Monday, April 29, 2013

दो पाटों के बीच पिसता है "आदमी"

अधिकांश लोगों के जिंदगी से जुड़ी मेरी यह कविता 

दो पाटों के बीच 
पिसता है आदमी 
एक तरफ है 
उसका परिवार यानि वो और उसकी पत्नी 
दुसरी तरफ है 
बूढ़े माँ –बाप का परिवार 
उम्मीदें बहुत है दोनों तरफ 
आवश्यकताएं बहुत है दोनों तरफ 
आदमी सिर्फ एक है 
बीच में
अंतर्द्वंद है मन में क्या करें
और क्या न करें
कैसे संतुलन बैठाएं
पत्नी और माता –पिता के बीच
क्योंकि एक के साथ
होनें का मतलब
दूसरें के साथ न होना है
वो बेटा बनें या पति
दोनों भूमिकाएं विपरीत है
एक दूसरे के
परिवारों के साथ इस द्वन्द में
उसकी भावनाओं को
उसकी सोच को
कौन समझेगा ?
वो तो सिर्फ बेचारा है
अकेला है
और लगता है कि
अकेला ही रहेगा ..
स्वरचित – © शशांक द्विवेदी

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