Tuesday, March 20, 2012

जल संकट- कथित विकास की देन


जल संकट- कथित विकास की देन
जल है तो कल है
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि विश्व के अनेक हिस्सों में पानी की भारी समस्या है और इसकी बर्बादी नहीं रोकी गई तो स्थिति और विकराल हो जाएगी क्योंकि भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
विश्व जल मुद्दे पर पिछले दिनों छह दिवसीय बैठक में जारी एक विस्तृत रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य में अनेक बड़ी  चुनौतियां मसलन गरीब तबके को स्वच्छ जल और साफ-सफाई की सुविधा मुहैया कराना, विश्व आबादी को खाद्यान्न उपलब्ध कराना, भूमंडलीय तापमान में वृद्धि के दुष्प्रभाव आदि  पूरे विश्व के सामने खड़ी हैं. इन समस्यायों और चुनौतियों से  हर देश की प्राथमिकता में सबसे ऊपर होना चाहिए  क्योंकि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी मौजूदा सात अरब से बढ़कर नौ अरब हो जाने की उम्मीद है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने इस रिपोर्ट में कहा है, कृषि की बढ़ती जरूरतों, खाद्यान उत्पादन, उर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ रहा है।
दुनिया में तकरीबन 20 फीसदी लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा है और 40 फीसदी लोग सफाई की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इन वंचितों में से आधे से ज्यादा लोग चीन या भारत में हैं। दुनिया भर में ज्यादातर क्षेत्रों में काफी तरक्की हुई है और जल प्रचुरता से उपलब्ध है। लेकिन एक अरब 10 करोड़ लोग पीने के साफ पानी से अब भी वंचित हैं। इसके अलावा दो अरब 60 करोड़ लोगों को साफ-सफाई की मूलभूत सुविधाएं हासिल नहीं हैं।
भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन, उसके लिए मात्र 4 प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। विकास के शुरुआती चरण में पानी का अधिकतर इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता था। लेकिन, समय के साथ स्थिति बदलती गयी और पानी के नये क्षेत्र-औद्योगिक व घरेलू-महत्वपूर्ण होते गये।
भविष्य में इन क्षेत्रों में पानी की और मांग बढ़ने की संभावना है, क्योंकि जनसंख्या के साथ-साथ औद्योगिक क्षेत्र में भी तीव्र वृद्धि हो रही है। गौरतलब  है कि कई शहरों (बंगलूर, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई आदि) में अभी से पानी की किल्लत होने लगी है। दूसरी तरफ गांवों में पेयजल की समस्या भी कम विकट नहीं है। वहां की 90 प्रतिशत आबादी पेयजल के लिए भूजल पर आश्रित है। लेकिन, कृषि क्षेत्र के लिए भूजल के बढ़ते दोहन से बहुत से गांव पीने के पानी का संकट झेलने लगे हैं। दुनिया के ज्यादातर इलाकों में पानी की गुण्वत्ता में कमी आ रही है और साफ पानी में रहने वाले जीवों की प्रजातियों की विविधता और पारिस्थितिकी को तेजी से नुकसान पहुंच रहा है।
यहां तक कि समुद्री पारिस्थितिकी की तुलना में भी यह क्षरण ज्यादा है। इसमें यह भी रेखांकित किया गया है कि 90 फीसदी प्राकृतिक आपदाएं जल से संबंधित होती हैं और इनमें बढ़ोत्तरी हो रही है।
वन क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियों के बढ़ने, नदियों-जलाशयों के प्रदूषित होते जाने और बिगड़ते परिस्थितिकी संतुलन को लेकर काफी समय से चिंता जतायी जा रही है। न सिर्फ पर्यावरण के लिए काम करने वाले संगठन इसके लिए सरकारों पर दवाब बनाने की कोशिश करते रहे हैं, बल्कि विभिन्न अदालतें भी इनसे संबंधित कई निर्देश जारी कर चुकी हैं। मगर लगता है, सरकारें प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा को लकर गंभीर नहीं हैं।
कई बड़े शहरों में तालाबों के सूख जाने की स्थिति में उनके रख-रखाव की पहल करने की बजाय उन पर रिहाइशी कालोनियां या व्यावसायिक परिसर बना दिये गये हैं। तालाबों को इस तरह दफनाने के खिलाफ एक संस्था की अपील पर सर्वोच्च नयायालय ने कहा है कि, प्राकृतिक संसाधनों और परिस्थितिकी संतुलन की कीमत पर कोई भी विकास कार्य नहीं किया जाना चाहिए। यह संवैधानिक तकाजा है कि सरकारें पर्यावरण संवर्धन के कार्यक्रम चलायें और लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे वनों, नदियों, तालाबों आदि की रक्षा में अपना सहयोग दें।
बंगलुर में कई झीलें और तालाब मकानों में तब्दील हो गये हैं, जो पहले पानी से लबालब भरे रहते थे। इसी तरह राजस्थान के अनेक शहरों में झीलों-तालाबों को पाटकर भवन बना लिये गये हैं। ऐसे भी कई जलाशय हैं, जिनके किनारे सिकुड़ते चले गये हैं और पर्यटकों को लुभाने की मंशा से वहां रेस्तरां या सांस्कृतिक केंद्र खोल दिये गये हैं। दूसरे प्रदेशों के शहरों में भी ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। अमूमन जलाशयों के रख रखाव पर समुचित ध्यान न दिये जाने के कारण उनमें लगातार गाद भरती जाती है और वे उथले होते-होते सूख जाते हैं।
ऐसे में शहरी विकास प्राधिकरणों को लगता है कि उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है। और, निजी भवन निर्माताओं की पहल पर या कई बार वे खुद वहां रिहाइशी कालोनियां, व्यावसायिक केंद्र या सरकारी दफ्तर आदि बनाने का नक्शा पास कर देते हैं। इससे लोगों के रहने या कारोबार करने की कुछ और जगह तो जरूर बन जाती है। मगर, इससे परिस्थितिकी संतुलन को जो नुकसान पहुंचता है, उसकी भरपाई किसी और जरिए से नहीं की जा सकती है।
पूरे देश में पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। इससे पार पाना सभी सरकारों के लिए चुनौती है। पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षा जल संचयन पर बल देते रहे हैं। अगर तालाबों और झीलों जैसे पारंपरिक जल स्त्रोतों के संरक्षण-संर्वधन की बजाय उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े होते गए, तो इस संकट से निपटने की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं। कई राज्यों में प्राकृतिक जल स्त्रोतों की देख-रेख के लिए अलग से विभाग हैं। जलाशयों में बढ़ते प्रदूषण और गाद को रोकने के लिए वे योजनाएं बनाते हैं। मगर वे कागज पर ही रह जाती हैं।
राजस्थान के कुछ इलाकों में लोगों ने अपनी तरफ से कई तालाबों की साफ-सफाई करके उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाई है। इससे उन क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता बढ़ाने में मदद मिली है। ऐसे प्रयासों से राज्य सरकारों को  प्ररेणा लेने की जरूरत है। लेकिन, इसके साथ ही आम लोगों को भी पारंपरिक जल स्त्रोतों को बचाने के लिए आगे आना होगा।

अब हमें जब यह पता है कि जल संकट का विकट दौर चल रहा है तो हमंे यह समझना होगा कि जल का कोई विकल्प नहीं है, मानव का अस्तित्व जल पर ही निर्भर है, जल सृष्टि का मूल आधार है, जल है तो खाद्यान है, जल है तो वनस्पतियॉं हैं, जल का कोई विकल्प नहीं है, जल संरक्षण से ही पर्यावरण संरक्षण है, जल का पुरर्भरण करना ही जल का उत्पादन करना है और हमें  कुल मिलाकर ये समझना ही होगा कि जल है तो कल है। हमें यह मानना ही होगा कि मानव की जल की आवष्यकता किसी अन्य आवष्यकता से काफी महत्वपूर्ण है। हमें यह समझना और समझाना होगा कि जल सीमित है और विष्व में कुल उपलब्ध जल का 27 प्रतिषत ही मानव उपयोगी है।
लेखक
शशांक द्विवेदी


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