Tuesday, July 3, 2012

विकास की नींद -कविता संग्रह


विकास की नींद  

कब जागेगें हम
विकास की नींद से
विनाश की ओर है
बढ़ते कदम
क्या दिख नहीं रहा
या हम देखना नहीं चाहते !!
शायद हम देखकर भी
जान कर भी
अनजान बन रहें है
बेहोशी में जी रहें है
ये विकास ही
विनाश की आहात है
हमने भुला दिया इस प्रकृति को
जिसने हमें ,
सब कुछ दिया
आगे भी देती ही रहेगी
लेकिन जब हम
उसके पास भी ,कुछ बचने दे
जमीन को हमने बंजर बना दिया
नदियों ,तालाब ,कुओं को सुखा दिया
जंगल और पहाड़ हमने नष्ट कर दिए
और बना दिया
कंक्रीट का संसार
मशीनों का संसार
आभासी दुनियाँ
हमनें विकास कर लिया
यही भ्रम है
सबमें
यही डुबोयेगा
इस दुनियाँ को
इस मनुष्यता को
अभी भी समय है जागने का
सोचने का
पर ,कब जागेंगे हम
विकास की नींद से  
कथित विकास के बाद
आज पेड़ को देखा
पत्तियों को देखा ,
भवरों और तितलियों को देखा
खुशियों को देखा
लेकिन अब विकास दिख रहा है
कथित विकास के बाद
क्या पेड़ ,पत्तियां
फूल ,भवरें ,तितलियाँ
दिखेगी
झूठी खुशी ,आभासी खुशी
मिलेगी इस
विकास के बाद
मन का चैन
और चेहरे की मुस्कान
भी मिटेगी इस विकास के बाद
इस कथित विकास की बेहोशी से
कब जागेंगे हम
यही विकास
हमारी सदियों का
हमारी आगे की पीढीयों का
सर्वनाश करेगा .

आदमी और सदी का संकट
आदमी बोलता कुछ और है
करता कुछ और है
और सोचता कुछ और है
यही संकट है
इस सदी का
इस पीढ़ी का
यह संकट दूर नहीं होगा
ये बढ़ेगा
और नष्ट करेगा
समूची मानव जाति को
मानव सभ्यता को
क्योंकि जब
आदमी ही
आदमी के
काम नहीं आएगा
तो ये संस्कृति
नष्ट होगी
परस्परता में ही जीवन है
बोलने ,सोचने और करने
की एकरूपता में ,समरसता में
ही जीवन है
इस संकट को दूर करना होगा
आदमी को आदमी
बनना होगा
जो जिन्दा है सिर्फ अपने लिए
उन्हें दूसरों के लिए
भी जीना होगा
मानव सभ्यता के लिए
कुछ करना होगा
परस्परता में ही जीना होगा
आदमी को आदमी बनना होगा .

नोट :आदमी की जगह इंसान ले सकते है
रुकना होगा
भाग रहा है
आदमी
खुद से ,परिवार से
और समाज से भी
वो सिर्फ भाग रहा है
बिना मंजिल के
भाग रहा है
उसे क्या चाहिए
पाता नहीं
जाना कहाँ है
पता नहीं
उसके पास क्या है
ये भी पता नहीं
वो सिर्फ भाग रहा है
अपने मन से
अपनी आत्मा से
भी भाग रहा है
इस जन्म के साथ –साथ
कई जन्मो से भाग रहा है
अब उसे रुकना होगा
कुछ पाने के लिए रुकना होगा
खुद को जानने के लिए
रुकना होगा
अब नहीं रुके तो
फिर भागना होगा
अगले कई जन्मो तक
रुकना होगा ,स्थिर होना होगा
स्वयं में ,अपनी आत्मा में
तभी प्रकाश का
दिया जलेगा ,
नहीं तो अँधेरे रास्तों में ही
भागना होगा
रास्तों और मंजिल के बिना
भागना होगा  
रुकने से ही
अस्तित्व समझ में आएगा
प्रकृति के साथ सह –अस्तित्व
समझ में आएगा
जीवन का मूलमंत्र
समझ में आएगा
तभी खुद ,परिवार
और समाज भी
समझ में आएगा .
आदमी का दर्द
कौन समझेगा
आदमी के दर्द को   
परिवार में और रिश्तों में
सबकी उम्मीदें
सबकी इच्छाएं पूरी
करते करते
जिंदगी बीत रही है
पर उसके सपनों को
कौन समझेगा
कौन पूरी करेगा
उसकी इच्छाएं
वो तो अकेला है
परिवार में
आदमी कम मशीन ज्यादा है
सुबह से शाम तक
और रत से दिन तक
सिर्फ जीता है
परिवार की उम्मीदों के लिए
परिवार के सपनों के लिए
लेकिन उसके सपनों का
क्या होगा
आज वो भी बच्चा
बनना चाहता है
पर कोई बड़ा तो हो
आज वो फिर से
जीना चाहता है
उन्मुक्त होकर
बिना बोझ के
लेकिन परिवार और रिश्तें
उसको देते है समस्याएं
और वो देता है समाधान
वो मशीन है
समस्यायों को सुलझानें की
अब उसमे भावनाएं
नहीं बची
जो थी
वो मर गयी
बिना अभिव्यक्ति के
अब वो
जियेगा तो जरुर
लेकिन
आदमी की तरह नहीं
बल्कि मशीनों की तरह !!
लम्हा –लम्हा
लम्हा लम्हा
वक्त गुजर जायेगा
उसके आसुओं का
सैलाब भी  सूख जायेगा
जिंदगी जीने के लिए
तिनका भी सहारा
बन जायेगा
अंधेरों के इस दौर में
उजाला भी जरुर आएगा
नाकामियों के इस दौर में
हौसला ही काम आएगा
लम्हा –लम्हा
वक्त गुजर जायेगा
कुछ कदम तो बढ़ा
जमाना तेरे पास आएगा
जो दूर हुए थे ,
तेरी नाकामियों को देखकर
वो पास आयेगें तेरी
बुलंदियों को देखकर
लम्हा –लम्हा
वक्त गुजर जायेगा .
स्वरचित –शशांक द्विवेदी




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