हम स्वराज्य लायेंगे
,
हम रामराज्य लायेंगे
,
लेकिन जब वो आये थे
तो न स्वराज्य दिखा ,न रामराज्य दिखा
तब सिर्फ स्वार्थ
राज्य दिखा
“सौगंध राम की खातें
है हम मंदिर वहीं बनायेंगें “,
नारा लगता था उस समय
लेकिन जब सत्ता मिली
तब न सौगंध याद आयी न मंदिर याद आया
अब चुनाव आने वाले
है
अब सौगंध भी याद आ
गयी
मंदिर भी याद आ गया
,
अब नारे भी याद आने
लगे ,
सारी याददाश्त वापस
आ गयी चुनाव में ,
राम मंदिर और राम
राज्य याद आ जाते है चुनाव में ,
चुनाव तक “राम “ का
नाम ही चलता है ,
मुँह से राम का नाम
ही निकलता है
गरीब और अमीर सबको
“राम “ की याद दिलाएंगे
गरीब को बताएँगे कि
“राम “ बड़ा है रोटी से
“राम “ को ही
लायेंगे
तब सिर्फ “राम “ ही
पहनना और “राम “ ही खाना
सब कुछ “राम मय“ हो
जाएगा
अमीर तो राम की
सौगंध पहले ही खाते थे
अब गरीब भी खाने लगा
,
“राम “ पहले अमीर के
ही थे
अब गरीब के भी हो
गये
रोटी से पहले “राम “
आ गया
चुनाव आ गया ....
स्वरचित
-शशांक द्विवेदी
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