Tuesday, January 17, 2012

हमें कब तक शर्म आती रहेगी


हमें कब तक शर्म आती रहेगी
स्वीकार करने से ही काम चलेगा क्या !!
पिछले दिनों प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताया। तेजी से प्रगति कर रहे भारत में  इतने विकास के बावजूद यदि देश में ४२ प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं तो यह निश्चित ही शर्म की बात है। आजकल प्रधानमंत्री जी लगातार गंभीर मुद्दों पर देश की वर्तमान दशा कि सही स्वीकरोक्ति कर रहे है। लेकिन अब सवाल समस्याओं का नहीं बल्कि समाधान का है, कार्यक्रमों और नीतियों के जमीनी स्तर पर सही क्रियान्वयन का है। सरकार इस मुद्दे के समाधान के लिए सिर्फ एकीकृत बाल विकास योजनाओं (आईसीडीएस) पर निर्भर नहीं रह सकती है। आईसीडीएस शिशुओं के विकास के लिए संचालित कार्यक्रम है। प्रधानमंत्री ने भूख और कुपोषण (हंगामा) पर रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि  हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तेजी से वृद्धि के बावजूद पोषण का स्तर सामान्य से इतना कम होना अस्वीकार्य है। उन्होंने इस बात को माना कि भारत ने कुपोषण के स्तर में कमी लाने में पर्याप्त प्रगति नहीं की है।
आज के समय में कुपोषण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिये चिंता का विषय बन गया है। यहां तक की विश्व बैंक ने इसकी तुलना ब्लेक डेथ नामक महामारी से की है। जिसने 18 वीं सदीं में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को निगल लिया था। कुपोषण को क्यों इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा हैं? विश्व बैंक जैसी संस्थायें क्यों इसके प्रति इतनी चिंतित है? सामान्य रूप में कुपोषण को चिकित्सीय मामला माना जाता है और हममें से अधिकतर सोचते हैं कि यह चिकित्सा का विषय है। वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनैतिक कारणों का परिणाम है। जब भूख और गरीबी राजनैतिक एजेडा की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है। भारत का उदाहरण ले जहां कुपोषण उसके पड़ोसी अधिक गरीब और कम विकसित पड़ोसीयों जैसे बांगलादेश और नेपाल से भी अधिक है। बंगलादेश में शिशु मृत्युदर 48 प्रति हजार है जबकि इसकी तुलना में भारत में यह 67 प्रति हजार है। यहां तक की यह उप सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 प्रतिशत है जबकि उप सहारीय अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है।
जिस देश का बचपन कुपोषण का शिकार है, उसका भविष्य क्या होगा? अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। आज देश का हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है और उम्र के हिसाब से उसकी लंबाई नहीं बढ़ रही है। यह आंकड़ा देश में बढ़ती आर्थिक विषमता की असलियत भी बयां करता है। यह आंकड़े बताते हैं कि बाल स्वास्थ्य के मामले में हमारी स्थिति अफ्रीका के गरीब मुल्कों से भी बदतर है। देश के 100 जनपदों में पांच साल से अधिक उम्र के एक लाख से ज्यादा बच्चों पर कराये गये हंगामा के सर्वेक्षण में यह तथ्य भी सामने आया कि तकरीबन साठ फीसदी बच्चों का कद उनकी उम्र के हिसाब से काफी कम है। कुपोषण का यह आंकड़ा गरीबी के प्रतीक माने जाने वाले सहारा अफ्रीकी गरीब देशों की तुलना में दुगना है। चूँकि यह सर्वेक्षण देश के महज नौ राज्यों के ११२ जिलों में ७३ हजार परिवारों को आधार बनाकर किया गया है, लिहाजा इसे देश में कुपोषण की मुकम्मिल तस्वीर नहीं माना जा सकता, जो कि और भी भयावह हो सकती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स २०११ में (दुनिया के ८१ विकासशील और पिछड़े मुल्कों में) भारत का स्थान ६७वाँ है, जबकि बांग्लादेश का ६८ वाँ। दुनिया के महज १४ देश ही हमसे पीछे हैं। चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, वियतनाम जैसे एशियाई देशों के अलावा रवांडा और सूडान जैसे देश भी इस मामले में भारत से बेहतर स्थिति में नजर आते हैं, जबकि भारत की छवि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था की बनी हुई है।
पिछले एक साल के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कई बार भुखमरी, गरीबी और कुपोषण पर अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। एक ओर देश में हर साल उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर करोड़ों भारतीयों को भूखे पेट सोना पड़ता है। यह कहते हुए कोई एक साल सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई थी लेकिन उसके बाद भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। भंडारण की बदइंतजामी के चलते अनाज के सड़ने और लोगों के भूख से मरने का सिलसिला लगातार जारी है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के जरिए भारत में कुपोषण की व्यापकता सामने आ चुकी है और अब एक अन्य सर्वेक्षण ने भी इस भयावह हकीकत की तसदीक की है। पर केंद्र सरकार ने कभी भी शीर्ष अदालत की चिंता को गंभीरता से नहीं लिया। यही वजह है कि एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को आड़े हाथों लेते हुए उसे आदेश दिया है कि देश में कोई भी मौत भुखमरी और कुपोषण की वजह से नहीं होनी चाहिए। यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह गरीबों को भोजन उपलब्ध कराए। कोर्ट ने यह निर्देश पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा एक जनहित याचिका पर दिया है। यह याचिका सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भ्रष्टाचार और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गोदामों में सड़ रहे अनाज के मुद्दे पर दायर की गई थी। याचिका में कहा गया है कि देश में एक तरफ हजारों लोग भूखे रह रहे हैं तो दूसरी तरफ अनाज गोदामों में सड़ रहा है। सचमुच देश में गरीबी और भुखमरी का यह आलम है कि देश में आधे से अधिक बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में है। ऐसे में अनाजों को गोदामों में बंद रखना बेहद ही निर्मम सरकारी व्यवस्था को दर्शाता है। इस दिशा में जो भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, वह देश में गरीबी को देखते हुए अच्छा कदम है। यदि बात अनाजों की सड़ने की करें तो अनाजों के सड़ने में बड़ी समस्या गोदामों की कमी भी है। जस्टिस दलवीर भंडारी और जस्टिस दीपक वर्मा की पीठ ने केंद्र सरकार से कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को भ्रष्टाचार और हेराफेरी से बचाने के लिए इसका कंप्यूटरीकरण जरूरी है, ताकि पीडीएस में हो रहे बड़े स्तर पर चोरी और भ्रष्टाचार को कम किया जा सके। क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तरह बंटने वाले अनाज की कालाबाजारी बहुत अधिक है। इस पर अंकुश लगाने के लिए समूची प्रणाली की कंप्यूटरीकरण जरूरी है।

सचमुच हमारे देश में रख-रखाव और भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने से हरेक साल 50000 करोड़ से ज्यादा का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। जरा सोचिए, इतने खाद्यान्न से कितने भूखे लोगों व उनके परिवार का पेट भरा जा सकता है। यह एक ऐसे देश की शर्मसार करने वाली तस्वीर है, जहां आज भी प्रतिदिन 26 करोड़ लोग एक वक्त बिना खाए भूखे सोने के लिए मजबूर है। यह सही है कि गरीबों को खाना देने की कई योजनाएं अरसे से हमारे यहां चल रही हैं। घटी दरों पर खाद्यान्न देने के कार्यक्रम भी होते रहते हैं। कहने के लिए राशन की व्यवस्था भी है, लेकिन इन सबके बावजूद हकीकत यह है कि लोग भूख से मरते हैं। भंडारगृहों में खाद्यान्न है, लेकिन वह न तो जरूरमंदों तक पहुंचता है और न ही जरूरतमंद उस तक पहुंच पाते हैं।
कुपोषण इस समय देश में  एक जटिल समस्या है। घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब गरीब समर्थक नीतियां बनाई जाए जो कुपोषण और भूख को समाप्त करने के प्रति लक्षित हों। हम ब्राजील से सीख सकते हैं जहां भूख और कुपोषण को राष्ट्रीय लज्जा माना जाता है। वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में जहां गरीबों के कल्याण को नजर अंदाज किया जाता है, खाद्य असरुक्षा बढ़ने के आसार नजर आते हैं। हम किस प्रकार सरकार के निर्णय को स्वीकार कर सकते है जब वह लाखों टन अनाज पशु आहार के लिए निर्यात करती है और महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कुपोषण से मौतों की मूक दर्शक बनी रहती है। आज के समय में किसानों को खाद्यान्न से हटकर नगदी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के कारण खाद्य संकट और गहरा सकता है और देश को फिर से खाद्यान्नों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ सकता है। हाल ही में जनवितरण प्रणाली को समाप्त करने के सरकार के प्रयास इस ओर इशारा करते हैं।
भारत में समेकित बाल विकास सेवा एक मात्र कार्यक्रम है जो सीधे कुपोषण निवारण के लिये जिम्मेदार है। यह आंगनवाड़ियों के एक विस्तृत नेटवर्क द्वारा संचालित होता है जिसमें पूरक पोषण, स्कूल पूर्व शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बच्चों, गर्भवति एवं धात्री महिलाओं और कुपोषित बालिकाओं तक पहुंचाना अपेक्षित है। किन्तु आंगनवाड़ियों की प्रभाविता कई कारणों से बाधित होती है। केन्द्रों की अपर्याप्त संख्या, कम मानदेय प्राप्त आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, 3 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिये झूलाघर की अनउपलब्धता जैसी समस्यायें धरातल पर नजर आती है। वृहद स्तर पर राजनैतिक इच्छा शक्ति और बजट प्रावधान में कम प्राथमिकता इसे प्रभावित करती है। वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद का 3000 करोड़ रूपयों का प्रावधान सकल घरेलू उत्पाद का 1/10वां हिस्सा भी नहीं हैं। यह तथ्य और स्पष्ट होता है जब हम इसकी तुलना रक्षा के लिये किये गये आवंटन से करते हैं। यदि संसद में बच्चों के लिए उठाये जाने वाले प्रश्नों को देखे तो तो यह दोनों सदनों में उठाये गए प्रश्नों का मात्र 3 प्रतिशत होता है। आश्चर्य की बात नहीं है-बच्चें मतदाता नहीं होते!
कुपोषण कार्यक्रमों और गतिविधियों से नहीं रूक सकता है। एक मजबूत जन समर्पण और पहल जरूरी है। जब तक खाद्य सुरक्षा के लिये दूरगामी नीतियां निर्धारित न हो और बच्चों को नीति निर्धारण तथा बजट आवंटन में प्राथमिकता न दी जाए तो कुपोषण के निवारण में अधिक प्रगति संभव नहीं है।
अमर्त्य सेन की 1981 में लिखी गई किताब पॉवर्टी एंड फैमीन एंड एम्से आन इनटाइटिलमेंट एंड डिप्राइजेशन में दलील दी गई है कि ज्यादातर मामलों में भुखमरी और अकाल का कारण अनाज की उपलब्धता की कमी नहीं, बल्कि असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी है। सभी को कम से कम दो जून की रोटी नसीब हो, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि आधुनिकता व भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो पा रहा है।

यह स्पष्ट है कि दीर्घकालिक हल आर्थिक नीतियों की पुनरर्चना व ग्रामीण विकास और रोजगार को बढ़ावा जैसी प्रक्रिया बिना नहीं निकल सकते। समग्रता से खाद्यान सुरक्षा, छोटे किसान, भूमिहीन मजदूर व कारीगरों के रोजगार, स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल खेती, और दामों पर नियन्त्रण की नीतियों को अपनानी होंगी। परन्तु इस सब के लिये बहुसंख्य जनता इन्तजार करती रही तो तात्कालिक संकट से कैसे जूझेगी ?
सम्भव तात्कालिक कारगर उपाय

1. सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा महीने का बी.पी.एल. परिवारों को 35 किलो. बेचने का प्रावधान था जिसको हाल में 45 किलो. किया गया। परन्तु यह अभी भी अपर्याप्त है और आवश्यकता है कि 100 किलो. अनाज दिया जाए ताकि 5 व्यक्तियों के परिवार को बाजार से खरीदना न पड़े। गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों के अलावा अन्य के लिये भी यह प्रावधान खोल दिया जाय। राजस्थान सरकार के एक सर्वेक्षण ने दिखाया था कि कुपोषण ग्रसित बच्चों में एक तिहाई ही बी.पी.एल. थे और दो तिहाई तो गरीबी रेखा के ऊपर वाले थे। (ए.पी.एल.) हालांकि बी.पी.एल. में 80 प्रतिशत कुपोषित थे और ए.पी.एल. में लगभग 20 प्रतिशत ही।

२. जिला का प्रशासन भुखमरी से हुई मौत के प्रमाणित होने पर मृतक के परिवार को मुआवजा, खाद्यान अथवा रोजगार देता है। हालांकि प्रमाण इकट्ठे करना जो प्रशासन को मान्य हो, यह अक्सर विवादित रहता है।

3. सूखा ग्रस्त जिलों को चिन्हित कर प्रशासन उनमें रिलीफ का काम चालू करता है। परन्तु यह खाद्यानों के दाम बढ़ने पर लागू नहीं होता, जब तक भुखमरी से मौत का प्रमाण न मिलें।

4. आमतौर पर भी पर्याप्त खानों के दाम 30-40 प्रतिशत आबादी की क्रय शक्ति के बाहर रहते हैं। ऐसे में करोड़ों भारतीय भूखे ही सो जाते है, बहुसंख्य बचपन से ही छोटे कद के व दुर्बल रह जाते है। ऐसे दुर्बल बच्चे व बुजुर्ग बढ़ती खाद्यान की कमी के सबसे पहले शिकार बनते हैं। इस समस्या के हल के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा खाद्यान्न का प्रावधान है, और बच्चों व गर्भवती माँओं के लिये आँगनवाड़ी पर पोषण की व्यवस्था है।
कुपोषण की जटिल समस्या के समाधान के लिए कोई भूखा न सोएअभियान की सम्भावना

- नागरिक प्रशासन को 9 प्रतिशत की आर्थिक बढ़ोतरी के फल को बांटना पड़ेगा, कम से कम हर परिवार को न्यूनतम भोजन मौहयया कराने के लिये।

- कुपोषण और भुखमरी बढ़ाने के संकेत शुरू में ही पहचानने की व्यवस्था बनानी होगी, ताकि कारगर कदम उठाकर भूख की व्यापकता कम की जा सके।

- चिन्हित इलाकों, समुदायों व परिवारों के लिये, परिस्थिति अनुरूप, कम दरों पर खाद्यान्न, रिलीफ के लिये मजदूरी के काम और समुदायिक रसोई जैसी व्यवस्थाऐं करी जाये।

- स्वास्थ्य विभाग एवं आंगनवाड़ी (आई.सी.डी.एस.) के कार्यकर्ता लगभग हर गाँव व कस्बे में तैनात हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के तहत हर 1000 या उससे भी कम की आबादी पर एक आशाहै-आठवीं पास गाँव की बहू जिसकों ट्रेनिंग देकर स्वास्थ्य के मुद्दों पर जागरूकता बढ़ानें एवं प्राथमिक उपचार देने के लिये तैयार किया गया है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता व आशा को मिलकर माह में एक दिन ग्रामीण स्वास्थ्य पोषण दिवस मनाना होता है। वहीं बच्चों का वजन मापा जाता है। ए.एन.एम. (डेढ़ साल की ट्रेनिंग पाई नर्स) गर्भवती महिलाओं की जाँच और माँओं व बच्चों का टीकाकरण भी करती है। खेद की बात है कि पोषण पर ध्यान घटता जा रहा है। बच्चों के वजन द्वारा कुपोषण मापने पर कारगर कदम उठाना तो दूर, कुपोषण दर्ज करने पर ही पाबन्दी हैं। अब स्वास्थ्य मंत्रालय व महिला व बाल विकास डिपार्टमेंट के अफसर और नीतिनिर्थाक भी इससे चिन्तित है, और कुछ कारगर उपाय खोज रहे हैं। पोषण व स्वास्थ्य के काम में तालमेंल बढ़ाना इसका एक तरीका है।
- इस संयुक्त काम को इस साल अगर मुहिम के तौर पर उठाया जाए तो प्रशासन, स्वास्थ्य सेवा व आई.सी.डी.एस. तीनों को कुपोषण की समस्या पर फिर ध्यान केन्द्रित करना होगा। सरकार व राजनैतिक पार्टियां लोगों की एक प्रमुख समस्या पर कुछ ठोस काम करती नजर आएंगी।
- बच्चों के वजन पर महीनेवार सख्त निगरानी रखने से पता लगाया जा सकता है कि किस इलाके या आबादी में 20 प्रतिशत से अधिक बच्चों का वजन घटा है। इसकों समुदाय में बिगड़ती खाद्य परिस्थिति और सम्भावित भुखमरी का द्योतक माना जा सकता है। ऐसी स्थिति की रिपोर्ट तुरन्त पंचायत व जिला कलेक्टर को दी जाए, और वह उपरोक्त कदम लेने के लिये तैयार रहें, तो भुखमरी के कारण मौतों की रोकथाम हो सकती है।
-जहाँ अब तक आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ज्यादा कुपोषण रिपोर्ट न करने की मौखिक हिदायत दी जाती है, जरूरी है कि अब कुपोषित बच्चे चिन्हित करने पर उन्हें (व आशा को) इनाम दिया जाए।
- ग्राम स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समिति व पंचायत मिलकर इसका ध्यान रखे कि क्या गाँव के परिवारों में खाने का अभाव है, और यदि हाँ तो कौन भूख का शिकार हैं। इसका वह प्रशासन से उपाय मांगें। इससे आगे, वह सरकार द्वारा दिया सालाना रू.  10000/- व अन्य चन्दा इकट्ठा करके कोई भूखा न सोएअभियान चला सकते हैं।
- स्वयंसेवी व विभिन्न आंदोलन समूह भी इस काम में जुड़े। सरकारी कार्यक्रमों में उन्हें जोड़ा जाए ताकि ग्राम स्वास्थ्य एवं स्वच्छा समिति कारगर बनें, आशा व आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के काम में मजबूती लाएं। परन्तु सरकारी कार्यक्रम हो या न हो, स्वयंसेवी आन्दोलन समूह अगर अपने-अपने क्षेत्र में अपने ही कार्यकर्ताओं के माध्यम से यह कार्य शुरू कर दें और गाँव व मौहल्ले के स्तर पर कोई भूखा न सोएअभियान चालू कर दें तो उसका कुछ तो असर होगा।
- मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे, व्यापारी मण्डल और कॉर्पाेरेट सोशल रिस्पोंन्सिबिलिटि निभाने वाले समूह सभी इस बुनियादी अभाव को दूर कर देश को इस कलंक से मुक्ति दिलाने के लिये एक लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
इसके लिये राजनैतिक संकल्प की आवश्यकता है और ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों की जो समाज की त्रासदी और लोगों की पीड़ा के कारगर निदान के लिये कदम लेने को तत्पर हो। अगर हम अभी बड़े पैमाने पर ऐसे कदम नही उठाएंगे तो देश मिलेनियम डिवेल्पमेन्ट गोल्जव राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लक्ष्यों की चुनौती से और दूर चला जाएगा।
आज हमारा देश और समाज जिस चौराहे पर खड़ा है, हमारे भविष्य की शक्ल ऐसी चुनौतियों से ही निर्णायक रूप लेगी। हम सब एक जुट होकर कैसे इस चुनौती का सामना करते है, उससे तय होगा कि हमारा समाज एक जिंदा, मजबूत, संवेदनशील और मानव अधिकारों को मानवीयता और जरूरतमंद की सेवा से जोड़ने वाले समाज के रूप में उभरेगा, या अपने सदस्यों को भूख से तड़पने को छोड़ बेमुरव्वत, गैरजिम्मेवार, बंटा हुआ व संवेदनशून्य समाज बनेगा।
लेखक 
शशांक द्विवेदी 

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