आज मेरे बाबा जी (दादा जी )
स्वर्गीय श्री गोरेलाल द्विवेदी की पुण्यतिथि है ,मै आज जो कुछ भी सिर्फ उनकी
वजह से हू ,मेरी वैचारिक प्रतिभा ,लेखन ,सफलता ,जीवन मूल्यों को समझने की द्रष्टि सब कुछ उन्ही का दिया हुआ है
(हमेशा लगता है कि वो नहीं होते तो मै जिंदगी में कुछ नहीं कर पाता)..मेरे जीवन का हर
हिस्सा उनके बगैर अधूरा है . वो एक बात कहते थे बबलू “बड़ा आदमी “ नहीं बनना है सिर्फ आदमी बनना है ,इंसान बनना है (यही उनके
जीवन मूल्य थे ).एक सामान्य गांव /कसबे में और बहुत ज्यादा पढ़े लिखे न होकर भी
बचपन से उन्होंने मुझे बनाया ,खड़ा किया ,विचार दिए,जीवन मूल्य दिए ,दिन में भी सपने देखना सिखाया . उस समय मेरे परिवार में शिक्षा
/लेखन /साहित्य का कोई माहौल नहीं था जबकि मुझे बचपन से ही
लिखने और बोलने से बहुत लगाव था.इसको जानकार उन्होंने मुझे हर कदम पर प्रोत्साहित
किया . इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने घर पर कहा कि मै पत्रकार बनना चाहता हूँ .घर
में सब लोगों ने विरोध किया लेकिन मेरे बाबा मेरे साथ थे बोले जो दिल कहे वही करो
(उस समय अमर उजाला और टेक्नीकल टूडे पत्रिका से
जुड़ा था ).उन्होंने मुझे सपने देखना और उनको जीना सिखाया . जीवन की विषम
परिस्तिथियों में भी धैर्य रखना और हँसना सिखाया . मुझे इस बात का बहुत ज्यादा
दुःख है कि वो बहुत जल्दी हमें छोड़ कर चले गए ,जब मैंने वास्तव में
लिखना/बोलना शुरू किया तो वो उसे देख नहीं पाए . उन्होंने मुझे जो कुछ दिया है
उसका ऋण मै इस जन्म तो क्या कई जन्मो तक नहीं चुका पाउँगा .आज वो मेरे पास नहीं है
लेकिन उनका एहसास हर समय मेरे पास है .ऐसी महान विभूति को जिसने मरा जीवन सुन्दर
बनाया ,को
मेरी तरफ से भावभीनी और विनम्र श्रधांजली....
उनको समर्पित यह कविता
“बाबा” कहते थे
बाबा ने बड़ा किया
बाबा ने ही खड़ा किया
बाबा ने ही विचार दिए
बाबा ने ही जीवन दृष्टी दी
“बाबा” कहते थे ‘बबलू ’
बड़ा आदमी नहीं बनना है
सिर्फ साधारण आदमी बनना है
जो दूसरों के काम आयें
ऐसा आदमी बनना है
जो पाया है ,उससे ज्यादा
देना है परिवार को
समाज को और इस देश को
उनको हमेशा रिश्ते
सहेजते देखा है
रिश्तों को रिश्ता
समझते देखा है
दूसरों के लिए सर्वस्व
अर्पित करते हुए भी देखा है
अहिंसा ,दया और सहनशक्ति
के साथ जीते देखा है
जिंदगी के हर पहलू में
हमेशा इन्ही को
आजमाते देखा है
कहते थे बबलू सपने देखों
सपने ही सच होते है
आगे बढ़ो ,रुको नहीं
ईश्वर सदा साथ है आदमी के
ऐसा ही विश्वास करते देखा है
कहते थे बबलू
सहारे न लो
सिर्फ सहारा बनों
ग़मों के सायों में
दुखों के भूचाल
में भी उन्हें
सदा मुस्कराते देखा है
सिर्फ रिश्तों के लिए
परिवार के लिए
उनको रोते देखा है
पुराने जमाने में भी
उन्हें आधुनिक होते हुए देखा है
परम्परा के साथ नयें विचारों
के संगम को देखा है
गृहस्थ के रूप में भी
संत को देखा है .
स्वरचित –शशांक द्विवेदी
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