नेशनल दुनियाँ के संपादकीय पेज पर आज मेरी कविता ...जब भी मेरी कवियायें प्रकाशित होती है बहुत ज्यादा खुशी महसूस होती है क्योंकि कवितायेँ मेरे दिल के ज्यादा करीब लगती है ....
1 "जीवन "
न पहचान सका
बस बहता ही रहा
जीवन की इस अविरल धारा में
जीवन को देखा बहुत
समझा बहुत
पर बदल न सका
अपने आप को
बहता ही रहा
पर किनारा न मिला
पर मिलता भी कैसे ?
जब कोई किनारा ही न था
बहते हुए भी
सँभल न सका
बस डूबता ही गया
पर ,जब डूबा तो ऐसा डूबा
इस अंतर्मन में
इस चेतना में कि
फिर लगा कि
डूबना ही जीवन है
क्योंकि फिर कोई ,
आस नहीं ,साँस नहीं
बस जीवन ही जीवन
जो अनंत है
अविकार है
वहाँ न तुम हो
न "मैं "हूँ
सब एक है ....
2 अकेलापन
दो पाटों के बीच
पिसता है आदमी
एक तरफ है
उसका परिवार यानि वो और उसकी पत्नी
दुसरी तरफ है
बूढ़े माँ –बाप का परिवार
उम्मीदें बहुत है दोनों तरफ
आवश्यकताएं बहुत है दोनों तरफ
आदमी सिर्फ एक है
बीच में
अंतर्द्वंद है मन में क्या करें
और क्या न करें
कैसे संतुलन बैठाएं
पत्नी और माता –पिता के बीच
क्योंकि एक के साथ
होनें का मतलब
दूसरें के साथ न होना है
वो बेटा बनें या पति
दोनों भूमिकाएं विपरीत है
एक दूसरे के
परिवारों के साथ इस द्वन्द में
उसकी भावनाओं को
उसकी सोच को
कौन समझेगा ?
वो तो सिर्फ बेचारा है
अकेला है
और लगता है कि
अकेला ही रहेगा ..
@शशांक द्विवेदी
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