Tuesday, April 16, 2013

“पुत्रीवती भव” का आशीर्वाद !!!- एक कविता


1 “पुत्रीवती भव” का आशीर्वाद !!!
“पुत्रीवती भव” का आशीर्वाद क्या कोई देता है ?
या किसी ने दिया है पुरातन ,सनातन समाज में
क्या “पुत्रीवती भव” शब्द चलन में है या पहले कभी था ,
पुत्र की श्रेष्ठता का ज्ञान बघारते
धर्मों ने ग्रंथो ने
जितना नुकसान किया है
अन्याय किया है
बेटी के साथ
पुत्री के साथ
उतना शायद किसी ने नहीं किया
“देवी “ सिर्फ मंदिरों में पूजी जाती है
लेकिन घरों में नही
घर में तो “देवी “
एक बोझ है
पुत्री की श्रेष्ठता हमेशा
सवालों में थी और है
जबकि पुत्र तो
जन्म से ही श्रेष्ठ है
वंश बढ़ाने वाला है
मोक्ष भी दिलाने वाला है
यही सार तत्व है
ग्रंथो का धर्मों का
यही सत्य सदियों से
चला आ रहा है
इस समाज में जहाँ
सिर्फ “पुत्रवती भाव “
की परंपरा रही है
और शायद रहेगी भी
क्योंकि देवी तो चाँद मंदिरों में है
जबकि घर में तो पुत्र ही श्रेष्ठ है ...
काश ! लड़का हो जाता
“पुत्रवती भव”
के आशीर्वाद के बीच
जब पुत्री का जन्म होता है
एक सन्नाटा सा पसर जाता है
मन के भीतर
और मन के बाहर भी
लगता है जैसे
सर पर कोई बोझ आ गिरा
या कोई “पराया “
जबरन परिवार में घुस आया
जिसे निकाल नहीं सकते
पालना ही होगा मजबूरी में
चेहरे पर कृत्रिम हँसी
भी दिखानी है परिवार को ,समाज को
लेकिन दिल तो रो रहा है
एक टीस है
दिल में दिमाग में
कि ये क्या हो गया
काश ! आशीर्वाद लग जाता
काश ! लड़का हो जाता
ये दर्द संभलता नहीं है
छलकता है कई बार
मन में ,चेहरे पर
लेकिन फिर विकल्प दिखता है
अगले प्रयास में
कि शायद
अब “पुत्रवती भव” का आशीर्वाद फलेगा ...  
 क्या बेटी माँगा है
क्या ‘ भगवान ’ से बेटी माँगा है
क्या मंदिरों में बेटी माँगा है
क्या बेटी पाने के लिए अनुष्ठान किये है 
“ नही ”...कभी नहीं
क्योंकि बेटी तो आती है बिन माँगें
और “ बेटे “के सौभाग्य के लिए
करना पड़ता है भगवान से फ़रियाद
लड़का कीमती है तभी तो उसके लिए
मंदिर जाते है ,अनुष्ठान करतें है
जो करना पड़े वो सब कुछ करते है ,
क्योंकि वो तो वंश चलाएगा
वही तो वंश बढ़ाएगा
परिवार का अस्तित्व सुरक्षित रखेगा
इसीलिये तो लड़का सौभाग्य
और लड़की दुर्भाग्य !!
बोझ और पुरस्कार
बाप का दर्द बढ़ता है
जब बेटी बढ़ती है ,जवान होती है
लेकिन उसी बाप की
खुशी बढ़ती है
जब बेटा बढ़ता है
जवान होता है
ये दो मनोदशाएँ है एक बाप की
और समाज की भी
बेटी बोझ और
बेटा पुरस्कार नजर आता है
बेटी की जवानी बोझिल
और वर्जनाओं से भरी हुई
बेटे की जवानी
वर्जनाओं को तोडती हुई
कितना फर्क है सोच का
संस्कार का ,कर्तव्यों का
अपनी ही संतानों के बीच
ये सोच सदियों से है
और शायद सदियों तक रहेगी
लड़की कल भी बोझ थी
और शायद आगे भी बोझ रहेगी !!
बेटे की इच्छा
बेटे की इच्छा होना ठीक है
लेकिन जूनून होना अपराध
ये अन्याय है
उस बेटी के प्रति
जो जन्मी है
बेटे की चाह के बावजूद
वो तो जन्मी है
नियति से ,प्रकृति से
उसका क्या सरोकार
किसी की इच्छाओं से
किसी के जूनून से
वो तो न्याय चाहती है
अपने लिए
अपने अस्तित्व के लिए
अपने जीवन के लिए
पर क्या उसे न्याय मिलेगा
इस दुनियाँ में
जहाँ  सदियों से
पुत्र ही श्रेष्ठ है!!
......
ये जो फर्क दिखता है
बेटे और बेटी के लिए इच्छाओं में
ये फर्क सोच का है
सदियों की सोच का है
पुत्रों की श्रेष्ठता का है
सदैव “पुत्रवती “भव के
आशीर्वाद का है   
जो दिखता है वेदों में ,ग्रंथो में ,धर्मों में भी
जहाँ पुत्र ही श्रेष्ठ है
पुत्र ही विकल्प है
वंश का ,परिवार का
“पुत्रीवती “ का आशीर्वाद
सदियों से चलन में ही नहीं था
नहीं है और शायद आगे भी नहीं होगा ,
इसी इच्छा को सोच को
परिष्कृत किया है हमने
समाज ने
सदियों से
तो आज कैसे बदलेगी
ये परंपरा ,ये सोच
बेटे की इच्छा की
जब तक यही इच्छा
पुष्पित ,पल्लवित होगी
बेटी के साथ
तो अन्याय ही होगा
विचारों के स्तर पर भी
और जीवन के स्तर पर भी !!
 स्वरचित –शशांक द्विवेदी

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