Monday, June 24, 2013

आरटीआई से क्यों डर रहें है राजनीतिक दल

दैनिक जागरण और DNAमें शशांक द्विवेदी का  लेख 
पिछले दिनों केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का  ऐतिहासिक फैसला किया ।  इस फैसले से सभी राजनीतिक दलों में हलचल मच गयी है ,कोई भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है । सभी दल सीआईसी के इस फैसले के विरुद्ध अपनी अपनी दलील दे रहें है । बीजेपी देश में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए बड़ी बड़ी बात करती है लेकिन आरटीआई के दायरे में आना उसे मंजूर नहीं है । कांग्रेस आरटीआई को लाने का श्रेय लेती है लकिन खुद इसके दायरे से बाहर रहना चाहती है । जेडी(यू), एनसीपी और सीपीआई (एम) सहित सभी प्रमुख दल इस फैसले का  पुरजोर विरोध कर रहें है । इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र सामने आ रहा है  ।
राजनीतिक पार्टियों को डर सता रहा है कि आरटीआई के दायरे में आने से फंड को लेकर कई तरह के सवाल पूछे जाएंगे। राजनीतिक पार्टियों को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे के नाम पर मोटी रकम मिलती है। हालांकि, 20 हजार से ज्यादा की रकम पर पार्टियों को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को सूचना देनी होती है। चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म(एडीआर) का कहना है कि अब चालाकी से पार्टियां 20 हजार से कम की कई किस्तों में पैसा ले रही हैं। ऐसे में पता नहीं चलता है कि किसने कितनी रकम दी है और क्यों दी है।
असल में सत्ता में रहने वाली पार्टी फंड के दम पर कॉर्पोरेट घरानों को जमकर फायदा पहुंचाती है। सरकार दृराजनीतिक दलों-कॉर्पोरेट घरानों का गठजोड़ नयें तरह के भ्रष्टाचार को जन्म देता है । पिछले दिनों कोयला घोटाला में  सस्तें  में कोल ब्लॉक आवंटन इसी तरह का एक मामला है । आवंटित किए गए कोल ब्लॉक  जिन लोगों को मिले है उनसे कांग्रेस और बीजेपी, दोनों पार्टियों को चंदा के नाम पर मोटी रकम मिलती रही है। आरटीआई के दायरे में आने के बाद राजनीतिक दलों से कई  कई टेढ़े सवाल होंगे, जिनके जवाब देने में राजनीतिक पार्टियों को पसीने छूट जाएंगे। मसलन पार्टी फंड के सभी पैसों के स्रोत क्या क्या   है ,किस आधार पर कौन पार्टी टिकट बांट रही है और पैसे लेकर टिकट बेचने समेत कई सवालों से राजनीतिक पार्टियों को दो-चार होना पड़ सकता है।
आर टी आई के दायरे में आने के बाद वास्तविक तौर पर यह भी पता चल जाएगा कि किस पार्टी के पास कितना फंड आया । अभी यह स्तिथि है कि पार्टियां चुनाव आयोग को जो फंड से सम्बंधित जो ब्यौरा उपलब्ध कराती है उसको मानना चुनाव आयोग की बाध्यता बन जाती है ।इस विषय में कोई जाँच न होती है ,न की जाती है जबकि पार्टी फंड के नाम पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है ।कार्पोरेट घराने बड़े पैमाने पर अपना काला धन पार्टी फंड के नाम पर  पार्टियों को देते है ।इसी तरह चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी भी बड़े पैमाने पर कालेधन का प्रयोग करते है ।

इस मामले में याचिका दाखिल करने वाले आरटीआई ऐक्टिविस्ट और एडीआर के सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि राजनीति पार्टियों की बेचैनी से ही साफ हो जाता है कि क्यों ये आरटीआई के दायरे में नहीं आना चाहती हैं। वास्तव में सीआईसी के इस फैसले के राजनीति में पारदर्शिता बढ़ेगी और चुनाव सुधार के क्षेत्र में भी एक अहम कदम होगा। दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों का कहना है कि आरटीआई जब संसद से पास किया गया था तब इसके दायरे में राजनीतिक पार्टियों को नहीं लाने का फैसला किया था। ऐसे में सीआईसी का यह फैसला संसद का अपमान है। अन्य पार्टियों से अलग इस मामले में आम आदमी पार्टी ने केंद्रीय सूचना आयोग के इस निर्णय की सराहना करते हुए अन्य दलों के लिए एक उदाहरण पेश किया है । आम आदमी पार्टी के संयोजक और देश में सूचना का अधिकार कानून लाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले अरविंद केजरीवाल शुरू से ही चुनावों में पारदर्शिता के लिए इस तरह के कानून की माँग करते रहें है ।
सीआईसी का यह फैसला बेहद महत्वपूर्ण है। इससे चुनाव सुधार की प्रक्रिया को थोड़ी और गति मिलेगी। आयोग ने साफ किया है कि राजनीतिक पार्टियां भी सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में आती हैं, इसलिए उनसे किसी अन्य सरकारी विभाग की तरह सभी सूचनाएं मांगी जा सकती हैं। आयोग ने कांग्रेस और बीजेपी समेत कई राजनीतिक दलों से कहा है कि वे छह हफ्ते के भीतर अपने यहां केंद्रीय सूचना अधिकारी व अपीलीय अधिकारी नियुक्त करें। दलों को मांगी गई सूचनाओं की जानकारी चार हफ्ते के भीतर देनी होगी। लेकिन आयोग का यह महत्वपूर्ण निर्णय राजनीतिक दलों को रास नहीं आया है। कुछ दलों की ये दलील भी है कि आरटीआई के अंदर लाने से चुनाव के समय विरोधी दल अनावश्यक अर्जियां दायर कर परेशान करेंगे और उनका काम करना मुश्किल कर देंगे। पर सीआईसी ने स्पष्ट तौर पर कह दिया है कि दुरुपयोग की आशंका के आधार पर कानून की वैधता को गलत नहीं ठहराया जा सकता। राजनीतिक दल सिस्टम में पारदर्शिता लाने की बात कहते जरूर हैं, पर वे अपने ऊपर किसी तरह की बंदिश नहीं चाहते। इलेक्शन कमिशन की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी वे अपने चुनाव खर्च और अपनी संपत्ति का सही-सही ब्योरा देने को तैयार नहीं हैं। वे नहीं बताना चाहते कि उन्हें किस तरह के लोगों से मदद मिल रही है।
असल में हमारे देश में हर स्तर पर एक दोहरा रवैया कायम है। राजनीति में यह कुछ ज्यादा ही है। यहां धनिकों से नोट और गरीबों से वोट लिए जाते हैं। लेकिन कोई खुलकर इसे मानने को तैयार नहीं होता। राजनेताओं को लगता है कि अगर वे अपना वास्तविक खर्च बता देंगे तो गरीब और साधारण लोग शायद उनसे रिश्ता तोड़ लें। किसी में यह स्वीकार करने का साहस नहीं है कि उनकी पार्टी धनी-मानी लोगों की मदद से चलती है।

दूसरी तरफ, किसी पार्टी में इतना भी दम नहीं कि वह सिर्फ आम आदमी के सहयोग से अपना काम चलाए। यह दोहरापन कई तरह की समस्याएं पैदा कर रहा है। विकसित देशों में ऐसी कोई दुविधा नहीं है। अमेरिकी प्रेजिडेंट के इलेक्शन में सारे उम्मीदवार फेडरल इलेक्शन कमिशन के सामने पाई-पाई का हिसाब देते हैं। कोई उम्मीदवार यह बताने में शर्म नहीं महसूस करता कि उसने अमुक कंपनी से या अमुक पूंजीपति से इतने डॉलर लिए। अगर पार्टियां अपने को आम आदमी का हितैषी कहती हैं, तो आम आदमी को सच बताने में उन्हें गुरेज क्यों है? अगर एक नागरिक किसी पार्टी को वोट दे रहा है, तो उसे यह जानने का अधिकार भी है कि वह पार्टी अपना खर्च कैसे चलाती है। 
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