Saturday, June 1, 2013

धर्म और लोकतंत्र

असग़र वजाहत
हाल ही में बसपा के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क सदन से उठ कर चले गए थे क्योंकि वहां वंदे मातरम् की धुन बज रही थी। अगर किसी का इस्लाम इतना कमजोर है कि वह वंदे मातरम् की धुन से खंडित हो जाता है तो उसे पहले अपने धर्म को पक्का करने पर ध्यान देना चाहिए। बर्क को यह भी मालूम होना चाहिए कि वे किसी इस्लामी देश में नहीं बल्कि संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, जहां मुसलमान कई मुसलिम देशों से ज्यादा सुरक्षित और सम्मानित हैं। बर्क साहब अगर वंदे मातरम् की धुन को इस्लाम-विरोधी मानते हैं तो क्या वे हिंदू-बहुल देश में रहने को गैर-इस्लामी नहीं मानते, जबकि अब भी दुनिया में इस्लामी देश हैं जहां जाया जा सकता है। बर्क साहब का इस्लाम हिंदू वोट लेने और सांसद हो जाने की अनुमति तो देता है, देश और संसद की आचार संहिता पर विश्वास करने की अनुमति नहीं देता यह आश्चर्य की बात है। धर्म की आग पर रोटियां सेंकने वाले ही समाज में द्वेष, घृणा और अलगाव पैदा कर रहे हैं, क्योंकि संभवत: उन्हें अपने इन कृत्यों से धर्मांध मतदाताओं का समर्थन मिल जाता है। उन्हें शायद नहीं मालूम कि वे मुसलमानों का जितना अहित कर रहे हैं उतना कोई और नहीं कर रहा है।

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