कब नींद टूटेगी सरकार की ?
कब टूटेगा इरोम शर्मिला का अनशन ?
इस संघर्ष का अंत कब होगा ?
इस समय देश में राजनीतिक उपवास ,यात्राओ ,रथयात्राओ आदि का दौर चल रहा है | ये सब मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है ,अधिकांश टीवी चैनलों पर इसी से जुडी हुई खबरे, परिचर्चा दिखाई जा रही है | इन सब पर खूब राजनीती और जनता के पैसे का दुरूपयोग भी हो रहा है | पर इन सब के बीच उस ३९ साल की बहादुर लड़की इरोम शर्मीला पर किसी भी न्यूज़ चैनल की नजर नहीं जा रही जो पिछले १० सालो से उपवास पर है ,वो भी अपने लिए नहीं बल्कि अपने देश के नागरिको की सुरक्षा के लिए |
इरोम शर्मिला, मणिपुर की 39 वर्षीया बहादुर बेटी,मानवाधिकार कार्यकर्ता और कवयित्री,पिछले १० साल से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून जैसी जनविरोधी नीति के खिलाफ अनशन पर बैठी है| केवल हंगामा खड़ा करने के लिए नहीं, सूरत बदलने के लिए | पर पिछले १० सालों में कुछ भी नहीं बदला ,सरकार को न तो इरोम से कोई हमदर्दी है न ही उसके अहिसंक अनशन पर गंभीरता | उसका आन्दोलन भी अहिंसक और सत्याग्रही ही है| लेकिन उसके साथ कोई ''टीम शर्मिला'' नहीं है और ना ही कोई ''सिविल सोसायटी''| मीडिया को न मणिपुर से कुछ मिलने वाला है न इरोम शर्मिला के इस आन्दोलन से,सो वह भी दूर-दूर है | अन्ना हजारे के 12 दिन के अनशन ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया |सरकार भी जनांदोलन के इस दबाव में झुक गई| अन्ना के अनशन में लाखो लोग शामिल हुए मीडिया से लेकर बॉलिवुड तक इस हॉट मामले से दूर नहीं रहे| पल-पल की खबर टीवी पर सुबह से शाम तक दिखाई जा रही थी| लेकिन इसी दौरान सबकी आंखों और खबरों से वह इंसान क्यूं दूर रह गई जिसने पिछले १० से भी ज्यादा सालों से अनशन किया हुआ है| पर इतने लम्बे अनशन के बाद भी मणिपुर की आयरन लेडी इरोम चानू शर्मिला के हौसले आज भी बुलंद हैं|
भारत के पूर्वोत्तर में पचास के दशक से चले आ रहे कई पृथक्तावादी आंदोलनों की चुनौती से निपटने के लिए उस इलाके में सरकार ने सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून लागू किया है, जिसके तहत सेना की कार्रवाई किसी भी कानूनी जाँच परख के परे है। इरोम 2 नवंबर, 2000 से मणिपुर में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट, 1958, जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून भी कहा जाता है, को हटाए जाने की मांग पर अनशन करने के लिए बैठी हुई हैं| इस एक्ट के तहत मणिपुर में तैनात सैन्य बलों को यह अधिकार प्राप्त है कि उपद्रव के अंदेशे पर वे किसी को भी जान से मार दें और इसके लिए किसी अदालत में उन्हें सफाई भी नहीं देनी पड़ती है| साथ ही सेना को बिना वॉरंट के गिरफ़्तारी और तलाशी की छूट भी है| 1956 में नगा विद्रोहियों से निबटने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार सेना भेजी गई थी| तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने संसद में बयान दिया था कि सेना का इस्तेमाल अस्थाई है तथा छह महीने के अन्दर सेना वहां से वापस बुला ली जाएगी| पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है| सेना समूचे पूर्वोत्तर भारत के चप्पे-चप्पे में पहुंच गई| 1958 में ‘आफ्सपा’ लागू हुआ और 1972 में पूरे पूर्वोत्तर राज्यों में इसका विस्तार कर दिया गया| 1990 में जम्मू और कश्मीर भी इस कानून के दायरे में आ गया | आरोप है कि इसकी आड़ में वहां उपस्थित सेना ने कई हत्याएं और बलात्कार जैसे अपराधों को अंजाम दिया है| जरा-सा भी शक होने पर बिना कार्यवाही किए नागरिकों को मार दिए जाने के कई केस सामने आए पर हमेशा इस एक्ट ने सैनिकों को बचा लिया|
पिछले साल भारत के के गृहसचिव जीके पिल्लै ने कहा था की मणिपुर की आंदोलनकारी इरोम शर्मिला की एक दशक से भी ज्यादा समय से चल रही भूख हड़ताल सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण है।
शर्मिला का कहना है कि वह देश के दूर-दराज क्षेत्र की साधारण समाजसेवी है, इसलिए १० सालों से भूख हड़ताल पर बैठी होने के बावजूद सरकार उसकी मांग पर ध्यान नहीं दे रही है| मगर अब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि इस कानून में कुछ सुधार किया जाये| चिदंबरम के अनुसार वह एक साल से इसमें संशोधन के लिए प्रयासरत हैं, मगर मंत्रिमंडल में सहमति नहीं बन पाई है| इस कानून के दुरुपयोग की शिकायतों के बीच 2004 में एक आयोग का गठन किया गया था, लेकिन उसकी सिफारिशें लागू नहीं की गर्इं| पर अब गृह मंत्रालय चाहता है कि बिना वारंट घर की तलाशी का प्रावधान खत्म हो और किसी नागरिक की जान लेने का अधिकार भी इसे न हो| इसके अलावा कानून के दुरुपयोग के खिलाफ शिकायत की व्यवस्था हो, जो नागरिक सरकार के हाथ में हो | पर वास्तविकता यह है की सरकार इसको लेकर गंभीर नहीं है | सरकार अगर इस मुद्दे पर गंभीर होती तो यह असंभव था कि इक महिला १० साल से आमरण अनशन पर है और उसे जबरन जिन्दा रखा जा रहा है |हर एक साल बाद उसे सांकेतिक तौर पर छोड़ा जाता है फिर उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है |
इस एक्ट के विरोध में कश्मीर से लेकर पूरे पूर्वोत्तर राज्यों में आवाज उठी है पर यह भी सच है कि इस एक्ट के बिना इन राज्यों की हालत बहुत गंभीर हो सकती है| सीमा पर होने और मुख्य धारा से अलग होने की वजह से चीन और पाकिस्तान जैसे देश हमेशा इन राज्यों पर पकड़ बनाने के लिए नजर बनाए रखते हैं| अगर यहां से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटा दिया गया तो हो सकता है यह राज्य देश से अलग हो जाएं और आतंकवादी यहां अपना गढ़ बना लें|पर इस मुद्दे का समाधान तो करना ही पड़ेगा वरना यह राज्य कब तक सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून की आड़ में सेना का शोषण सहेंगे| आज एक इरोम खड़ी हैं कल को हो सकता है कई सौ इरोम हो जाएं|
इरोम पिछले १० साल से अनशन पर है लेकिन मीडिया उसकी तरफ ठीक से देख भी नहीं रहा है| ये मीडिया की ही ताकत थी की अन्ना हजारे का आन्दोलन सफल रहा| मीडिया को भी उत्तर पूर्व के लोगो की भावनाओ को समझकर अब उनकी समस्याओ को देश के सामने रखना चाहिए |
इरोम चानू अभी तक अपने मकसद में कामयाब तो नहीं हो पाई हैं लेकिन उन्होंने दो वर्ल्ड रिकॉर्ड जरूर बनाए हैं| पहला सबसे अधिक दिनों तक भूख हड़ताल करने का और दूसरा सबसे ज्यादा बार जेल जाकर रिहा होने का| इस कानून को वापस लेने की मांग के चलते शर्मिला को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हो चुके हैं और विभिन्न सामाजिक संगठनों तथा नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है| इरोम के विचारों से अनेक लोग मतभेद रख सकते हैं, परंतु उन्होंने विरोध का जो तरीक़ा अपनाया है वह वास्तव में किसी आदर्श से कम नहीं है।
शशांक द्विवेदी
(स्वतंत्र लेखक और पत्रकार )
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