Wednesday, November 2, 2011

अंतरिक्ष अभियान में कामयाबी की ओर बढ़ते कदम


अंतरिक्ष अभियान में कामयाबी की ओर बढ़ते कदम
अंतरिक्ष अभियान में एक और मील का पत्थर स्थापित करते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान इसरो ने १२ अक्टूबर को श्री हरिकोटा से ध्रुवीय  उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी18से भारतीय-फ्रांसीसी उष्णकटिबंधीय मौसम उपग्रह मेघा-ट्रॉपिक्यूज और तीन अन्य छोटे उपग्रहों को प्रक्षेपण करने में सफलता हासिल की है । साल 1993 के बाद से यह 50वां उपग्रह प्रक्षेपण है। प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी18 44 मीटर लंबा है और इसका भार 230 टन है। रॉकेट के साथ 1,000 किलोग्राम भार का मेघा ट्रॉपिक्यूज उपग्रह व 42.6 किलोग्राम भार के तीन छोटे उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए गए ।
मेघा ट्रॉपिक्यूज को उष्णकटिवंधीय क्षेत्रों की जलवायु व पर्यावरण में होने वाले बदलावों के अध्ययन के लिए प्रक्षेपित किया गया  है। इसके साथ ही भारत इस तरह का अंतरिक्ष मिशन शुरू करने वाला दुनिया का दूसरा राष्ट्र बन जाएगा। यह उपग्रह पृथ्वी की कक्षा से 800 किलोमीटर नीचे दिखेगा। उम्मीद की जा रही है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) को भी मौसम का अधिक सटीक पूर्वानुमान बताने में इससे मदद मिलेगी। तीन अन्य छोटे उपग्रहों में चेन्नई के नजदीक स्थित एसआरएम विश्वविद्यालय के छात्रों का बनाया 10.9 किलोग्राम भार का एक उपग्रह एसआरएमसैट है। दूसरा तीन किलोग्राम का दूरसंवेदी उपग्रह जुगनू है,जिसे  भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर ने बनाया है। इनके अलावा लक्जमबर्ग का 28.7 किलोग्राम का वैसलसैट उपग्रह है जो  समुद्र में जहाजों की स्थिति ज्ञात करने के लिए इसे प्रक्षेपित किया गया है ।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के छात्रों के दल द्वारा तैयार नैनो उपग्रह जुगनू का निर्माण और  प्रक्षेपण एक चुनौती था । इस उपग्रह को तैयार करने में सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करने की थी कि इसे प्रक्षेपण के बाद निर्बाध ढंग से ऊर्जा कैसे प्राप्त हो सके और संचार व्यवस्था की दुरुस्त तरकीब कैसे बने। इसके साथ ही नियंत्रण व्यवस्था का उचित प्रबंध एक अहम विषय था। जुगनू  आठ सेंटीमीटर चौड़ा और 30 सेंटीमीटर लम्बा सूक्ष्म उपग्रह है, जिसके माध्यम से बाढ़, सूखा, आपदा प्रबंधन और दूरसंचार से जुड़े विषयों पर सूचनाएं एकत्र की जा सकेंगी। वास्तव में इतने छोटे उपग्रह को तैयार करना एक बड़ी चुनौती थी, जिसे आइआईटी कानपुर के करीब 40 छात्रों के दल ने सफलतापूर्वक बनाया। करीब 2.5 करोड़ रुपये की लागत से तैयार इस उपग्रह के विषय में उन्होंने कहा कि इस उपग्रह में माइक्रो इमेजिंग कैमरा लगा है, जिससे बाढ़, सूखा और अन्य आपदाओं के बारे में सुस्पष्ट चित्र लिये जा सकें। यह उपग्रह जीपीएस प्रणाली से युक्त है। किसी भी उपग्रह का भार मुख्य रूप से उसके पेलोड पर निर्भर करता है। इसको ध्यान में रखते हुए आईआईटी के छात्रों ने नया कैमरा डिजाइन किया है जिसमें योजनाबद्ध प्रारूप डाला गया है।

मानसून की गुत्थी सुलझाएगा मेघा ट्रॉपिक्स
मानसून के पूर्वानुमान को लेकर नयी कोशिशें हमेशा से होती रही हैं. कभी परंपरागत तकनीक की मदद ली गयी, तो कभी कृत्रिम उपग्रहों के जरिए मानसून की भविष्यवाणी की कोशिश की गयी. हाल में इसरो ने फ्रांस के सहयोग से निर्मित मेघा-ट्रॉपिक्स उपग्रह का प्रक्षेपण किया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि मेघा से मानसून की सटीक भविष्यवाणी करने मदद मिलेगी.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब भारत ने मौसम या मानसून की जानकारी पाने के लिए कोई उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा है. इससे पहले भी इस मकसद से भारत कई उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है. लेकिन, कहा जा रहा है कि मेघा-ट्रॉपिक्स मानसून पूर्वानुमान में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला साबित होगा. इससे किसानों को काफ़ी मदद मिलेगी.
उपग्रह प्रक्षेपण के इतिहास में एक नया कीर्तिमान रचते हुए भारत के पीएसएलवी-सी 18 राकेट ने सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से भारत-फ्रांसीसी उपग्रह मेघा-ट्रॉपिक्स को कक्षा में सफ़लतापूर्वक स्थापित कर दिया है. इस उपग्रह से मानसून के मिजाज को समझने में काफ़ी मदद मिलेगी. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ( इसरो ) के मुताबिक, इस उपग्रह से मानसून की सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है.

मानसून की सही भविष्यवाणी करने की कोशिश काफ़ी पहले से ही जारी है. इसके लिए अब तक कई उपग्रह भी अंतरिक्ष में छोड़े जा चुके हैं. आइए सबसे पहले जानते हैं कि कि ओखर मानसून पूर्वानुमान का क्या इतिहास रहा है और पहले इसका पूर्वानुमान किस तरह किया जाता था.
मानसून पूर्वानुमान का इतिहास
मानसून अरबी शब्द मौसिम से बना है. इसका मतलब होता है, हवाओं का बदलने वाला मिजाज. मानसून का इतिहास काफ़ी पुराना है. 16वीं शताब्दी में मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग समुद्र मार्ग से होने वाले व्यापार के संदर्भ में हुआ. तब भारतीय व्यापारी शीत ऋतु में इन हवाओं के सहारे व्यापार के लिए अरब और अफ्रीकी देशों में जाते थे और ग्रीष्म ऋतु में अपने देश लौटते थे.
शीत ऋऋतु में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हैं, जिसे शीत ऋतु का मानसून कहा जाता है. ग्रीष्म ऋतु में यह इसके विपरीत बहती हैं. इसे दक्षिण-पश्चिम मानसून या गर्मी का मानसून कहा जाता है. इन हवाओं से व्यापारियों को नौकायन में सहायता मिलती थी. इसलिए इन्हें एक किस्म का ट्रेड विंड भी कहा जाता है.
कैसा लगाया जाता है पूर्वानुमान
मानसून की अवधि 1 जून से 30 सितंबर यानी चार महीने की होती है. हालांकि, इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है. मानसून की भविष्यवाणी के लिए भारतीय मानसून विभाग 16 तथ्यों का अध्ययन करता है. इन 16 तथ्यों को चार भागों में बांटा गया है. सारे तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं. पूर्वानुमान निकालते समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फ़बारी जैसे विभिन्न कारकों का ध्यान रखा जाता है.
पूरे भारत के विभिन्न भागों के तापमान का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है. मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह का तापमान नोट किया जाता है. तापमान के अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है.       
वातावरण में अलग-अलग महीनों में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रुख को नोट किया जाता है. इसके साथ ही वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है. वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव, जबकि जनवरी से मई तक विषुवतीय हिंद महासागर के दबाव को मापा जाता है.
इसके बाद बर्फ़बारी का अध्ययन किया जाता है. जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ़ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फ़बारी का अध्ययन मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाता है. इन सभी तथ्यों के अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा इकट्ठा किये जाते हैं. फ़िर, अनुमान के आधार पर मानसून के बारे में बताया जाता है.
पूर्वानुमान की राह में क्या हैं दिक्कतें
उपग्रह से मिले आंकड़ों की जांच-पड़ताल में थोड़ी-सी असावधानी या मौसम में किसी प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है. उदाहरण के तौर पर, साल 2004 में प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान जून के महीने में बढ़ गया. इस कारण 2004 में मानसून की भविष्यवाणी पूरी तरह सही न हो पायी.
                                                  
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