या पाइल्स के मामले में सर्जरी इंस्ट्रूमेंट्स (औजारों) की मदद से नहीं बल्कि क्षार (ऐल्कली) की जाती है। क्षार की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह औजार न होते हुए भी किसी अंग को काटने, हटाने की उतनी ही क्षमता रखता है जितना कि कोई सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट।

क्या होते हैं क्षार (ऐल्कली)?
इस काम के लिए कुछ खास औषधीय पौधों का प्रयोग किया जाता है, जैसे: अपामार्ग (लटजीरा), यव, मूली, पुनर्नवा, अर्क
इनमें से जिस भी पौधे का क्षार बनाना हो, उसके पंचांग (पौधे के सभी 5 भाग: जड़, तना, पत्ती, फूल और फल) को सबसे पहले धोकर सुखा लिया जाता है। इसके बाद इनके छोटे-छोटे टुकड़े करके एक बड़े बर्तन में रखकर उसको जला लेते हैं।
जलाने में किसी प्रकार का ईंधन या दूसरी चीजों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। पौधे के टुकड़ों को जला दिया जाता है।
जलने के बाद बनी राख को 8 गुने जल में घोला जाता है। इसके बाद महीन कपड़े से कम से कम 21 बार छानकर उसे तब तक उबाला जाता है जब तक कि पूरा पानी भाप न बन जाए। इसके बाद बर्तन में नीचे जो लाल या भूरे रंग का पाउडर बचता है, उसे ही क्षार कहते हैं। बर्तन से उसे खुरचकर और थोड़ा पीसकर किसी कांच की शीशी में इस तरह से जमा किया जाता है कि उसका संपर्क हवा से पूरी तरह से खत्म हो जाए क्योंकि क्षार हवा की नमी सोखकर अपना असर खो देते हैं।

कितने तरह के क्षार?
क्षार दो तरह के होते हैं। जिनका प्रयोग औषधि के रूप में खाने के लिए किया जाता है उन्हें पानीय (खाने लायक) क्षार कहते हैं। जिनका इस्तेमाल घाव या किसी अंग विशेष पर किया जाता है, उन्हें प्रतिसारणीय (शरीर पर लगाने वाले) क्षार कहते हैं। क्षार सूत्र बनाने के लिए शरीर पर लगाने वाले क्षारों यानी प्रतिसारणीय क्षार का प्रयोग किया जाता है।

क्या होता है क्षार सूत्र और ये कैसे बनाए जाते हैं?
पक्के धागे पर क्षार की लगभग 21 परतें चढ़ाकर जो सूत्र या धागा बनाया जाता है उसे ही क्षार सूत्र कहते हैं। इसका इस्तेमाल सर्जरी में किया जाता है। क्षार सूत्र बनाने के लिए मुख्य रूप से 4 चीजों की जरूरत पड़ती है:
1. पक्का धागा
2. धागा बांधने के लिए एक फ्रेम
3. औषधियां

4. स्पेशलिस्ट
औषधियां: स्नुही दूध (कैक्टस के पौधे से निकला हुआ लिक्विड), उपरोक्त में से कोई भी क्षार (बेस) और हल्दी पाउडर।
सबसे पहले स्पेशलिस्ट सुबह में स्नुही यानी कैक्टस के कांटेदार पौधे के तने पर चाकू से सावधानीपूर्वक तेज चीरा लगाता है। चीरा लगाते ही तने से दूध निकलने लगता है जिसे कांच की शीशी में इकट्ठा कर लिया जाता है। एक फ्रेम पर धागा कस कर पहले ही रख लिया जाता है। करीब 50 ml दूध में रुई को डुबोकर फ्रेम पर लगे धागे पर 10 बार लगाया जाता है। हर बार दूध लगाने के बाद धागे को धूप में रख कर सुखा लेते हैं, फिर उसी पर दूसरा लेप लगाते हैं। इसके बाद 7 बार दूध लगाकर फिर क्षार के पाउडर को धागे के ऊपर लगा कर सुखा लिया जाता है। अंत में 4 बार दूध, फिर क्षार और हल्दी, तीनों को धागे के ऊपर लगाकर तेज धूप में सुखा लिया जाता है और फिर फ्रेम पर से उतार लिया जाता है। करीब 1 फुट लंबे धागे को काटकर कांच की परखनली में रख लिया जाता है। इस परखनली को अच्छी तरह से सील कर दिया जाता है ताकि उसमें हवा न घुस सके। यह काम विशेषज्ञ सर्जरी में इस्तेमाल होने वाले दस्ताने पहनकर करता है क्योंकि स्नुही दूध और क्षार काफी तेज होते हैं। इनमें त्वचा (स्किन) को काटने की क्षमता होती है। विकल्प के तौर पर बढ़िया क्वॉलिटी की पॉलिथीन की थैली में भी क्षार सूत्र को अच्छी तरह से सील करके रखा जा सकता है।
आजकल क्षार सूत्र बनाने में काफी प्रगति हुई है। केंद्रीय आयुर्वेदिक अनुसंधान केंद्र ने आईआईटी, दिल्ली के सहयोग से क्षार सूत्र बनाने की ऑटोमैटिक मशीन तैयार की है, जिसकी सहायता से काफी कम समय में क्षार सूत्र तैयार किए जा सकते हैं।

किन बीमारियों में क्षार सूत्र का इस्तेमाल
क्षार सूत्र का इस्तेमाल अर्श या बवासीर (पाइल्स) और भगंदर (फिस्टुला) जैसी बीमारियों में किया जाता है। यह सर्जरी कहलाती है और इस काम को आयुर्वेदिक सर्जन ही अंजाम देते हैं। अच्छी बात यह है कि इस इलाज में किसी प्रकार की काट-छांट नहीं होती, न ही खून निकलता है।
दूसरी बीमारियां, जिनमें क्षार सूत्र का प्रयोग किया जाता है, वे हैं: नाड़ीवण (साइनस), त्वचा पर उगने वाले मस्से और कील। नाक के अंदर होने वाले मस्से में भी क्षारों का प्रयोग किया जाता है जिससे वे धीरे-धीरे कटकर नष्ट हो जाते हैं। त्वचा पर होने वाले उभार या ग्रंथियों को भी क्षार सूत्र से बांध कर नष्ट किया जा सकता है।

बवासीर में क्षार सूत्र ट्रीटमेंट
बवासीर में गुदा (एनस) में जो मस्से बन जाते हैं, उनकी जड़ को क्षार सूत्र से कसकर बांध दिया जाता है जिससे वे खुद ही सूख कर गिर जाते हैं। ये काम दो प्रकार से होते हैं। मस्से अगर बड़े हैं तो सर्जन एनस के बाहर (बाह्य अर्श या एक्सटर्नल पाइल्स) और अंदर वाले अर्श (इंटरनल पाइल्स) की जड़ों में क्षार सूत्र को बांध देते हैं। लेकिन अगर मस्से की जड़ें छोटी हैं या फिर ज्यादा अंदर की तरफ हैं तो क्षार सूत्र को अर्धचंद्राकार सुई में पिरोकर उसे मस्से की जड़ों के आर-पार करके जड़ की चारों ओर कसकर बांध दिया जाता है। इस काम में लोकल ऐनिस्थीसिया की जरूरत होती है और कभी-कभी स्पाइनल या जनरल ऐनिस्थीसिया की भी। ऐसे में किसी ऐनिस्थीसिया स्पेशलिस्ट की मदद ली जाती है, जिससे क्षार सूत्र बांधने का काम सही तरीके से हो सके और मरीज को दर्द भी न हो।
फिस्टुला का इलाज
भगंदर यानी फिस्टुला में गुदा के आसपास पहले एक फोड़ा निकलता है। एलोपैथी में इसका इलाज यह है कि इस फोड़े में छेद करके पस को बाहर निकाल दिया जाता है, फिर छेदन करके उस हिस्से को काटकर अलग कर देते हैं। इसके बाद सामान्य तरीके से मरहम-पट्टी करके मरीज को छोड़ दिया जाता है। ऐसे घाव को भरने का समय घाव की लंबाई, चौड़ाई और गहराई के हिसाब से कुछ दिनों से लेकर हफ्तों या महीनों तक हो सकता है। कुछ मरीजों में एक बार ठीक होने के बाद समस्या फिर से उभर आती है और दोबारा सर्जरी की जरूरत पड़ती है। बार-बार सर्जरी की वजह से मरीज के एनल स्फिंक्टर के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बढ़ जाता है जिससे मरीज के मल को रोकने की शक्ति कम हो जाती है। ऐसे में फिस्टुला के इलाज के लिए बहुत ज्यादा सर्जरी भी नहीं की जा सकती। इस स्थिति में क्षार सूत्र-चिकित्सा काफी कामयाब है।
मस्सों को हटाना मुमकिन
मस्सों की जड़ों में क्षारसूत्र को खास तरह की गांठ द्वारा बांधा जाता है। इसमें मस्सों को अंदर कर दिया जाता है और धागा बाहर की ओर लटकता रहता है। इसे बेंडेज द्वारा स्थिर कर दिया जाता है।
-मस्सों को हटाने में एक से दो हफ्ते का समय लग सकता है।
-इस दौरान क्षारसूत्र के जरिए दवाएं धीरे-धीरे मस्से को काटती रहती हैं और आखिरकार सुखाकर गिरा देती हैं। मस्से गिरने के साथ ही धागा भी अपने आप गिर जाता है। इसमें दर्द नहीं होता।
-इस दौरान मरीज को कुछ दवाओं का सेवन करने के लिए कहा जाता है और ऐसी चीजें ज्यादा खाने की सलाह दी जाती हैं जो कब्ज दूर करने में सहायक हों। इनके अलावा गर्म पानी की सिकाई और कुछ व्यायाम भी बताए जाते हैं।
-क्षारसूत्र चिकित्सा के लिए अस्पताल में भर्ती होने की भी जरूरत नहीं होती।

आयुर्वेदिक सर्जरी के बाद 10 बातें जो जरूर ध्यान रखें:
1. सर्जरी से पहले मरीज और उसके रिश्तेदारों को होने वाले सर्जरी और उसके नतीजे के बारे में पूरी जानकारी रखनी चाहिए।
2. सर्जरी के पहले और बाद में क्या नहीं खाना, खाना कब और कैसे शुरू करना है जैसी बातें आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह से ही करनी चाहिए।
3. दवाई कब लेनी है, खाने के बाद लेनी है या पहले, अगर पहले लेनी है तो कितनी देर पेट खाली रहने के बाद, दवाई लेने के कितनी देर बाद खाना खाना है, जैसी बातों को अच्छी तरह से समझ लें।
4. सर्जरी के बाद जख्म की साफ-सफाई, पट्टी आदि डॉक्टर की देखरेख में ही करवाएं क्योंकि आपकी थोड़ी-सी जल्दबाजी और लापरवाही सर्जरी को असफल बना सकती है।
5. किसी भी प्रकार की एक्सरसाइज या शारीरिक मेहनत तब तक न करें जब तक कि आपका डॉक्टर इसकी इजाजत न दे।
6. फिजिकल रिलेशन बनाने में जल्दी न करें और डॉक्टर के निर्देशों का पालन करें।
7. शरीर की सफाई रखें और गर्मी में ठंडे पानी से और सर्दी में गर्म पानी से नहाएं।
8. कपड़े और बेड की चादर आदि को हर दिन बदलें ताकि इन्फेक्शन दूर रहे।
9. कार या बाइक चलाने की जल्दी न करें। पूरी तरह से ठीक होने तक इंतजार करें।
10. अपने सर्जन में, उनकी योग्यता में पूरा विश्वास रखें। सर्जरी के बाद होने वाली किसी भी समस्या जैसे, घाव से खून आने, भूख न लगने, बुखार हो जाने, दस्त होने, घाव में दर्द होने, पेशाब में परेशानी होने पर फौरन ही डॉक्टर से संपर्क करें।
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जरूरी सवालों के जवाब
Q. किस तरह की सर्जरी आयुर्वेद से करनी चाहिए और किस तरह की नहीं?
A. किसी भी इलाज की विशेषता उसकी अपनी टेक्नॉलजी और दवाइयां होती हैं। बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी सर्जरी में भी आयुर्वेद के सर्जन आयुर्वेदिक से जुड़ी तकनीक और दवाओं का ही इस्तेमाल करते हैं। माना जाता है कि ऐसा कोई भी इलाज जिसमें दूसरी फील्ड के तरीकों और इलाज का इस्तेमाल करना पड़े, अपनी विशेषता खो देता है। जैसे यदि किसी मरीज को सर्जरी के दौरान किसी भी अवस्था में वेन्स के द्वारा (इंट्रा-वीनस) ग्लूकोज, वॉटर, मिनरल्स, ब्लड और दवाइयां देने की जरूरत पड़े तो यह आयुर्वेद के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है। इस बात पर जोर दियाय जाता है कि जहां आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच कोई फर्क ही न रहे, ऐसी सर्जरी आयुर्वेदिक सर्जन को नहीं करनी चाहिए। हां, लोकल एनिस्थीसिया या पूरी तरह से बेहोश करने की जरूरत हो तो सिर्फ मदद के तौर पर एलोपैथी के इस तरीके का इस्तेमाल के लिए विशेषज्ञ की सहायता ली जा सकती है।

Q. अगर कोई सर्जरी होती है तो आयुर्वेद में क्या इसके लिए कोई अतिरिक्त चुनौती भी है?
A. सर्जरी किसी भी तरह की हो चुनौती तो होती है, लेकिन आयुर्वेद की सर्जरी कम जोखिम वाली है।

Q. मान लें, किसी ने आयुर्वेदिक डॉक्टर से सर्जरी कराई। अगर कोई समस्या आ गई तो क्या वह दोबारा आयुर्वेदिक सर्जन के पास जाए या एलोपैथिक सर्जन के पास?
A. अमूमन आयुर्वेदिक सर्जरी के बाद होने वाली किसी भी समस्या के लिए पहले उसी आयुर्वेदिक सर्जन के पास जाना चाहिए, जिसने सर्जरी की है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मरीज का सर्जन में विश्वास और सर्जन का खुद में विश्वास मरीज को जरूर फायदा पहुंचाता है। यही किसी भी इलाज की कामयाबी की चाबी है। कई बार ऐसा देखा जाता है कि मरीज को सब कुछ करने के बाद भी मॉडर्न सर्जन से फायदा नहीं मिल रहा है तो वह आयुर्वेदिक सर्जन के पास पहुंचता है। यहां भी फायदा न मिलने पर वह वापस एलोपैथिक सर्जन के पास चला जाता है। तो कहने का मतलब यह है कि मरीज को फायदा होना चाहिए और इसके लिए वह कहीं भी, किसी के भी पास जाने के लिए आजाद है। यह एक सामान्य चलन है।

Q. आयुर्वेद की सर्जरी एलोपैथी से अलग और बेहतर कैसे है?
A. आयुर्वेदिक सर्जरी और एलोपैथिक सर्जरी दोनों ही अपने आप में खास हैं। इनमें आपस में कोई कॉम्पिटिशन या विरोध नहीं है। आयुर्वेद की प्लास्टिक सर्जरी और क्षार सूत्र चिकित्सा को एलोपैथी ने खुशी से अपनाया है। आधुनिक एलोपैथिक सर्जन भी इन विधियों से मरीजों का इलाज कर रहे हैं। सर्जरी एक तकनीक है जो दोनों विधियों में लगभग सामान्य है। अगर कोई फर्क है तो वह दवाइयों का है जो सर्जरी के दौरान मरीज को दी जाती है और उन्हीं के आधार पर हम एक को आयुर्वेदिक सर्जरी और दूसरी को एलोपैथिक सर्जरी कहते हैं। इनमें कुछ अपवाद हैं, जैसे: क्षार सूत्र चिकित्सा, अग्नि कर्म, जलौका-लगाना और रक्त मोक्षण सिर्फ आयुर्वेद की खासियत हैं। वहीं, ऑर्गन ट्रांसप्लांट, बाईपास सर्जरी, लेजर और की-होल रोबॉटिक सर्जरी आदि एलोपैथी की खासियत हैं।

Q. क्या नहीं खाना और क्या खाना चाहिए?
A. इस विषय में डॉक्टर के निर्देशों का पालन करें। आयुर्वेद में अमूमन कम तेल और कम मिर्च-मसालों वाली चीजें ही खाने के लिए कहा जाता है। यदि मरीज को शुगर और हाई बीपी की समस्या है तो डॉक्टर ने जिस तरह का खाना बताया है, उसका पूरी तरह से पालन करना चाहिए। यह भी मुमकिन है कि डॉक्टर कुछ दिनों के लिए सिर्फ तरल पदार्थ लेने को कहे। ऐसे में डॉक्टर की कही गई बातों को जरूर मानें। वह जिस तरह का पेय लेने को कहे, वही लें। अपने मन से कुछ भी न लें।

Q. डॉक्टर की डिग्री कम से कम क्या होनी चाहिए?
A. सर्जरी एक स्पेशल साइंस है, जिसके लिए स्पेशल एजुकेशन और प्रैक्टिस की जरूरत होती है। आयुर्वेद में भी सर्जन बनने के लिए तीन साल की मास्टर ऑफ सर्जरी (एमएस आयुर्वेद) की जरूरत होती है जो ग्रैजुएशन (बीएएमएस) के बाद ही की जा सकती है। वैसे, महारत हासिल करने के लिए एमएस आयुर्वेद करने के बाद पीएचडी भी की जा सकती है, लेकिन एक आयुर्वेद सर्जन बनने के लिए कम से कम एमएस आयुर्वेद बहुत जरूरी है।

आयुर्वेदिक सर्जरी के लिए 4 बेहतरीन सरकारी संस्थान
1. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी
          www.bhu.ac.in

2. गुजरात आयुर्वेद यूनिवर्सिटी, जामनगर
         www.ayurveduniversity.com

3. ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ आयुर्वेद, नई दिल्ली
          https://aiia.gov.in

4. नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ आयुर्वेद, जयपुर
        www.nia.nic.in

साभार नवभारत टाइम्स 

Friday, June 28, 2019

बार बार डकार को न लें हल्के में

*अगर बार-बार आती है डकार तो न लें इसे हल्के में, जानिए 5 कारण*
 शशांक द्विवेदी
1 कई बार आपके खान-पान का गलत तरीका भी डकार आने का कारण बनता है। तली-भुनी चीजें, कोल्ड्रिंक, फूलगोभी, बीन्स, ब्रोकोली आदि को खाने से पेट में गैस बनती है, जो डकार आने का कारण हो सकता है। इन चीजों को रात में न खाएं।
2 लंबे समय तक कब्ज की समस्या का बना रहना भी अत्यधिक डकार आने का एक प्रमुख कारण है। इस मामले में पहले आपको कब्ज से निपटने की जरूरत होगी।
3 बार-बार डकार आने का एक प्रमुख कारण है अपचन। जी हां, अगर आपके द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजन पच नहीं पा रहा है तो यह समस्या होना आम बात है।
4 कई बार छोटे-छोटे कारण पेट में गैस पैदा करके इस तरह की समस्याओं को जन्म देते हैं, जैसे ग्लास से पानी पीने के बजाए ऊपर से पीना, खाना खाते समय बात करना, च्यूइंग गम आदि कारणों से पेट में हवा जाकर गैस पैदा करती है और यह समस्या होती है। इसे ऐरोफेस कहते हैं।
5 जब गैस की वजह से आपका पाचन तंत्र गड़बड़ा जाए तो एच पायलोरी नामक बैक्टीरिया के कारण पेप्टिक असर की समस्या पैदा होती है जो डकार आने के साथ-साथ पेट दर्द का भी कारण हो सकता है।

भाप लेने के बेहतरीन फायदे

*बारिश के मौसम में भाप लेने के 5 बेहतरीन फायदे, आप भी जरूर जानिए*
 शशांक द्विवेदी
1. सर्दी-जुकाम और कफ होने की स्थ‍िति में भाप लेना रामबाण उपाय है। भाप लेने से न केवल आपकी सर्दी ठीक होगी बल्कि गले में जमा हुआ कफ भी आसानी से निकल सकेगा और आपको किसी तरह की परेशानी नहीं होगी।
2. त्वचा की गंदगी को हटाकर अंदर तक त्वचा की सफाई करने और त्वचा को प्राकृतिक चमक प्रदान करने के लिए भाप लेना एक बेहतरीन तरीका है। बगैर किसी मेकअप प्रोडक्ट का इस्तेमाल किए यह तरीका आपकी स्किन को ग्लोइंग बना सकता है।
3. चेहरे की मृत त्वचा को हटाने एवं झुर्रियों को कम करने के लिए भी भाप लेना एक बढ़िया उपाय है। यह आपकी त्वचा को ताजगी देता है, जिससे आप तरोताजा नजर आते हैं। त्वचा की नमी भी बरकरार रहती है।
4. अगर चेहरे पर मुंहासे हैं, तो बिना देर किए चेहरे को भाप दीजिए। इससे रोमछिद्रों में जमी गंदगी और सीबम आसानी से निकल पाएगा और आपकी त्वचा साफ हो पाएगी।
5. अस्थमा जैसी स्वास्थ्य समस्याओं में भी भाप लेना काफी फायदेमंद साबित होता है। डॉक्टर्स ऐसी परिस्थति में भाप लेने की सलाह देते हैं, ताकि मरीज को राहत की सांस मिल सके।

Thursday, June 27, 2019

बेहतर पढ़ाई के लिए जरूरी बातें

पढाई करते समय ध्यान देने योग्य बातें :
शशांक द्विवेदी
१ - पढाई हमेशा कुर्सी-टेबल पर बैठ कर ही करें , बिस्तर पर लेट कर बिलकुल भी न पढ़े । लेटकर पढने से पढ़ा हुआ दिमाग में बिलकुल नही जाता , बल्कि नींद आने लगती है ।
२ - पढ़ते समय टेलीविजन न चलाये और रेडियो या गाने भी बंद रखे ।
३ - पढाई के समय मोबाइल स्विच ऑफ़ करदे या साईलेंट मोड में रखे ,""
४ - पढ़े हुए पाठ्य को लिखते भी जाये इससे आपकी एकाग्रता भी बनी रहेगी और भविष्य के लिए नोट्स भी बन जायेंगे ।
५- कोई भी पाठ्य कम से तीन बार जरुर पढ़े ।
६ - रटने की प्रवृत्ति से बचे , जो भी पढ़े उस पर विचार मंथन जरुर करें ।
७ - शार्ट नोट्स जरुर बनाये ताकि वे परीक्षा के समय काम आये ।
८- पढ़े हुए पाठ्य पर विचार -विमर्श अपने मित्रो से जरुर करें , ग्रुप डिस्कशन पढाई में लाभदायक होता है।
९ - पुराने प्रश्न पत्रों के आधार पर महत्वपूर्ण टोपिक को छांट ले और उन्हें अच्छे से तैयार करें ।
१० - संतुलित भोजन करें क्योंकि ज्यादा भोजन से नींद और आलस्य आता है , जबकि कम भोजन से पढने में मन नही लगता है ,और थकावट, सिरदर्द आदि समस्याएं होती है ।
११- चित्रों , मानचित्रो , ग्राफ , रेखाचित्रो आदि की मदद से पढ़े । ये अधिक समय तक याद रहते है ।
१२- पढाई में कंप्यूटर या इन्टरनेट की मदद ले सकते है
# Note: आप लोगो से निवेदन है की कृपया करके में बताये की आपको पोस्ट कैसा लगा?? Good or Bad ताकि हमे भी पता लगे की हम ज्ञान बांटने में कितना सफल हो रहे हैं

डायट्री फाइबर से भरपूर है आलूबुखारा

*डायट्री फाइबर से भरपूर है आलूबुखारा, जानिए इसे खाने के फायदे*
 शशांक द्विवेदी
1 आलूबुखारे के 100 ग्राम में लगभग 46 कैलोरी होती है। अत: इसमें अन्य फलों की तुलना में कैलोरी काफी कम पाई जाती है। इस कारण से यह आपका वजन नियंत्रित करने में भी बेहद सहायक होता है।
2 आलूबुखारे में सैच्युरेटेड फैट या संतृप्त वसा बिल्कुल भी नहीं होता,जिससे इसे खाने के बाद आपको पोषक तत्व भी मिलते हैं, और वजन भी नहीं बढ़ता।
3 आलूबुखारा डायट्री फाइबर से भरपूर होता है, जिसमें सार्बिटॉल और आईसेटिन प्रमुख हैं। खासतौर पर यह फाइबर्स, शरीर के अंगों के क्रियान्वयन को सरल बनाते हैं, और पाचन क्रिया को भी दुरूस्त करते हैं।
4 आलूबुखारे का प्रतिदिन सेवन आपको कब्ज‍ियत से राहत दिलाने में मदद करता है साथ ही पेट साफ करने में भी मदद करता है।
5 इसमें उपस्थित विटामिन-सी आपकी आंखों और त्वचा को स्वस्थ रखने में सहायक है, और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाता है। इसके इलावा इसमें विटामिन-के एवं बी 6 भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
6 यह रक्त का थक्का बनने से रोकता है,जिससे ब्लडप्रेशर और हृदय रोगों की संभावना कम होती है। इसके साथ ही अल्जाइमर के खतरे को कम करता है।
7 आलूबुखारा आपके फेफड़ों को सुरक्षि‍त रखने के साथ ही आपको मुंह के कैंसर से बचाने में अहम भूमिका निभाता है। इसके अलावा यह अस्थमा जैसे रोगों को रोकने में मददगार साबित होता है।
8 आलूबुखारा सूरज की यूवी किरणों से आपकी रक्षा करता है, इसके अलावा इसमें विटामिन- ए और बीटा कैरोटीन भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो आंखों के लिए व अन्य अंगों के लिए फायदेमंद है। यह आंखों की रौशनी भी तेज करता है।
9 छिलके के साथ आलूबुखारे का सेवन, ब्रेस्ट कैंसर को रोकने में सहायक होता है। यह कैंसर और ट्यूमर की कोशिकाओं को बढ़ने से रोकता है। 

Saturday, June 22, 2019

फल कब खाना है, कैसे खाना है !!

फल खा, फल की चिंता मत कर...
Useful info about Mangoes, Watermelon, Muskmelon & Leechi

जब भी हम फल खाते हैं तो उसके फल की चिंता भी साथ में हो जाती है। फल यानी उसे खाने का शरीर पर कोई उलटा असर तो नहीं होगा? ऐसे ही सवालों और चिंताओं के बारे में हमने कई एक्सपर्ट से बात की। नतीजा आया कि अगर हम कुछ एहतियात बरतें तो फल खाने पर फल की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी। इन्हीं एहतियातों के बारे में जानकारी दे रहे हैं राजेश भारती

आम ही खास है
आम का सीजन शुरू हो चुका है। मार्केट में कई वैरायटी के आम आ भी चुके हैं। लेकिन अभी डाल के पके आम मार्केट में काफी कम मात्रा में आ रहे हैं। दरअसल इन आमों को कच्चा ही पेड़ से तोड़ लिया जाता है और आर्टिफिशल तरीके से पकाया जाता है। अगर ये आम सही तरीके से पकाए नहीं गए हैं तो इन्हें खाने से सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है। आम को खाने से पहले उसे अच्छे से साफ करना जरूरी होता है।

आम का असली सीजन हुआ है शुरू अब
हो सकता है कि आपको मार्केट में आम कुछ समय पहले से ही दिखाई देने लगे हों, लेकिन इसका असली सीजन अब शुरू हुआ है। चाहे सफेदा आम हो या दशहरी या लंगड़ा या चौसा, ये सभी आम जून के आखिरी महीने से मार्केट में आने शुरू होंगे जो जुलाई-अगस्त तक रहेंगे। इनमें दशहरी और चौसा आम मुख्यत: यूपी से आना शुरू होगा।

डाल का पका आम होता है बेस्ट
पका हुआ बेस्ट आम डाल का ही माना जाता है। यह आम न केवल सेहत के लिए अच्छा होता है, बल्कि काफी मीठा भी होता है। ये आम पकने पर अपने-अाप डाल से टूटकर गिर जाते हैं। हालांकि इस तरह के पके हुए आम मार्केट में काफी कम मिलते हैं, क्योंकि पेड़ पर इन्हें पकने में कुछ समय लगता है।

ऐसे पकाते हैं कच्चे आमों को
कच्चे आमों को कई तरह से पकाया जा सकता है। इन्हें पकाने के लिए सबसे पहले कच्चे आम पूरी तरह परिपक्व होने चाहिए यानी वे आकार में बड़े हों और दबाने पर कड़े हों। घर पर कच्चे आमों को इस तरह पका सकते हैं:

देसी तरीका: कच्चे आमों को टिश्यू पेपर या अखबार में लपेटकर 3-4 दिन के लिए किसी ऐसी जगह रख दें जो घर के बाकी हिस्सों की अपेक्षा कुछ गर्म हो। यहां ध्यान रहे कि आम रखने की जगह पर अंधेरा भी होना चाहिए। 3-4 दिन पर आम को थोड़ा दबाकर देंगे। अगर वह दब जाए तो समझ लें कि आम पक गया है।

इथरेल दवा से: इस दवा को पानी में मिलाकर उनमें कच्चे आमों को डुबोया जाता है। करीब पांच मिनट बाद आमों को निकालकर अलग किसी बड़े बर्तन में रख देते हैं। इसके बाद उन आमों को ऐसे ही करीब रातभर छोड़ दिया जाता है। सुबह आम पके हुए मिलते हैं। इस तरह से पके आमों को खाने से सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। इथरेल की 100 ml की शीशी करीब 250 रुपये में आती है।

चीनी पुड़िया (Ethylene Ripener): अब मार्केट में एक पुड़िया आती है, जिसमें एक केमिकल पाउडर के रूप में होता है। यह चीन से आती है। इसे पानी से भिगोकर कच्चे आमों के बीच में रखा जाता है और फिर करीब 20 घंटे के लिए आमों को छोड़ दिया जाता है। इस दौरान ध्यान रहे कि आम किसी पुराने अखबार से ढके हों। इससे निकलने वाली एथिलीन गैस से आम पक जाते हैं। ये आम सेहत के लिए हानिकारक नहीं होते।
कैल्शियम कार्बाइड है खतरनाक: आमों को पेड़ से कच्चा तोड़ने के बाद उन्हें कैल्शियम कार्बाइड से भी पकाया जाता है। आम पकाने का यह तरीका सेहत के लिए काफी खतरनाक होता है। कैल्शियम कार्बाइड से आर्सेनिक जैसी घातक गैसें निकलती हैं। इस तरीके में कैल्शियम कार्बाइड को एक छोटी पुड़िया में रखकर उसे आमों के बीच में रख देते हैं। 24 घंटे बाद आम पक जाते हैं।
ऐसे करें पके आम की पहचान
- आम के ऊपर सफेद धब्बे या पाउडर न हो।
- पका हुआ आम पूरी तरह से मैच्योर नजर आएगा।
- आम के डाल वाले हिस्सा सॉफ्ट और निचला हिस्सा टाइट है तो इसका मतलब कि उसे सही तरह से पकाया नहीं गया है।
- सही तरह से पके आम का रंग एक जैसा और थोड़ा सुनहरा होता है।
- अच्छी तरह से पका आम थोड़ा सॉफ्ट होता है। अधपका आम कहीं से सॉफ्ट और कहीं से ठोस होगा जबकि कच्चा आम पूरा ही ठोस होगा।

खाने का सही तरीका
- आमों को नमक मिले गुनगुने पानी में एक-दो घंटे के लिए छोड़ दें।
- अब आम को हाथ से रगड़ें और फिर से साफ पानी से धो लें। इसके बाद साफ आम को कपड़े से पौछ लें।
- इसके बाद आम का डंठल वाला हिस्सा हल्का-सा काट कर कुछ बूदें रस निकाल दें। अब आप आम खा सकते हैं।
- कई बार हम लोग आम को छिलके समेत काट लेते हैं और फिर उसे खाते हैं। कई बार खाने के इस तरीके से आम का छिलका भी मुंह में आ जाता है। इससे बचें क्योंकि अक्सर आमों पर खतरनाक पेस्टिसाइड का छिड़काव होता है।

डायबीटीज के मरीज भी खाएं
डायबीटीज का मरीज एक दिन में 50 से 60 ग्राम आम खा सकता है। हालांकि मरीज को इस दौरान ऐसी दूसरी चीजें खाने की मात्रा कम करनी पड़ेगी। आम में पोटैशियम भी होता है। ऐसे में किडनी के मरीज डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
आम आदमी के लिए: अगर मान लें कि एक आम का वजन 300 से 400 ग्राम है और अगर आप बहुत ऐक्टिव नहीं हैं और एक्सरसाइज नहीं करते हैं तो दिन भर में 2 से ज्यादा आम न खाएं।

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तरबूज भी क्या खूब
तरबूज के लिए हर साल मई-जून का मौसम आदर्श माना जाता है। जिला बुलंदशहर में तरबूज और खरबूजा के उत्पादक किसान सुरेंद्र पाल सिंह के मुताबिक ज्यादा गर्मी वाला मौसम तरबूज और खरबूजा के लिए अच्छा माना जाता है, क्योंकि अधिक गर्मी से इनमें मीठापन ज्यादा आता है। यह जुलाई तक मार्केट में रहते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी मिठास कम हो जाती है और फिर इनका पीक सीजन भी खत्म हो जाता है।

तरबूज के भी हैं कई रूप
मार्केट में आपको कई प्रकार के तरबूज हैं। अब ऐसे भी तरबूज आ रहे हैं जो अंदर से पीले भी निकलते हैं। तरबूज की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं:
शुगर बेबी: यह गोलाकार और बाहर से गहरे हरे रंग का होता है। इसका आकार दूसरे तरबूजों की अपेक्षा छोटा और खाने में काफी मीठा होता है। इसी कारण इसे शुगर बेबी कहते हैं। आजकल मार्केट में ये तरबूज ही अधिक हैं। एक तरबूज का वजन 1.5 किलो से 4 किलो तक का होता है। यह थोक मार्केट में 4 से 7 रुपये प्रति किलो और रिटेल में 10 से 50 रुपये किलो तक मिल जाता है।

माधुरी: यह तरबूज आकार में लंबा होता है। इसमें बाहर की ओर हरे रंग की धारियां होती हैं। यह तरबूज खाने में काफी मीठा होता है। इस वैरायटी का एक तरबूज 6 से 15 किलो का होता है। आम परिवार छोटे हैं। इस कारण अब इसकी डिमांड काफी कम है और मार्केट में कम ही दिखाई देते हैं। इसकी कीमत करीब 20 रुपये प्रति किलो है।
अनमोल: यह तरबूज बाहर से हरा, लेकिन अंदर से हल्के पीले रंग का होता है। इसका स्वाद शहद जैसा मीठा होता है। यह मार्केट में 15 से 20 रुपये प्रति किलो की दर से मिल जाता है। हालांकि दिल्ली-एनसीआर में यह कम बेचा जाता है।
ऐसे करें सही तरबूज की पहचान
- तरबूज को उठाकर चारों ओर से देखें। अगर उसमें कोई निशान या कहीं से गला नजर आए तो न खरीदें।
- अगर तरबूज के एक हिस्से पर गहरे पीले रंग का बड़ा धब्बा है तो वह पका हुआ होता है।
- तरबूज को हाथ से बजाकर देखें। अगर भारी और किसी धातु के बजने जैसी आवाज (टन-टन) आए तो वह पका हुआ है। वहीं अगर थप-थप या डब-डब की आवाज आए तो वह ज्यादा पका हुआ होता है।
- तरबूज को उठाकर देखें। अगर वह वजन में हलका है तो उसे खरीदने से बचें।

कैसे और कहां रखें
तरबूज को कटा हुआ या टुकड़ों में काटकर न छोड़ें। अगर मजबूरी में कटा हुआ छोड़ना पड़े तो उन्हें एयरटाइट ढक्कन वाले कंटेनर या पॉलीथीन से ढककर फ्रिज में रख दें। यहां ध्यान रहे कि कटे हुए तरबूज को दो घंटे से ज्यादा समय तक फ्रिज में न रखें। काटकर ठंडा करने के लिए फ्रिज में रखने से बेहतर है कि जब खाना हो, साबुत ही दो घंटे पहले फ्रिज में रख दें। अगर तरबूज कटा हुआ भी है तो उसे फ्रिज में रखने के बजाय सामान्य तापमान पर ही घर में छांव में रखें।

कब और कितना खाएं
- 300 से 400 ग्राम रोजाना
- इन्हें खाने का कोई निश्चित समय नहीं है।
- तरबूज में नमक (काला या सफेद) मिलाकर खाने से शरीर को कुछ एक्स्ट्रा मिनरल्स मिल जाते हैं।

तरबूज की तासीर-
92% पानी
8% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं-
विटामिन: A, B, B1, B6, C, D आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, कॉपर, बायोटिन, पोटेशियम और मैग्नेशियम।
एसिड: पैंटोथेनिक और अमीनो एसिड।
फैक्ट (100 ग्राम तरबूज में)-
कैलरी: 30
पानी: 92%
प्रोटीन: 0.6 ग्राम
कार्ब्स: 7.6 ग्राम
शुगर: 6.2 ग्राम
फाइबर: 0.4 ग्राम
फैट: 0.2 ग्राम
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खरबूजा-सा ना कोई दूजा
खरबूजे के लिए भी अधिक गर्मी का मौसम आदर्श माना जाता है। जितनी ज्यादा गर्मी पड़ती है, बेल पर लगे खरबूजे उतने ही मीठे होते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी भी मिठास कम हो जाती है और धीरे-धीरे पीक सीजन खत्म हो जाता है। खरबूजा अभी मार्केट में कुछ दिन और मिलेगा। खरबूजे को खाने के कई तरीके हैं। इसे सीमित मात्रा में खाया जाए तो यह सेहत के लिए काफी लाभदायक होता है।

खरबूजा एक, रंग अनेक
वैसे तो मार्केट में कई किस्म के खरबूजे मौजूद हैं, लेकिन कुछ प्रमुख वैराइटी इस प्रकार हैं:
नामधारी: यह खरबूजा मुख्यत: पंजाब से आता है। यह मई-जून तक मार्केट में मिलता है। इसका छिलका सफेद सा और खुरदरा होता है। वहीं यह अंदर से संतरी रंग का और काफी मीठा होता है।
कीमत-
थोक मार्केट: 5-7 रु. प्रति किलो
रिटेलर: 20-30 रु. प्रति किलो

लाल परी: यह खरबूजा मुख्यत: राजस्थान और यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई-जून तक रहता है। यह बाहर से दिखने में ईंट जैसा गहरा लाल होता है। वहीं इसमें बीच-बीच में पीली और हरी धारियां होती हैं।
कीमत-
थोक मार्केट: 15-17 रु. प्रति किलो
रिटेलर: 40-20 रु. प्रति किलो

मधुरस: यह खरबूजा मुख्यत: यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई से जून तक रहता है। इसका ऊपरी हिस्सा चिकना और हरे-सफेद रंग का होता है। साथ ही इसमें इसमें बीच-बीच में हरे रंग की धारियां होती हैं।
कीमत-
थोक मार्केट: 15-20 रु. प्रति किलो
रिटेलर: 40-50 रु. प्रति किलो
नोट: तरबूज और खरबूजे की कीमतों में कमी-बेशी मुमकिन
ऐसे करें सही खरबूजे की पहचान
- खरबूजे को उठाकर हर तरफ से चेक करें। अगर कहीं से गला दिखाई दे तो उसे न खरीदें।
- अगर खरबूजा दबाने पर मुलायम लग रहा है तो उसे खरीदने से बचें। हो सकता है कि दुकानदार आपको ऐसे खरबूजा को अधिक पका या कुछ और बहाना लगाकर बेचने की कोशिश करे, लेकिन दुकानदार को ना कह दें।
- खरबूजा सूंघें। उसमें से मीठी-मीठी खुशबू आए तो वह पका हुआ और मीठा होता है।

कैसे और कहां रखें
खरबूजा उतना ही काटें, जितने आप एक बार में खा सकें। अगर खरबूजा बच जाए तो उसे एयरटाइट ढक्कन वाले कंटेनर या पॉलीथीन से ढककर फ्रिज में रख दें। खरबूजा दो घंटे से ज्यादा समय तक फ्रिज में न रखें। बिना काटे गर्मी के मौसम में दो दिन तक घर में रख सकते हैं। ध्यान रखें कि इस दौरान खरबूजा छांव और ठंडी जगह में रखा हो।

कब और कितना खाएं
- 150 से 200 ग्राम रोजाना
- खरबूजा खाने का कोई निश्चित समय नहीं है।
- खाना खाने से पहले खाएं तो बेहतर है।

खरबूजे के गुण
90% पानी
10% शुगर और कार्ब्स
न्यूट्रिशन भी कम नहीं-
विटामिन: A, B1, B3, B6, C, K आदि
मिनरल: आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नेशियम, फाॅस्फोरस, जिंक, कॉपर।
एसिड: पैंटोथेनिक, फैटी और अमीनो एसिड।
फैक्ट (150 ग्राम तरबूज में)-
कैलरी: 53
पानी: 90%
प्रोटीन: 0.9 ग्राम
कार्ब्स: 12.8 ग्राम
शुगर: 12 ग्राम
फाइबर: 1.9 ग्राम
फैट: 0.3 ग्राम

पेस्टिसाइड का प्रयोग
तरबूज और खरबूजे के बीज की बुवाई के समय खतरनाक पेस्टिसाइड का प्रयोग किया जाता है। यही नहीं, तरबूज और खरबूजे की बेल की ग्रोथ के लिए काफी जगह ड्रिप इरिगेशन का प्रयोग करते हैं, लेकिन इसके लिए पेस्टिसाइड मिले पानी का प्रयोग होता है। जब तरबूज और खरबूजा बड़े होते जाते हैं तो पेस्टिसाइड का काफी हिस्सा इनमें चला जाता है और ऐसे तरबूज/खरबूजा खाने से सेहत पर भी बुरा असर पड़ सकता है।

दावा और सचाई
दावा किया जाता है कि तरबूज और खरबूजे में उनका आकार बढ़ाने, मिठास लाने और पकाने के लिए इंजेक्शन के जरिए कुछ दवा का प्रयोग किया जाता है। इन दावों के बीच हमने भी तरबूज और खरबूजा पर एक एक्सपेरिमेंट किया। हमने दोनों फलों में इंजेक्शन की एक खाली नीडल डाली और करीब 10 सेकंड बाद निकाल ली। फिर हमने दोनों फलों को कमरे के सामान्य तापमान पर छोड़ दिया। तीन दिन बाद जब हमने देखा तो खरबूजा का न केवल रंग बदल गया था, बल्कि वह बहुत ज्यादा सॉफ्ट हो गया था। जब उसे काटा गया, तो अंदर से भी खराब निकला। वहीं तरबूज के जिस जगह नीडल डाली गई थी, वह हिस्सा अंदर से गल गया था। तरबूज का बाकी हिस्सा भी खाने लायक नहीं बचा था। इससे पता चलता है कि अगर इन फलों में किसी भी प्रकार का इंजेक्शन लगाया जाता है, तो वह दो-तीन दिन में ही खराब हो जाएगा।

शुगर पेशंट क्या करें
डायबीटीज के मरीज को तरबूज या खरबूजा खाने में कोई परेशानी नहीं है। इन दोनों फलों को 100 ग्राम तक डायबीटीज के मरीज खा सकते हैं। वहीं किडनी के मरीजों को तरबूज या खरबूजा खाने को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया है। चूंकि दोनों फलों में पोटैशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज इन दोनों फलों को डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।
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लीची खाएं, लेकिन ध्यान से
बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार यानी एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एसईएस) से करीब 128 बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी वजह से बड़ी तादाद में बच्चे बीमार हो गए हैं। इन मौतों की वजह हाइपोग्लाइसीमिया और अन्य अज्ञात बीमारी है। कुछ रिपोर्ट में इन मौतों की वजह को लीची भी बताया गया है। रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि लीची में पाए जाने वाले एक जहरीले तत्व की वजह से ये मौतें हो रही हैं। अगर आप खुद या बच्चे को लीची खिला रहे हैं तो इन बातों का ध्यान रखें:

कुपोषित बच्चों को लीची न खाने दें
चमकी बुखार का असर 10 साल तक के कुपोषित बच्चों पर ही पड़ रहा है। एक्सपर्ट के मुताबिक इन बच्चों को ठीक ढंग से खाना और जरूरी पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। इस कारण इन बच्चों के शरीर की इम्युनिटी कम होती है। सुबह को ये बच्चे खाली पेट ही लीची को बिना ढंग से साफ किए खा लेते हैं। इसके बाद बच्चों के शरीर में शुगर का लेवल गिरना शुरू हो जाता है और बच्चा बीमार पड़ जाता है।

कुपोषित बच्चों की पहचान
- बच्चा पतला-दुबला होता है और उसकी हड्डियां दिखाई देती रहती हैं।
- बच्चे का शरीर पतला और पेट बाहर की ओर निकला रहता है।
- बच्चे के बाल कुछ सुनहरी हो जाते हैं।
- बच्चा शारीरिक रूप से ऐक्टिव नहीं होता है और अधिकतर समय एक ही जगह बैठा-बैठा रोता रहता है।
- उम्र के अनुसार बच्चे की लंबाई और वजन का अनुपात सही नहीं होता है।
- घाव भरने में अधिक समय लगता है।
- बच्चे को सांस लेने में परेशानी होती है और वह चिड़चिड़ा रहता है।

अधपकी या कच्ची लीची न खाएं
लीची कभी भी अधपकी या कच्ची और खाली पेट नहीं खानी चाहिए। पकी और बिना कीड़े वाली लीची को पहले छील लें। अब उसके खाने वाले हिस्से (गूदा) को उसकी गुठली से अलग कर लें। गूदा को भी गौर से देखें कि कहीं उसमें भी कीड़े तो नहीं हैं। अगर गूदा में कीड़े नहीं हैं तो उसे किसी बर्तन में इकट्ठे कर लें। इकट्ठे उतने ही करें जितना आप खा सकें। इसके बाद गूदा को फिर से साफ पीने वाले पानी से दो बार धोएं। अब इस गूदे को खा सकते हैं। यह तरीका आपको लंबा जरूर लग सकता है, लेकिन सेहत के लिए जरूरी है।

कीड़ों का रखें ध्यान
इस फल में कीड़े मिलने की भी आशंका ज्यादा होती है। लीची का वह हिस्सा जो डंठल से लगा होता है, वहां कीड़े अधिक मिलते हैं। इन कीड़ों का रंग लीची के रंग जैसा होता है, इसलिए ये कई बार दिखाई भी नहीं देते। लीची खाते समय अगर कीड़े दिखाई दें तो उस लीची को फेंक दें।

एक्सपर्ट पैनल
- डॉ. आर. आर. शर्मा
चीफ साइंटिस्ट
पूसा इंस्टिट्यूट

- डॉ. अशोक झिंगन
डायबीटीज एक्सपर्ट

- डॉ. स्कंद शुक्ल
सीनियर फिजिशन

- इशी खोसला
न्यूट्रिशनिस्ट ऐंड डाइट एक्सपर्ट

- नीलांजना सिंह
सीनियर डाइटिशन

- एस. सी. शुक्ला
आम उत्पादक, लखनऊ

- संजय वत्नानी
प्रमुख आम व्यापारी

- राम गोपाल मिश्रा
प्रमुख फल व्यापारी

साभार संडे नवभारत टाइम्स 

क्या है विपश्यना, कैसे करतें है इसे ?विपश्यना के बारे में पूरी जानकारी

विपश्यना के वे 10 दिन
राजेश मित्तल
अपनी जिंदगी में अभी तक इतनी तकलीफ कभी नहीं झेली थी, जितनी उन 10 दिनों में बर्दाश्त की। 10 दिन एक तरह से कैद में था। कैंपस से बाहर जाने की इजाजत नहीं। बाहरी दुनिया से एकदम कटा रहा। मोबाइल पहले ही दिन जब्त कर लिया गया। पढ़ने-लिखने, टीवी-अखबार, इंटरनेट-ईमेल जैसे नशों की भी छूट नहीं। घर-परिवार, देश-दुनिया में क्या हो रहा है, पूरी तरह बेखबर। कैंपस के भीतर भी ढेर सारी पाबंदियां। किसी से बात करने की इजाजत नहीं। इशारे भी नहीं। लिखकर भी नहीं। शाम 5 बजे टी ब्रेक के बाद कुछ नहीं मिलता था। नो डिनर। कायदे का खाना दिन में बस एक बार। वह भी सुबह 11 बजे। सुबह 4 बजे जग जाना होता था। फिर रात 9 बजे तक घंटे, दो घंटे के 8 सेशन, रोज कुल 10 घंटे ध्यान। गर्दन और कमर सीधी रखकर जमीन पर पालथी मारकर बैठे रहो। गर्दन दर्द, कमर दर्द और घुटने दर्द झेलो। 40 डिग्री तक गर्मी, पर कोई एसी-कूलर नहीं। सिर्फ पंखा।

बात चल रही है विपश्यना कोर्स की। विपश्यना बड़ा टफ कोर्स है- ऐसा बहुतों से सुन रखा था। फिर भी पिछले महीने मई में इगतपुरी (महाराष्ट्र) जाकर विपश्यना कोर्स करने का मन बना लिया। कारण, बरसों से यह कोर्स करने की तमन्ना थी। लेकिन मन में दो बड़ी घबराहटें भी थीं। एक: ध्यान के घंटों लंबे सेशन मेरा तन-मन झेल पाएगा कि नहीं। दो: शाम 5 बजे हल्के स्नैक्स के बाद रात को कुछ भी खाने का नहीं दिया जाता और अपनी आदत यह है कि हर 3-4 घंटे में कुछ न खाऊं तो हाल बेहाल हो जाता है। मारे भूख के सरदर्द चालू हो जाता है। इसी डर से कोर्स की पूर्वसंध्या पर स्नैक्स ज्यादा खाकर पेट की टंकी ठूंस-ठूंस कर फुल भर ली। रात को प्रवचन में कहा गया कि यहां डिनर नहीं मिलता है तो लोग शाम के स्नैक्स डबल खा लेते हैं। इससे अच्छे ध्यान में रुकावट आती है। मन ही मन शर्मिंदा हुआ। टंकी एक्स्ट्रा भरना छोड़ दिया। बाद में भूख ने तंग तो नहीं किया। हां, सिर्फ तीसरे दिन कुछ कमजोरी महसूस हुई। हाद में ठीक हो गया। 10वें यानी आखिरी दिन सुबह 10 बजे मौन खुला तो रात को पेट में चूहे कूदे। तब एहसास हुआ कि मौन कितना जरूरी था और बातों में हम कितनी ढेर सारी इनर्जी बर्बाद कर देते हैं। पहला दिन तो नई जगह, नया माहौल देखने-समझने में कट गया। दूसरा दिन बेहद भारी लगा। ध्यान लग नहीं पाया। 1 घंटे के सेशन में 40- 45 मिनट विचारों में ही खोया रह जाता। रात के प्रवचन में बताया गया कि ऐसा होना स्वाभाविक है। भीतर की गंदगी बाहर आ रही है।

शरीर की बगावत
तीसरे दिन लगने लगा, कहां आकर फंस गया। गर्दन दर्द, कमर दर्द, घुटने दर्द - सब बर्दाश्त से बाहर होने लगा। बोलने की चाहे मनाही थी लेकिन कोई जरूरत, समस्या या सवाल होने पर कभी भी सहायक आचार्य या धम्मसेवक (वॉलंटियर) से बात की जा सकती थी। ब्रेक के दौरान सहायक आचार्य से कहा: 'कुर्सी पर बैठने की इजाजत दे दें।' मना कर दिया गया। समझाया गया: 'बर्दाश्त करो, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। कुर्सी तो बीमारों और बूढ़ों के लिए है।' गुजारिश ठुकरा दिए जाने पर बुरा लगा। अगले दिन उन्हीं सहायक आचार्य का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने कुर्सी नहीं दी। इसी वजह से मैं उस दिन 1 घंटे के ध्यान सेशन में पूरे वक्त एक ही मुद्रा में बैठा रह सका। एक बार भी टांग खेलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। हां, यह चमत्कार बस एक दफा ही हुआ। बाद के सेशंस में फिर टांग खोलनी पड़ी, पर टांगों और गर्दन के दर्द ने बाद में ज्यादा परेशान नहीं किया। दर्द सहा तो शरीर के कुछ पार जाने लायक बन सका। यह भी सच है कि किसी-किसी सेशन में इतना आनंद आ जाता कि ब्रेक का ऐलान अखरने लगता और किसी सेशन में शरीर से इतना हैरान-परेशान कि एक-एक सेकंड काटना भारी पड़ जाता। ब्रेक की घोषणा का बेकरारी से इंतजार करता।

बागी हुआ मन भी
हर सेशन के शुरू के 30-40 मिनट तो प्रैक्टिस में मन लगता। फिर सब्र का बांध टूट जाता। मन को बेलगाम छोड़ देता। ऊलजलूल कुछ भी सोचने लगता। मन बंदर, हमारे अंदर। दीन-दुनिया के बारे में सोचने में मन को मजा आता। प्रैक्टिस भारी और ऊबाऊ जान पड़ती। बेसब्री से ब्रेक के ऐलान का इंतजार करता। लेकिन यह भी मन में आता कि फिर कभी 10 दिन निकालने आसान नहीं होंगे। अभी इतनी मेहनत की है तो इस तकनीक को अपना असर दिखाने का पूरा मौका देना चाहिए ताकि बाद में अफसोस न हो कि मुझे अनुभूति नहीं हुई तो मेरी अपनी लापरवाही और आलस के कारण। नुकसान मेरा होगा। खुद को ही धोखा दूंगा। यही सब सोचकर मन को बार-बार खींचकर प्रैक्टिस पर ले आता।

पड़ोस से परेशानी
ध्यान कक्ष में मेरे अड़ोस-पड़ोस ने मेरी सहनशीलता का काफी इम्तिहान लिया। बिलकुल पीछे वाले महाशय ऐसे कि हर सेशन में 3-4 बार मेरे आसन पर लात न जमा लें, उनका ध्यान पूरा नहीं होता था। एक और सज्जन थे जो इत्ती गर्मी में जुराबें डालकर आते थे। उनके पैर, उनकी जुराबें, मन्ने क्या। पर नाक तो मेरी थी जो उनकी जुराबों की बदबू से हलकान हुए जाती थी। यही जनाब हर सेशन में 4-5 बार जोर से डकार मारते थे। हॉल में सबसे तेज आवाज में डकार मारने का रेकॉर्ड इन्हीं के पास था। अगर बोलने की इजाजत होती तो मैं ही नहीं, बाकी कई लोग भी इन सज्जन से गुजारिश करते कि भाई साब, गले में जरा साइलेंसर लगवा लें। खर्चा हम दे देंगे। वहां 'ध्यान' में बैठे-बैठे मैं दूसरों में कमियां निकाल रहा था। हो सकता है, मेरे आसपास वाले किसी बात को लेकर मुझे बर्दाश्त कर रहे हों। 3-4 दिनों बाद इन छोटी-मोटी चीजों ने परेशान करना बंद कर दिया। जो भी हो, सामूहिक ध्यान में सहनशीलता की भी प्रैक्टिस हो जाती है।

मच्छरों की मुसीबत
ध्यान कक्ष में विचारों से जंग लड़ने के बाद रात को अपने सोने के कमरे में मच्छरों से जंग तकरीबन रोज ही लड़नी पड़ती। पता नहीं कहां से आ जाते। मच्छरों की फौज, राजेश के खून पर करेगी मौज! नहीं, ऐसा नहीं होने देना। फौज तो खैर एक जुमला था, पर 3-4 मच्छर जरूर रोज आ जाते थे। उन्हें मार सकता नहीं था क्योंकि कोर्स शुरू करने से पहले हम सबसे वचन ले लिया गया था कि कोर्स के दौरान जीव हत्या नहीं करेंगे। तल्ख हकीकत यह थी कि कमरे में एक भी मच्छर हो तो रात को ठीक से नींद नहीं आएगी। ऐसे में दिन भर ध्यान नहीं हो पाएगा। एेसे में मच्छरों के साथ पकड़म-पकड़ाई खेलता। एक-एक मच्छर को पॉलीथीन लिफाफे में बंद करके बाहर विदा करके आता। एक दिन एक मच्छर मेरे चेहरे पर बैठ गया। झट से हाथ ने अपना काम किया। अरे यह क्या, मच्छर को मार दिया। मैंने जीव हत्या न करने का इरादा किया था और बाकायदा इसका पालन भी कर रहा था। तो यह एेक्शन कहां से हुआ? तब चेतन मन, अवचेतन मन की पहेली समझ में आई। चेतन मन में रहते हैं हमारे सारे वादे, इरादे, फैसले और ज्ञान। यह सब धरे का धरा रह जाता है जब अचानक कुछ अनचाहा घट जाता है। तब हम अपनी आदतों, अनुभवों, कंडिशनिंग, मान्यताओं के मुताबिक रिएेक्ट करते हैं। यही अवचेतन मन है। मच्छर को मारनेवाला अवचेतन मन था जो चेहरे पर बैठे मच्छर को मार डालने की मेरी पुरानी आदत से परिचालित हुआ था। इसी अवचेतन मन यानी चित्त की सफाई विपश्यना का लक्ष्य है। साफ चित्त अनचाही स्थितियों में भी शांत और संतुलित बना रहता है। ऐसा चित्त बेहोशी से नहीं, होश से रिएेक्ट करता है। उस पर अतीत का कोई बोझ नहीं होता।

क्या पाया, क्या खोया
कोर्स के बाद विपश्यना की थिअरी मोटी-मोटी समझ में आ गई। 10 दिन प्रैक्टिकल करके देख लिया। तकनीक अपना काम करे, मैंने भी करीब पूरा सहयोग किया, मेहनत और नियमों को पालन करके। आचार्य, सहायक आचार्य और धम्म सेवकों की भी मेहनत में कमी नहीं थी। लेकिन 10 दिन काफी नहीं यह जवाब देने के लिए कि क्या वाकई विपश्यना की प्रैक्टिस करके हम दुखों से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पा सकते हैं? कि क्या हम उस लेवल पर पहंच सकते हैं जहां राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुख हमारे मन की शांति और संतुलन को भंग न कर पाए? कि क्या हम हमेशा समता की स्थिति में रह सकते हैं? 10 दिन में किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना मुमकिन नहीं। इसलिए पक्की तरह ठोककर नहीं कह सकता कि विपश्यना सही रास्ता है।

हां, 10 दिन एक भिक्षु के तौर पर जीने का दुर्लभ मौका मिला। सच है कि तन-मन को तकलीफ खूब हुई, लेकिन अपने कम्फर्ट लेवल से बाहर जाकर ही हम कुछ हासिल कर पाते हैं। वहां मैं अपने शरीर और मन को कुछ गहराई से जान पाया। सीखने के लिहाज से विपश्यना कोर्स जिंदगी के सबसे यादगार अनुभवों में से एक है। इस कोर्स को करने के बाद जो बदलाव मेरी जिंदगी में आए, वे हैं: पहले मैं अमूमन सुबह 8-9 बजे उठता था, अब 6 बजे के आसपास अपने आप नींद खुलने लगी है। पहले रात 12-1 बजे सोता था, अब 11-12 बजे तक सो जाता हूं पहले कभी-कभी ध्यान करता था, अब तकरीबन रोज 1 घंटा करता हूं। पहले 9-10 बजे डिनर लेता था और लेट नाइट स्नैक्स भी। अब डिनर 5 से 8 बजे के बीच निपटा देता हूं और खाने-पीने की चीजों के चुनाव में ज्यादा ऐहतियात बरतने लगा हूं। वजन भी 2 किलो घट गया।

ये तो हुए बाहरी बदलाव, अब बात भीतरी बदलाव की, जो सबसे अहम है। कभी-कभी लगता है कि मन पर कुछ शांत रहने लगा है, मन पर कुछ कंट्रोल होने लगा है। पर अगली दफा ही कुछ ऐसा कर बैठता हूं कि अपने पर शर्मिंदगी होती है। इसीलिए कोर्स के आखिरी दिन कहा गया कि अब घर जाकर सुबह-शाम 1-1 घंटा विपश्यना की प्रैक्टिस करनी है। मन ने इस साधना को आजमाने का फैसला किया है।

विपश्यना कोर्स इसलिए अच्छा लगा कि इसमें प्रैक्टिकल तरीके से बताया गया है कि हम किस तरह दुखों से मुक्ति पा सकते हैं। इसमें अंधश्रद्धा पर आधारित कोई भी कर्मकांड नहीं है। विपश्यना विधि चाहे बौद्ध परंपरा से आई है, फिर भी इसमें संगठित धर्म जैसी कोई बात नहीं। यह ज्ञान का मार्ग है इसलिए तार्किक लोगों को ज्यादा अपील करता है। इसमें कोई धंधेबाजी भी नहीं। सीखना, खाना, रहना - सब फ्री। इसीलिए यहां सब कुछ सादा और सादगी भरा है। कहीं भी वैभव की चकाचौंध नहीं। कुछ ऐसे आश्रम भी देखे हैं जो फाइव स्टार होटल जैसे होते हैं। तभी वहां धंधेबाजी भी होती है। यहां बस जरूरत भर का सामान है। इसके बावजूद यहां हर चीज का लगभग परफेक्ट बंदोबस्त है। कोर्स सिखाने से लेकर रहने-खाने में कोई कमी नहीं।

बेसिक जानकारी................................

क्या है विपश्यना
विपश्यना ध्यान का एक तरीका है। करीब 2500 साल पहले गौतम बुद्ध ने इसकी खोज की थी। बीच में यह विद्या लुप्त हो गई थी। दिवंगत सत्यनारायण गोयनका सन 1969 में इसे म्यांमार से भारत लेकर आए। कोर्स के पहले तीन दिन आती-जाती सांस को लगातार देखना होता है। इसे 'आनापान ' कहते हैं। आनापान दो शब्दों आन और अपान से बना है। आन मतलब आने वाली सांस। अपान मतलब जाने वाली सांस। इसमें किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठकर आंखें बंद की जाती हैं। कमर और गर्दन सीधी रखी जाती है। फिर अपनी नाक के दोनों छेदों पर मन को फोकस कर दिया जाता है और हर सांस को नाक में आते-जाते महसूस किया जाता है। सांस नॉर्मल तरीके से ही लेनी होती है। सांस देखते-देखते एहसास होता है कि हमारा मन कितना चंचल है। मन या तो अतीत की पुरानी बातों में या फिर भविष्य की कल्पनाओं में गोता लगाता है । मन को बार-बार खींचकर सांस पर लाना पड़ता है। पहले तीन दिन बस यही करना होता है।

चौथे दिन विपश्यना सिखाई जाती है और बाकी 7 दिन इसी की प्रैक्टिस कराई जाती है। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: विशिष्ट प्रकार से देखना यानी जो चीज जैसी है, उसे उसके असली रूप में देखना, न कि जैसी कि उसकी व्याख्या हमारा अवचेतन मन कर दे। विपश्यना में शरीर की संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों में संवेदनाएं हर वक्त पैदा होती रहती हैं। संवेदना परेशान करने वाली भी हो सकती है जैसे कि गर्मी-सर्दी, दर्द, दबाव, खुजली आदि और संवेदना सुखद भी हो सकती है, मसलन : वाइब्रेशंस महसूस होना। न सुखद संवेदना से राग पालना है, न दुखद से द्वेष। बस साक्षी भाव से देखना है। मन में यह भाव लाना है कि संवेदना सुखद हो या दुखद, वह हमेशा नहीं बनी रहेगी। इसलिए समता में, संतुलन की स्थिति में रहना है। विपश्यना से हमें वर्तमान में रहने की प्रैक्टिस होती है और वर्तमान को समता से देखने की भी। ऐसे में मन में विकार नहीं पैदा होंगे। किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थिति से न राग, न द्वेष। बाहर के हालात मन की शांति भंग नहीं कर पाते। इसी समता भाव में स्‍थित होना ही निर्वाण है। इससे इंसान सुख-दुख में भी संतुलन में रह पाता है। उसकी छोटी-मोटी बीमारियां तो यूं ही दूर हो जाती हैं।

तमाम साधनाओं की तरह इस साधना का मकसद भी दुखों से छुटकारा पाना है। हम दुखी इसलिए हैं क्योंकि हम सुखद और दुखद संवेदनाओं के प्रति बेहोशी से रिएेक्ट कर जाते हैं। विपश्यना में संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट होने की प्रैक्टिस कराई जाती है। दरअसल बाहरी दुनिया में या मन के अंदर जब भी कुछ मनचाहा या अनचाहा घटता है तो मन में विकार जगता है, विकार यानी राग या द्वेष। इसका असर सबसे पहले सांसों पर पड़ता है। सामान्य तरीके से आ-जा रही सांस अनियमित हो जाती है। दूसरा असर पड़ता है हमारे शरीर पर। शरीर में अच्छी या बुरी संवेदना पैदा होती है। बाद में हम रिएेक्ट करते हैं। अगर हम विकार पैदा होने पर सांस और संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट हो जाएं तो बेहोशी से, अवचेतन मन से हमारा रिएेक्ट करना रुक सकता है। इसीलिए विपश्यना कोर्स में सांस और संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। विपश्यना में सर से पांव तक बारी-बारी से हर अंग पर कुछ देर रुककर वहां की संवेदना को महसूस किया जाता है। आम जिंदगी में दुखों से बचने के लिए हम बाहरी दुनिया को मैनेज करने में जुटे रहते हैं। यहां भीतर की दुनिया को, अपने अवचेतन मन को मैनेज करना सिखाया जाता है।

कितने दिन का है कोर्स
विपश्यना का यह रिहायशी कोर्स कहने को 10 दिन का होता है लेकिन कुल 12 दिन लगते हैं। 10 दिन पूरे और 2 दिन अधूरे। एक दिन पहले सेंटर पहुंचना होता है। दोपहर बाद 2 से 4 बजे के बीच रजिस्ट्रेशन होता है, मोबाइल जैसी चीजें जमा हो जाती हैं और सोने का कमरा अलॉट होता है। शाम 5 बजे से रात करीब 9 बजे तक कोर्स के नियम-कायदों की जानकारी दी जाती है। साथ में ध्यान कक्ष में सीट अलॉट की जाती है। उसी पर सभी दिन बैठकर ध्यान करना होता है। कोर्स 11वें दिन सुबह 7:30 बजे खत्म होता है। हर सेंटर एक महीने में 2 कोर्स कराता है। ध्यान कैसे करना है, इस बारे में निर्देश गोयनका जी के हिंदी-अंग्रेजी में रेकॉर्डेड ऑडियो टेप के जरिए दिए जाते हैं। रोज रात को डेढ़ घंटे गोयनका जी का प्रवचन होता है जिसमें विशुद्ध धर्म और ध्यान की बारीकियां समझाई जाती हैं।

क्या-क्या होता है दिन भर
विपश्यना कोर्स में सुबह 4:30 से रात 9 बजे तक ध्यान के सेशन चलते हैं बीच में नहाने धोने, खाने पीने, आराम करने का वक्त दिया जाता है। वहां रुटीन कुछ इस तरह का है: तड़के 4 बजे उठो। फ्रेश होने के बाद 4:30 बजे ध्यान कक्ष पहुंच जाओ। वहां 6:30 तक ध्यान करो। 6:30 से 7:15 के बीच नाश्ता, फिर 8 बजे का वक्त नहाने-धोने के लिए दिया जाता है। 8 से 9 और 9 से 11 ध्यान के दो सेशन। 11 बजे लंच। उसके बाद 1 बजे तक का वक्त आराम का। 1 से 2:30, 2:30 से 3:30 और 3:30 से 5 - ध्यान के तीन सेशन। 5 से 5:30 स्नैक्स। 6 बजे तक आराम। 6 से 7 ध्यान, 7 से 8:30 गोयनका जी का वीडियो पर प्रवचन, 8:30 से 9 बजे तक ध्यान। ध्यान के हर घंटे, दो घंटे बाद 5-10 मिनट का बायो ब्रेक दिया जाता है।

रहना-खाना कैसा
रहने के 3 तरह के विकल्प हैं : सिंगल रूम, डबल शेयरिंग रूम और डोर्मिटरी। अपना सहूलियत के हिसाब से कोई भी विकल्प चुन सकते हैं। खाना सादा, सात्विक, शुद्ध शाकाहारी, मिर्ची रहित ताकि ध्यान आसानी से लगे।

क्या है फीस
विपश्यना का यह कोर्स पूरी तरह फ्री है। रहने और खाने का भी पैसा नहीं लिया जाता। शिविर का सारा खर्च पुराने साधकों के दिए गए दान से चलता है। शिविर खत्म होने पर कोई चाहे तो भविष्य के शिविरों के लिए दान दे सकता है। दान उसी से लिया जाता है जो पहले से यह कोर्स कर चुका हो।

कैसे सीखें
विपश्यना के मेन सेंटर का पूरा पता है: विपश्यना इंटरनैशनल अकैडमी, धम्मगिरि, इगतपुरी, जिला नासिक, महाराष्ट्र। सीखने के लिए इगतपुरी जाना जरूरी नहीं। देश में इसके करीब 70 सेंटर हैं और पूरी दुनिया में कुल 161 सेंटर। www.vridhamma.org विपश्यना के इगतपुरी सेंटर की वेबसाइट है। यहां विपश्यना के बारे में पूरी जानकारी है। होम पेज पर Contact Us पर जाकर सभी ट्रेनिंग सेंटर्स को ब्यौरा पा सकते हैं। www.dhamma.org पर ऑनलाइन बुकिंग भी मुमकिन है। आम तौर पर वेटिंग रहती है। इसलिए एडवांस में बुकिंग कराएं।

एक ही जीवन कई बार जीना

एक ही जीवन कई बार जीना
चंद्रभूषण
बुद्ध की ध्यान पद्धतियों में एक थी- फूल को देखना। मुंह अंधेरे किसी तालाब के किनारे बैठ जाओ और वहां गर्व से उपर उठी एक कमल कली पर अपनी आंखें टिका दो। तुम्हारा किसी आसन में होना जरूरी नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि पलकें तुम्हारी लगातार टंगी रहें। जैसे जी करे वैसे देखो, क्योंकि और कुछ नहीं सिर्फ देखना महत्वपूर्ण है। उस बिल्कुल हरी ठोस चीज में धीरे-धीरे हल्की लालिमा फूटती है। फिर कुछ देर बाद हरापन गायब हो जाता है और पूरी तरह खिला हुआ एक अद्भुत लाल फूल तुम्हारे सामने होता है।

ज्यादा गौर से देखने पर उसके बीच में पीले पराग की झलक भी मिलने लगती है, जिसका रस लेने के लिए भौंरे उस पर मंडराने लगते हैं। अब तक शायद दोपहर हो चुकी हो और तीखी धूप तुम्हें तंग करने लगी हो। उसी जगह बैठे रहने की कोई बाध्यता तुम्हारे लिए नहीं है। चाहो तो उठकर छाया में चले जाओ। बाध्यता सिर्फ एक है कि तुम्हें उसी फूल को लगातार देखना है। थोड़ी देर बाद कमल की पंखुड़ियां सिकुड़ने लगती हैं। लगता है, वह दोबारा कली की अवस्था में जाना चाहता है। लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं।

शाम होते-होते फूल मुरझा जाता है। उसकी डंठल लटक जाती है और कुम्हलाया कमल झुक कर वापस पानी के करीब पहुंच जाता है। अगले दिन तुम यही क्रिया फिर से दोहरा सकते हो, और जब तक जी करे, दोहराते रह सकते हो। शुरू के बौद्ध साधक इस साधना को सालोंसाल जारी रखते थे, अपने-अपने ढंग से इसके नतीजे निकालते थे और उन नतीजों को अपने तक ही रखते थे। बाद में उनका काम किताब में पढ़े हुए या गुरुओं द्वारा उपदेशित ‘नश्वरता’ के सिद्धांत से चल जाने लगा।

बुद्ध के दो हजार साल बाद हुए कबीर ने कभी यह साधना की या नहीं, कोई नहीं जानता, लेकिन उनकी पंक्ति ‘काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी’ में इसकी एक उम्मीद भरी व्याख्या जरूर मिलती है। और कमल के प्रसंग से बिल्कुल अलग, बुद्ध-कबीर से हजारों मील दूर, किसी और ही देश-काल में जन्मे फारसी शायर रूमी फरमाते हैं, ‘मी चू सब्ज़ा बारहा रूईदा एम’। घास-फूस की तरह मैं बार-बार उग आता हूं। जून के महीने में अपने सूखे मन और बाहर की बंजर जमीन पर नजर रखिए। हरियाली कभी भी आ सकती है।

Friday, June 21, 2019

मेडिटेशन को शामिल करें अपने रूटीन में

*मेडिटेशन को करें अपने रूटीन में शामिल, होंगे ये 13 सेहतमंद फायदे*

1 मेडिटेशन, मन अशांत रहने पर उसके निष्क्रिय पड़े हुए भागों को उपयोग में लाने योग्य बनाता है।
2 अनुभव की क्षमता को सूक्ष्म करने की एक प्रक्रिया है ध्यान।
3 यदि आपको भूलने की आदत है तो ध्यान आपके लिए बहुत उपयोगी है।
4 गुस्सैल प्रवृत्ति के लोगों का मन शांत करने में कारगर है भावातीत ध्यान।
5 निर्णय न ले पाने वाले भी इसे अपनी जिंदगी में शामिल कर सकते हैं।
6 हृदयरोग की रोकथाम के लिए उत्तम औषधि के समान है।
7 मन की चंचलता को नियंत्रित करता है।
8 दीर्घायु बनाने में इसकी अहम उपयोगिता है।
9 शांति, सामर्थ्य, संतोष, शांति, विद्वत्ता और सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है भावातीत ध्यान।
10 चाहें तो ध्यान के समय कुछ फूल आस-पास रखें, कोई सुगंधित वस्तु का छिड़काव कर दें, अगरबत्ती जला दें।
11 रात्रि के भोजन से पहले ही ध्यान के लिए बैठें। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ध्यान करें।
12 ढीले वस्त्र पहनकर ध्यान करें।
13 महिलाएं यदि चाहें तो भावातीत ध्यान किसी शिक्षक के द्वारा भी सीख सकती हैं। चाहें तो मेडिटेशन सेंटर में भी आप इसे सीख सकती हैं।