Wednesday, March 27, 2019

एक्स्ट्रोवर्ट और इंट्रोवर्ट का उलझाव

बदल क्यों नहीं जाता
चंद्रभूषण
एक्स्ट्रोवर्ट और इंट्रोवर्ट के मोटे विभाजन से हम लोगों के बारे अक्सर अपनी राय बनाते हैं। लेकिन समय बीतने के साथ यह बात कितनी बेतुकी हो चली है। पैदा होते ही बच्चों पर अब बहुतेरे कैमरे फिट कर दिए जा रहे हैं। ऐसे में कोई किसी खास चीज पर कुछ न बोलना चाहे, तब भी उसके बारे में उसे चिल्लाकर बोलना पड़ता है। ऐक्टिंग और मीडिया जैसे पेशों में तो आप हर किसी से एक्स्ट्रोवर्ट होने की ही उम्मीद रखते हैं। इसका एक नतीजा यह निकलता है कि आपका सामना ज्यादातर एकरस और उथले लोगों से होता है।

उनका संबंध अगर कला-संस्कृति के गहरे रूपों से हुआ और अपने इकहरे प्रॉडक्शन में तहदारी लाने की टेक्नीक उन्होंने सीख ली, तो भी देखने वालों को तमाम तहें पार कर जाने के बाद कुछ ठोस नहीं दिखता। सर्जक ने किसी सत्य का अनुसंधान नहीं किया, सिर्फ एक सर्वज्ञात सत्य को तहों में लपेटकर रख दिया है! आप अपने दुख-सुख को अपनी त्वचा पर पहनते हैं या दिल की गहराइयों में छिपाकर रखते हैं, यह आपकी बनावट पर निर्भर करता है। इसे आप कब, कैसे उजागर करते हैं, या अपने भीतर ही लिए-लिए दुनिया से दफा हो जाते हैं, यह आपका चॉइस होना चाहिए।

बहुत पछताता हूं यह सोचकर कि औपचारिकताएं मुझसे क्यों नहीं निभतीं। फिर लगता है कि अपने ही लोग हैं, जान जाएंगे। एक साथी का किडनी ट्रांसप्लांटेशन हुआ। रात में खबर मिली, फिर नींद नहीं आई। सबेरे चार बजे सड़क पर टहलते हुए हवा के झोंके की तरह एक कविता दिमाग में आई। छंदबद्ध कविता, जो मेरे लिखे का आम मिजाज नहीं है। कुछ दिन बाद उनसे मिलने पहुंचा तो झेंप सी हुई कि जब उनके साथ खड़े होकर जिंदा रहने की उनकी कोशिशों में शरीक होना था, तब मैं उन्हें लगभग जा चुका मानकर उनका समाधि लेख लिख रहा था। बताया तो वे ठठाकर हंसे।

उनकी मृत्यु इसके तीन साल बाद हुई, जब मैं भौगोलिक रूप से उनसे काफी दूर जा चुका था। लेकिन इस बीच उनसे मिलना-जुलना दो-तीन बार ही हो पाया। चाहता तो फोन पर उनसे जुड़ा रह सकता था, लेकिन जब भी डायल करने का मन होता, यह खुटका सा लगता कि क्या अब सिर्फ बीमारी पर बतियाना होगा? फिर एक दिन वे चले गए तो लगा कि आगे से वह भी नहीं हो पाएगा।

ठीक ऐसा ही पिछले साल मां के साथ हुआ। मिलकर हंसना-रोना, धौल-धप्पा करना, इस तरह के रिश्ते कभी नहीं रहे हमारे बीच। अपनी तरफ से कोशिश न करने के पीछे शायद यह धारणा रही हो कि वह हमेशा वैसी ही दबंग, ठसकदार बनी रहेगी। उसके चले जाने के बाद यह सचाई मन में धंसी कि जाने से पहले वह बूढ़ी, कमजोर और रुआंसी हो चली थी। ऐसे पछतावे मुझे भीतर से बदल देते तो अच्छा था। लेकिन वह बदला हुआ बेहतर इंसान कोई और ही होगा, मैं नहीं।

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