Sunday, May 6, 2012

पदोन्नति में आरक्षण


एक ही बार दीजिए आरक्षण
सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने बताया है कि पदोन्नतियों में आरक्षण इसलिए भी उचित नहीं है कि वह योग्यता को मारता है। उस महकमे की आम मेधाविता को कुंद करता है। अंतत: यह उत्पादकता को प्रभावित करता है, जिसकी परिणति एक राज्य की प्रतिगामिता में दिखती है
पदोन्नति में भी आरक्षण पर आमादा राजनीति की गरम प्रतिक्रिया अनपेक्षित नहीं कही जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश की सरकारी सेवा में प्रोमोशन में रिजव्रेशन को जैसे ही खारिज किया। तभी लखनऊ और नई दिल्ली के सियासतदां के साथ-साथ अवाम को पता चल गया था कि आरक्षण पर इसे अंतिम शब्द कतई नहीं बनने दिया जाएगा। बिल्कुल अपेक्षा के मुताबिक ही मायावती ने राज्यसभा में संविधान में संशोधन की मांग करते हुए कांग्रेस को दलित विरोधी बताया और सदन से निकल आई। ठीक इसी समय लोकसभा में कांग्रेस सांसद और अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने संविधान में संशोधन की मांग उठाई। दलित विरोधी होने का ठप्पा और समाजवादी पार्टी को छोड़ वाम-दक्षिण पंथी विपक्ष का विरोध कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं। सरकार तुरंत हरकत में आई और कार्मिक मंत्री वी. कुमारस्वामी के हवाले से सदन को बता दिया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मामले की चिंता है और इस पर विचार के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाएगी। इस बाबत विधेयक के लंबित प्रारूप को भी अंतिम रूप देकर संसद में पेश किया जाएगा ताकि बार- बार न्यायालय की मिलने वाली नसीहतों का स्थायी निदान निकाला जा सके। यह केंद्र और संसद का परिदृश्य है। उधर, उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार भी अपने तरीके से कुछ कर रही है। वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन के लिए एक अध्यादेश लाने वाली है। चूंकि वहां विधानसभा का अभी सत्र चल नहीं रहा है। आरक्षित संवर्ग सरकार की तेजी को अपने विरुद्ध जबर्दस्ती का राजधर्म मान रहा है। उसका कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार के लिए विशेष अवकाश याचिका के स्वीकृत होने और इस पर फैसला आने तक सरकार का वेटिंग मोड में रहना ही बेहतर होगा। इस सलाह में भी कोई बुराई नहीं है। न्यायिक/वैधानिक प्रक्रिया के दायरे में यह राय है। हो सकता है, तब तक केंद्र की तरफ से ही कोई सर्वमान्य हल निकल आए। समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार इसलिए तब तक इंतजार नहीं कर सकती क्योंकि उसे पदोन्नति में एससी/एसटी के कोटे का विरोध करने के लिए जनादेश मिला है। उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि सत्ता में आने पर बसपा सरकार के इस फैसले को पलट देगी। सर्वोच्च अदालत के फैसले ने उस पर मुहर लगाकर उसके वादे को न्यायोचित और वैधानिक बना दिया है। एक सरकार के लिए यही तो दिशासूचक/मार्गदर्शक सिद्धांत होते हैं। इसलिए भी लोकसभा में सपा के वरिष्ठ सांसद रामगोपाल यादव कहते हैं कि नौकरी में आरक्षण पर पार्टी और सरकार को ऐतराज नहीं है लेकिन पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था पर घोर आपत्ति है। यह उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक वरिष्ठता नियम-1991’
के मूल स्वरूप से पुष्ट नहीं है। दरअसल, यह सारा मामला मायावती सरकार के समय का है। उत्तर प्रदेश में भले वह नई सामाजिक इंजीनियरिंग, सवर्ण-दलित गठजोड़-की बदौलत सत्ता में आई लेकिन उसने सरकारी सेवा में एससी/एसटी को ही पदोन्नति देने के नियम में संशोधन किया। इसका लाभ पाकर कोई पौने दो लाख लोग विभिन्न सरकारी महकमों में वरिष्ठता पा गए। इसके विरुद्ध सामान्य और ओबीसी संवर्ग की सर्वजन हिताय संरक्षण समितिने इलाहाबाद हाईकोर्ट में रिट दायर की। जनवरी, 2011 में दिए गए फैसले में संशोधन 8अ को खारिज कर दिया। हालांकि दो न्यायमूर्ति इसके विरुद्ध थे। बौखलाई मायावती सरकार सर्वोच्च अदालत गई, जहां 29 अप्रैल को उसने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बहाल रखा। इसके बावजूद, प्रदेश सरकार के व्यवहार में एक संतुलन दिखाई देता है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस पक्ष में हैं कि जो हो गया, उसे रहने दिया जाए किंतु आगे की पदोन्नतियों में आरक्षण को अदालत की इच्छा के मुताबिक ही न माना जाए। यह बात सर्वजन हिताय संरक्षण समिति को मान्य नहीं है तो उसका वैधानिक आधार है। दरअसल, अदालत का फैसला नियम आठ-अ को निरस्त कर देता है। जब नियम ही गलत है तो उसके आधार पर दिया गया लाभ भी अनुचित ही होगा। यह सही अनुपालना नहीं होगा। इसलिए वे सभी पदोन्नतियां निरस्त हों और जैसा कि अदालत ने कहा है कि एक ही सूची बने और वही वरिष्ठता के लाभ दिलाने का आधार बने। इसका अनुपालन न हुआ तो समिति की यह आशंका सच निकलेगी कि अगले पांच सालों तक सामान्य/ओबीसी का कोई कर्मचारी/अधिकारी वरिष्ठता का लाभ पाने से वंचित रह जाएगा। इससे जुड़ी दूसरी बात यह है कि एससी/एसटी के सरकारी सेवकों को आरक्षण का दोहरा लाभ मिलेगा। यह आरक्षण के वास्तविक अभिप्राय से मेल नहीं खाता है। मंडल कमीशन के समय यही सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि आरक्षण का लाभ एक बार ही दिया जा सकता है। उसने फिर कहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार का 2008 में किया गया संशोधन संविधान का उल्लंघन करता है। आरक्षण के पक्ष में यह आम दलील है कि चूंकि भारतीय समाज असमानता पर आधारित है, लिहाजा उसके सभी अंगों में समता के जरिये संतुलन लाने तक आरक्षण को बनाए रखना लाजिमी है। अनुच्छेद-16 के उपबंध-दो के इस स्पष्ट प्रावधान के बावजूद कि किसी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान, जहां वे रहते हैं के साथ किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं होगा। उनके साथ किसी भी राज्य के अंतर्गत रोजगार पाने और दफ्तर में कोई अंतर नहीं किया जाएगा।राजनीतिकों ने इस प्रावधान में केवलशब्द को आरक्षण के प्रावधान के लिए अयोग्यता के रूप में देखते हुए अनुच्छेद-16 के ही अनुबंध-4 का उपयोग किया, जिसमें कहा गया था कि किसी राज्य को आरक्षण का प्रावधान करने से नहीं रोका जाएगा, अगर वह पाता है कि किसी जाति का उस राज्य की सरकारी सेवा में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। अपनी सामाजिक संरचना में वंचितों के एक व्यापक तबके की वास्तविकता को देखते हुए बनी सहमति की भी एक समय सीमा थी। लेकिन वह समय-समय पर बढ़ाई जाती रही। आरक्षण के जारी रहने से संबद्ध वगरे में एक क्रीमी क्लास उभरा है। देखा गया है कि जिस आरक्षण को अंतिम आदमी के लिए समानता के अवसर के तौर पर देखा गया था, उससे एक बड़ा वर्ग वंचित रह गया है और खास-खास लोगों की पीढ़ियां ही संपन्न हो रही हैं। यह खुशहाली चार-चार पीढ़ियों तक फैली है जबकि व्यापक समाज अवसरों के लिए कतार में ही रह गया है। इसकी समीक्षा की जरूरत शिद्दत से है। इससे कतराते जाने से सामाजिक असंतोष की बड़ी समस्या से हमें रू-ब-रू होना पड़ेगा। लेकिन जिस तरह से आरक्षण के मसले को वोट के चश्मे से देखा जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसी नियति सामने आती लगती है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने बताया है कि पदोन्नतियों में आरक्षण इसलिए भी उचित नहीं है कि वह योग्यता को मारता है। उस महकमे की आम मेधाविता को कुंद करता है। अंतत: यह उत्पादकता को प्रभावित करता है, जिसकी परिणति एक राज्य की प्रतिगामिता में दिखती है। खुद कांशीराम भी जातीय आधार पर आरक्षण के विरोधी थे। अलबत्ता, वह दलितों को वित्तीय और राजनीतिक अवसर के पक्षधर थे। यह पता नहीं कि अब भी उनका स्टैंड यही रहता या बदल जाता। मौजूदा परिस्थितियों में उप्र सरकार के लिए यही उचित होगा कि वह जनादेश का पालन करते हुए न्यायालय के आदेश को अधूरा नहीं पूरा लागू करे। पदोन्नति पाने वालों के वास्तविक आधार तय करे। वहीं केंद्र सरकार अगर सर्वदलीय बैठक बुलाती है तो बेहतर होगा कि वह उन स्वरों को सुनें, जो केवल राजनीतिक जुबान नहीं देश-समाज हित की जवाबदेही और समझदारी से बोलते हैं। आरक्षण पर अंतिम हल निकलना चाहिए क्योंकि देश को कई मुकाम पाने अभी बाकी हैं। लेखक रणविजय सिंह ,(साभार -राष्ट्रीय सहारा)


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