शशांक द्विवेदी ॥
नवभारतटाइम्स(NBT) में 03/07/2012 को प्रकाशित
दुनिया के ताकतवर व समृद्ध देशों की सफलता का एक बड़ा कारण वहां की उच्च शिक्षा भी है। विकास से जुड़े मामलों पर जब भी एशिया की चर्चा होती है तो चीन और भारत की तुलना स्वाभाविक रूप से की जाती है। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय आर्थिक पत्रिका द इकॉनोमिस्ट ने एशिया की दोनों प्रमुख ताकतों का विकास के विभिन्न मुद्दों मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, तकनीकी विकास आदि का तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह था कि उच्च शिक्षा के हर स्तर और आयाम में चीन भारत से बहुत काफी आगे चला गया है। भारत जिस स्तर पर आज है, उसे चीन बहुत साल पहले हासिल कर चुका है।
आगे निकला चीन
1949 में चीन और 1947 में भारत की उच्च शिक्षा का रूप बहुत सीमित था। 1949 में चीन में 205 विश्वविद्यालय और 1947 में भारत में 26 विश्वविद्यालय थे। 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था में आई तेजी के बाद कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को भी उभरने और विकसित होने को मौका दिया गया। आज चीन में दो हजार से अधिक विश्वविद्यालय और संस्थान उच्च शिक्षा, तकनीक ,प्रबंधन और चिकित्सा की गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई के लिए जाने जाते हैं। यहां पढ़ने के लिए विदेशी छात्र लगातार आकर्षित हो रहे हैं। चीन के उच्च शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2011 में वहां विदेशी छात्रों की संख्या 2 लाख 60 हजार से अधिक थी। पिछले 20 वर्ष में चीन की सरकार ने अपने कुछ विश्वविद्यालयों जैसे पेइंचिंग, सिनहुआ, शंघाई, जिओतांग और फूदान आदि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खड़ा किया, जिनकी विश्व रैंकिंग है।
और पिछड़ा भारत
इधर भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर नजर डालें तो शिखर पर कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, एम्स और एनआईटी जैसी 100 संस्थाएं हैं, जिनमें मुश्किल से एक लाख विद्यार्थी पढ़ते हैं। देश में कुल 538 विश्वविद्यालय और 26,478 उच्च शिक्षा संस्थान हैं, जिनमें 1 करोड़ 60 लाख नौजवान भीड़ की तरह पढ़ने-लिखने की सिर्फ कवायद करते हैं। ग्रॉस एनरोलमेंट के लिहाज से यह 12 प्रतिशत है जो ग्लोबल एवरेज से काफी कम है। केंद्र सरकार ने 2020 तक 30 प्रतिशत एनरोलमेंट का लक्ष्य रखा है। देश में संस्थानों की भीड़ बढ़ाने के लिए पिछले 30 वर्ष में बहुत सारे डीम्ड विश्वविद्यालय भी खुले हैं, जिनका अपना कोई मानक और स्तर नहीं है। यही वजह है कि तकनीकी शिक्षा के मौजूदा सत्र में इस बार पूरे देश में ढाई लाख से ज्यादा सीटें खाली रह गईं। देश के 153 विश्वविद्यालयों तथा 9,875 कॉलेजों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे नहीं हैं।
उधर चीन ने पिछले दो-तीन दशकों में किए गए बदलावों से अपनी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को बदल दिया है। वहां तकनीकी उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या वृद्धि के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता में भी उत्तरोत्तर सुधार किया गया। 1990 के दशक के मध्य में चीन ने प्रॉजेक्ट 2011 के अंतर्गत विश्व स्तरीय विश्वविद्यालयों, उच्च शोध संस्थानों और तकनीकी हब की बड़ी श्रृंखला तैयार की। चीन को मालूम है कि आर्थिक सर्वश्रेष्ठता बेहतर तकनीकी शिक्षा, शोध और विकास पर ही निर्भर है। 1995 से 2005 के बीच चीन में डॉक्टरेट करने वालों की संख्या पांच गुनी बढ़ गई। भारत में हर साल करीब पांच हजार और चीन में 35 हजार छात्र पीएचडी करते हैं। केवल डॉक्टरेट के मामले में ही नहीं बल्कि शोध पत्रों तथा पेटेंट के मामले में भी हम चीन से काफी पीछे हैं। संसद की प्राक्कलन समिति ने पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 17 वीं रिपोर्ट में देश में उच्च शिक्षा की हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है। सैम पित्रोदा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (एनकेसी) ने भी यह स्वीकार किया कि भारत में उच्च शिक्षा का संकट काफी गहरा है।
विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा की तीन लोकप्रिय रैंकिंग में से एक है क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग। पिछले दिनों आई इस रैंकिंग में दुनिया के शीर्षस्थ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा संस्थान का नाम नहीं है। यह रैंकिंग किसी संस्थान में होने वाले शोध की गुणवत्ता, शैक्षणिक प्रतिष्ठा और नियोक्ताओं की सामने उसकी डिग्री की साख के आधार पर किया जाता है। वैश्वीकरण और खुली अर्थव्यवस्था के इस दौर में विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा तो होगी ही। एशिया के 200 शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों की सूची में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया और ताइवान का प्रभुत्व दिखाई देता है, जिनके क्रमशः 57, 40 और 35 विश्वविद्यालयों व संस्थानों को इस सूची में स्थान मिला है। भारत की सिर्फ पांच संस्थाओं को इसमें स्थान मिला है। एशियाई सूची में लगभग आधे स्थान चीन और दक्षिण कोरिया को मिलना भारत के लिए एक बड़ा सबक है, क्योंकि 63 वर्ष पूर्व तीनों देश उच्च शिक्षा में लगभग एक ही स्तर पर आंके जाते थे।
नई नीति चाहिए
आज विश्व में जो उच्च शिक्षण संस्थान शिखर पर आसीन हैं, उनकी रणनीति से हमें कुछ सीखना होगा। हमें इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि क्या भारत अगले 20 सालों में विश्व स्तर के 100 शीर्षस्थ शिक्षण संस्थान बना सकता है। उच्च शिक्षा का संकट किसी भी लोकतांत्रिक देश का सबसे गहन संकट होता है। यह संकट भारत के भविष्य को सीधे-सीधे प्रभावित करेगा। मौजूदा नीतियों के आधार पर विश्वस्तरीय संस्थान खड़े करना असंभव है। सिर्फ कुछ आईआईटी और आईआईएम के भरोसे हम विकसित राष्ट्र का सपना सच नहीं कर सकते। देश में तकनीकी शिक्षा की कुल सीटों में से 95 प्रतिशत सीटें निजी संस्थानों में हैं। बाकी 5 प्रतिशत आईआईटी, एनआईटी, आईआईआईटी में हैं जहाँ एडमीशन के लिए छात्रों में होड़ है। हमें विश्वस्तरीय संस्थान खड़े करने के लिए एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की जरूरत है, जो गुणवत्ता ,पारदर्शिता ,स्वायत्तता, विकेंद्रीकरण, जवाबदेही, विविधता और विश्व दृष्टि जैसे मूल्यों पर आधारित हो। देश के युवाओं को ऐसा तकनीकी ज्ञान मिले, जिसे हम देश की परिस्थितियों के हिसाब से प्रयोग कर सकें।
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