Wednesday, October 5, 2011

कॉरपोरेट चिंताओ के बजाय बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये


कॉरपोरेट चिंताओ के बजाय बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये 

तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता और आईआईटी को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो चुकी है | इस बार इन्फोसिस के मानद चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति ने सार्वजानिक तौर पर पैन आईआईटी सम्मेलन में सैकड़ों पूर्व आईआईटी छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि हाल के वर्षों में आईआईटी में प्रवेश पाने वाले छात्रों की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है , और इसके लिए कोचिंग संस्थानों को जिम्मेदार है| असल में उनकी इस बात के कई मायने है ,पहली तो यह है कि उनकी इस चिंता के पीछे इंडस्ट्री को कार्य कुशल इंजिनियर न मिल पाना है | पिछले दिनों  उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के गिरते स्तर पर उद्योग एवं व्यापार जगत की सर्वोच्च संस्था फिक्की ने भी चिंता जताते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखा था। जिसमें कहा गया था कि उद्योग जगत का 65 फीसद हिस्से को उच्च एवं तकनीकी शिक्षा से सही स्नातक नहीं मिल रहे है और ही इन कालेजों से निकलने वाले छात्र उद्योगपतियों की कसौटी पर खरे उतर पा रहे है।यह पहली बार नहीं है जब किसी ने आईआईटी को लेकर इस तरह कि टिपण्णी कि है इसके पहले भी वरिष्ठ शिक्षाविद यशपाल और जयराम रमेश ने आईआईटी पर तल्ख टिप्पणियाँ कि थी | इसके पहले भी आईआईटी के पूर्व छात्र और कॉरपोरेट हस्ती एनआर नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक बेटर इंडिया, बेटर वर्ल्ड में ऐसी चिंता व्यक्त कर चुके है|
वास्तव में अगर ध्यान से देखा जाये तो उनकी चिंता पूरी तरह से कॉरपोरेट से जुड़ीं हुई है | उनका तकनीकी शिक्षा के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष से कोई  लेना देना नहीं है तभी वह कह रहे है कि हमें ईट स्नातकों को कार्यकुशल करना पड़ता है | उनका सीधा सा मतलब है कि ईट ऐसे स्नातक पैदा करे जिनका कॉरपोरेट के लोग पूरा दोहन कर सके |
आज देश में  ऐसी स्थिति है कि बुनियादी तकनीकी और विज्ञानं से कोई नहीं जुडना चाहता| आईआईटी के अधिकांश छात्र बीटेक करने के बाद अमेरिका में बसना चाहते हैं या किसी कॉरपोरेट संस्था या प्रशासनिक सेवा में कार्य करना पसंद करते हैं| कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है| देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक  को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? शिक्षा व शोध के अभावों को भूलकर कई बार कहा जाता है कि आईआईएम, आईआईटी में काफी तनख्वाह दिलवाने वाली पढ़ाई होती है। दूसरे लोग भी यह देखते हैं कि किस संस्थान के छात्रों को कितने पैसे की नौकरी ऑफर हुई।यह गलत सोच है, इससे निकलने कीजरूरत है।
अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है।
विज्ञान में उच्च स्तरीय शोध के लिए जो संस्थान जाने जाते हैं, उनमें प्रमुख रूप से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बंगलुरु, टाटा फंडामेंटल रिसर्च इंस्टीटूटतथा भाभा रिसर्च इंस्टीटूट जैसे केंद्रों का उल्लेख किया जा सकता है। आईआईटी का नाम इसमें नहीं आता। यहां शोध करनेवाले विद्यार्थी आईआईटी डिगरीधारक नहीं, बल्कि उन तमाम विश्वविद्यालयों से निकले होते हैं, जो अभावों से जूझते हुए भी शोध को आगे ले जानेवाले हमारे सबसे बड़े स्रोत हैं। दुखद है कि इनकी गुणवत्ता के विकास के लिए हमने कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई।
आर्थिक उदारीकरण  के बाद जब से उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण होने लगा है, कॉरपोरेट जगत के लोग ही यह तय करते हैं कि अमुक विश्वविद्यालय या शोध संस्थानवर्ल्ड क्लासहै। उन्होंने ही तय किया है कि आईआईटी का विद्यार्थीवर्ल्ड क्लासहै। उनके अनुसार आईआईटी का महत्व इसलिए है कि वह अमेरिका और दूसरे बड़े औद्योगिक राष्ट्रों के लिए आवश्यक वर्क फोर्स मुहैया कराता है। आज इसीलिए बुनियादी विज्ञान विषयों की उपेक्षा कर सॉफ्टवेयर प्रशिक्षण को महत्व दिया जा रहा है। जबकि अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा, पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा। चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए।वर्ल्ड क्लासबनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।
जिस बाजार आधारित व्यवस्था के पीछे हम दौड़ रहे हैं, उसमेंवर्ल्ड क्लासवही माना जाएगा, जो कॉरपोरेट हित के लिए काम करता हो। कॉरपोरेट व्यवस्था के समर्थक विशेषज्ञ उसीमॉडलको बनाने में जुटे हैं, जिससे कॉरपोरेट को लाभ होता है।
यह निराशाजनक ही है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सारी अपेक्षाएं मात्र आईआईटी और कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों से ही होती है। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। इसी प्रकार, देश भर के छात्रों का दबाव दिल्ली के कुछ गिने-चुने महाविद्यालयों पर होता है। देश में इस समय 25 हजार से भी अधिक महाविद्यालयों के विकास के लिए कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर संपूर्ण विकास की ओर हमें ध्यान देना होगा। कॉरपोरेट निर्धारित वर्ल्ड क्लास मापदंडों के पीछे भागकर हमें उसके लिए राष्ट्र की समस्याओं के अनुकूल मापदंड बनाने होंगे।
नई तकनीक के विकास में जो मौलिक काम हो रहे हैं, उन्हें बढ़ावा देना होगा। देश में बड़ी संख्या में छोटे-छोटे, लेकिन उपयोगी आविष्कार हुए हैं, उन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है। ऎसे आविष्कारों के बारे में अकसर छपता रहता है, लेकिन उस ओर सरकार कम ध्यान देती है, जिससे नई तकनीक के विकास को ज्यादा बल नहीं मिलता है। भारतीय समाज में आज तकनीकी विकास के अनुकूल माहौल बनाने की जरूरत है| आज तकनीकी शिक्षा के समग्र विकास कि जरुरत है पूरे उच्च शिक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए सरकार को पहल करनी पड़ेगी |साथ में इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति भी होनी चाहिए जिसे  कड़ाई से पूरे देश में लागू किया जाये तभी हम वास्तविक अर्थों में तकनीकी शिक्षा को एक नयी दिशा दे पायेगे | ये काम यथार्थ के ठोस धरातल पर होना चाहिए |

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