Sunday, July 1, 2012

रिश्तों की बुनियाद और लालच का पहाड़ -कविता संग्रह


रिश्तों की बुनियाद
प्रेम है ,पैसा नहीं
जिंदगी है ,उलझन नहीं
रिश्तों की बुनियाद
हिलती है
और कभी –कभी 
बिखर भी जाती है
टूट भी जाती है
जब “अहम” बीच में आता है
मै बड़ा या तू बड़ा
बीच में आता है
जब ‘मै ही ‘ बीच में आता है
तब ये बुनियाद हिलती है
भूकंप आता है
रिश्तों के बीच
कई बार आता है ये भूकंप
जिंदगी में
कभी हलके झटके
देता है
और बताता है कि
अभी भी संभल जाओं
अभी भी समय है ,
और कई बार
जोर के झटको से
‘बुनियाद ‘टूट जाती है
नष्ट हो जाती है
रिश्तों की बुनियाद
इसके पहले की
जोर का झटका  आये
अभी भी संभल जाओ
प्रेम को अपनाओ
जिंदगी को अपनाओ .
दुनियाँ
ऊपर से रंगीन
लेकिन नीचे से
खोखली है दुनियाँ
आदमी को आदमी से
दूर करती है दुनियाँ
बिखरा जीवन ,बिखरा मन
देती है ये दुनियाँ
अपनों को परायों में
बदल देती है ये दुनियाँ
रंगीनियों के समुन्दर में
गम देती है ये दुनियाँ
जज्बातों को बेरहमी से
कुचल देती है ये दुनियाँ
हर पल ,हर क्षण ,नया रंग
दिखती है ये दुनियाँ
पुराने चेहरों को
सदा भुलाती है ये दुनियाँ
उगते हुए सूरज
को ही अपनाती है ये दुनियाँ
जो ढल गया उसे और भी
जख्म देती है ये दुनियाँ
खूबसूरत दिखती हुई
बदसूरत है ये दुनियाँ  


3
 लालच का पहाड़

मेरी बालकनी से

रोज पहाड़ दिखता है

ख़ूबसूरत ,अविचल ,

कठोर और तना हुआ

पेडों से ढका हुआ
सोचता हूँ कब तक
खड़ा रहेगा ये ?
कब तक
जब तक किसी के मन में
लालच का पहाड़
नहीं बन जाता
तभी तक
या जब तक
खनन माफिया की नजर
से बचा है
जिस दिन नजर पड़ेगी
ठीक से
लालच का पहाड़
बनेगा उसी दिन
तब ये टूटेगा ,गिरेगा
संघर्ष करेगा अपने अस्तित्व से
लेकिन शायद पहाड़ की ऊंचाई
लालच की उचाई से
कम पड़ गयी
इसीलिये पहाड़ टूट गया
गिर गया
अब एक नया पहाड़ बनेगा
लालच का पहाड़
जो कभी नहीं गिरेगा
कभी नहीं टूटेगा
वो सिर्फ बढ़ेगा
उसकी ऊंचाईयां बढ़ेगी
हर पल ,हर क्षण
फिर कई और पहाड़ टूटेगे
क्योंकि इन्हें तोड़कर
बनेगा लालच का पहाड़
४ सामान बराबर सम्मान
हम हमेशा
सामान बराबर सम्मान चाहते है
या मानते है
पद है तो सम्मान
गाड़ी है ,बंगला है
तो सम्मान
रईसी है ,अमीरी है
तो सम्मान
लेकिन क्या सिर्फ
आदमी का कोई सम्मान है
क्या गरीब ,बेसहारा आदमी
का कोई सम्मान है
सामान बराबर सम्मान की दुनियाँ में
आदमी कहीं खो गया है , 
५   जिंदगी

जिंदगी नाम है

जीने का

कुछ पाने का,कुछ खोने का

कुछ देने का
जो पाया है ,उससे ज्यादा देने का
सपने देखने का
और उन्हें सच कर दिखाने का
फिर शायद नहीं मिलेगी
आज मिली है इसलिए जी लो 
स्वरचित  -शशांक द्विवेदी 

No comments:

Post a Comment