कभी कभी अपने
अस्तित्व
से जूझता है आदमी ,
वो खुद से ही लड़ता
है ,
खुद के ही सवालों
में रहता है ,
और कई बार हारता है
अपने आप से
कई बार गिरता है ,
अपनी ही नजरों के
सामनें ,
उसका अंतर्मन कचोटता
है ,
धिक्कारता है ,कई
बार
वो कटघरे में खड़ा
होता है
खुद के ,
लेकिन निकल नहीं
पाता
इस परिस्थिति से
कई बार जानबूझकर कर
और कई बार मजबूरी
में भी ,
इस दौरान
उसका अंतर्मन कई
मौके देता है
बाहर निकलने के लिए
,
खुद से लड़ने के
जज्बे के लिए ,
लेकिन फिर भी वो
गिरा ही रहता है
अपनी नजरों के
सामनें .
कब उठेगा वो
शायद वो खुद भी नहीं
जनता !!
शशांक द्विवेदी
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