Wednesday, January 11, 2012

वैज्ञानिक अनुसंधान पर उदासीनता


                          बातें नहीं ,क्रियान्न्वयन जरूरी
वैज्ञानिक अनुसंधान पर उदासीनता

पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 99 वें अधिवेशन में कहा की भारत विज्ञान और तकनीक के मामले में चीन से काफी पिछड़ा है। साथ में उन्होंने कहा कि वह देश में  वैज्ञानिक अनुसंधान पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का  एक फीसदी से बढ़ाकर दो फीसदी करना चाहते हैं । अब यहाँ पर सवाल  उनके चाहने पर नहीं बल्कि करने पर है ,पिछले कई सालो से हर बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में सरकार के कुछ लोग इस तरह की घोषणाएं करते है लेकिन बाद में वास्तविक धरातल पर वह क्रियान्वित नहीं हो पाता । देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोधो की दशा अत्यंत दयनीय है । अगर ध्यान से देखे तो तकनीक के मामले में हम सिर्फ पश्चिम की नक़ल करते है ।आजादी के बाद भी आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे देश में बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके । इस बात का प्रमाण हमें अपने समाज में मिल जायेगा जहाँ अधिकाशं युवा शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में नहीं जाना चाहते,अगर वो जाना भी चाहते है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जहाँ उनको ऊँचा पैकेज मिलता है।.विदेशी कम्पनियों इस तरह से आपने लाभ के लिए युवाओं के दिमाग का इस्तेमाल करती  ह।ै आज देश में यही तो हो रहा है कोई भी युवा आईआईटी, आईआईऍम में सिर्फ इसलिए जाना चाहता है जिससे उसको मोटा पैकेज मिले ,वो बड़ी कंपनियों में जा सके । सरकार के लिए ये सबसे बड़ा सवाल है कि इन संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट क्यों अनुसंधान और शोध की तरफ आकर्षित नहीं होते । जाहिर सी बात  इसकी सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुरक्षा है,जो सरकार उपलब्ध करा नहीं सकती ।
देश में पढ़े हजारों उच्च शिक्षित काबिल वैज्ञानिक आज अपनी सेवाए विदेशो में दे रहे है ,उनके लिए जी जान से काम कर रहे है । ऐसा नहीं है कि इन लोगो को अपने देश से ,समाज से प्यार नहीं है बल्कि ये वो लोग है जिनको हमारा देश ,यहाँ की सरकारी मशीनरी लगभग नकार चुकि होती है । इन होनहार लोगो को सरकार अनुसंधान के लिए बुनियादी सुविधाए और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने में हमेशा नाकाम रहती है । डॉ हरगोविंद खुराना जैसे वैज्ञानिक को भी इस देश ने भुला दिया जिन्होंने विश्व को जीन के क्षेत्र में नयी दिशा दी.उनके जैसे व्यक्ति को भी हम अपने देश में काम नहीं दे सके ऐसे कई उदाहरण है जिन्होंने भारत के बाहर अपनी योग्यता और क्षमता का लोहा पूरे विश्व को मनवाया । ऐसे लोगो के युगांतकारी कामो के बाद ,प्रसिद्धि के बाद हम कहते है ये भारतीय मूल के है .लेकिन सच बात तो यह है कि अब उनकी सेवाए दूसरे देश ले रहे है ।
कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। सृजन के क्षेत्र में हमारी बढ़ती दरिद्रता का आलम क्या है इस पर भी एक नजर डालें। देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (टेक्नोलॉजी) को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? दूसरे पहलू से भी इस बढ़ती दरिद्रता को देखने की जरूरत है। देश की जनसंख्या का मात्र 10-11 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा ले पाता है। इसके विपरीत जापान में 70-80 प्रतिशत, यूरोप में 45-50 कनाडा और अमेरिका में 80-90 फीसद लोग उच्च शिक्षा लेते हैं।
अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा, पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा। चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए। वर्ल्ड क्लासबनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।

दुनिया के कई छोटे देश तक वैज्ञानिक शोध के मामले में हमसे आगे निकल चुके हैं। सन् 1930 में सी. वी. रमन को उनकी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन रमन स्कैनर का विकास किया दूसरे देशों ने। यह हमारी नाकामी नहीं तो और क्या है. आज देश में प्रति 10 लाख भारतीयों पर मात्र 112 व्यक्ति ही वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं।
दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक यूनिवर्सिटीज को देते हैं, मगर अपने देश में यह प्रतिशत सिर्फ छह है। उस पर ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। शोध के साथ ही पढ़ाई के मामले में भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि यूनिवर्सिटी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें न बनकर रह जाएं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 99वें भारतीय विज्ञान कांग्रेस में जो  कहा उससे तो यही लगता है  कि वह देश में  विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र की समस्याओ से अच्छी तरह से अवगत है मसलन  आपूर्ति ,शोध और विकास कार्य पर काफी कम खर्च ,पिछले कुछ दशकों में विज्ञान के क्षेत्र में भारत की स्थिति में लगातार गिरावट आदि । लेकिन अब समय समस्याओं को ध्यान में रखकर ठोस और बुनियादी समाधान करने का है । इन बातों पर क्रियान्न्वयन कब होगा यह तो आगे आने वाला समय ही बताएगा ।
यह आर्यभट्ट, कणाद, ब्रह्मभट्ट, रामानुजन, भास्कर,जगदीश चंद्र बोस ,सी वी रमण  जैसे वैज्ञानिको  का देश है। अगर हमने अपनी समृद्ध वैज्ञानिक परंपरा को पूरी शिद्दत और ईमानदारी के साथ आगे बढ़ाया होता तो विज्ञान के क्षेत्र में भारत दुनिया के शीर्ष पर होता। ऐसा नहीं है कि हमने उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं, लेकिन हमारी योग्यता और क्षमता के लिहाज से हम इस मोर्चे पर अब भी काफी पीछे हैं। अब विज्ञान के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनानी ही होगी और देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा।
शशांक द्विवेदी 

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