Saturday, July 6, 2019

कैसे भरोसा बढ़ेगा डॉक्टरों पर

ऐसे बढ़ेगा डॉक्टर बाबू पर भरोसा
What can be done for rebuilding trust between Doctors and Patients

आजकल धरती के भगवान से लोगों का विश्वास टूटता जा रहा है। आखिर इसकी वजह क्या है? डॉक्टरों, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट, ऐडवोकेट सभी को हम एक साथ एक मंच पर लेकर आए और सभी पक्षों की बातें सुनीं और समाधान खोजने की कोशिश की। पूरी जानकारी दे रहे हैं राहुल आनंद और लोकेश के. भारती

केस स्टडी 1
हाल में 6 साल की एक बच्ची के साथ रेप का मामला सामने आया था। पुलिस बच्ची का मेडिकल कराने के लिए महर्षि वाल्मीिक हॉस्पिटल लेकर गई थी। रेप की घटना से पूरे इलाके के लोग गुस्से में थे। इसलिए पुलिस के साथ भारी संख्या में लोग भी थे। शाम का वक्त था। अस्पताल में जब बच्ची की जांच की जा रही थी तो उसकी परेशानी देखकर डयूटी डॉक्टर को समझ में आया कि बिना ऐनिस्थीसिया जांच संभव नहीं है। डॉक्टरों ने पुलिस को सिर्फ इतना कहा कि बच्ची को दूसरे अस्पताल ले जाना पड़ेगा क्योंकि यहां पर ऐनिस्थीसिया की एक्सपर्टीज और आईसीयू नहीं है। बस इतनी-सी बात सुनते ही लोग भड़क गए और हंगामा करने लगे। इमरजेंसी में तोड़फोड़ मचा दी। वहां पर मौजूद डयूटी डॉक्टरों को भागना पड़ा।

केस स्टडी 2
'तुमने मेरे मरीज का पहले इलाज नहीं किया तो गोली मार दूंगा',… कुछ इस तरह से एम्स ट्रॉमा सेंटर में डयूटी करने वाले डॉक्टर को एक मरीज के तीमारदार ने धमकी दी। यह धमकी सुनकर डॉक्टर हिल गया। उस समय वह इमरजेंसी के एक पेशंट का इलाज कर रहा था। जिस मरीज के लिए उसे धमकी दी गई थी, उसके पैर में हेयर लाइन फ्रैक्चर था यानी कुछ सीरियस मामला नहीं था। िफर भी वे अड़े रहे। पहले दिखाने के लिए तीमारदार ने इस तरह से हंगामा कर दिया। तीमारदार के इस हरकत से वहां पर हलचल मच गई। डॉक्टर, नर्स, बाकी स्टाफ परेशान हो गए। बात सिर्फ धमकी पर ही नहीं रुकी, उन लोगों ने हंगामा करना शुरू कर दिया। गनीमत यह थी कि वहां पर तैनात सिक्यूरिटी गार्ड ने स्थिति संभाली और मौके पर पुलिस को बुलाया। पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर उसे पकड़ भी लिया, लेकिन यहां गलती किसकी थी? डॉक्टर की या फिर तीमारदार की।

केस स्टडी 3
पुरानी बात है, लेकिन छोटी-सी। चाचा नेहरू बच्चों का अस्पताल है। वहां पर एक बच्चे के इलाज के लिए परिजन पहुंचे थे। ड्यूटी डॉक्टर ने परिजन को कहा कि बच्चे को डायपर पहना दो, अगर पेशाब कर दिया तो बाकी लोगों को भी दिक्कत होगी। बस इतनी सी बात थी, तीमारदार ने कहा कि अगर मैं डायपर नहीं पहनाउंगा तो तुम इलाज नहीं करोगे? इसी बात पर हंगामा खड़ा कर दिया। यहां पर गलती किसकी थी?

मुद्दा 1
सरकारी में इलाज से इनकार और प्राइवेट में लूट
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): यह सेक्टर ही बीमार है। जब तक डॉक्टर मेडिकल प्रफेशन को बिजनेस की तरह डील करेंगे, समस्या बनी रहेगी। प्राइवेट में एक तरफ लोगों की जान जाती है, दूसरी तरफ डॉक्टर बिना पैसा लिए नजर तक नहीं डालते। बिना मतलब के टेस्ट लिख देते हैं। वहीं सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर सीधे मुंह बात तक नहीं करते। किसी न किसी बहाने इलाज करने से मना कर देते हैं। कुछ भी पूछने पर गुस्सा हो जाते हैं। कोई भी मशीन काम नहीं करती। एक काम के लिए 10 बार दौड़ाते हैं। इस सिस्टम को बदलना होगा।

डॉक्टरों का पक्ष: सरकारी अस्पतालों में सबसे ज्यादा दबाव मरीजों की भारी संख्या का होता है। दूसरा दबाव वक्त का होता है। इनके अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर में कमी का दबाव भी काफी होता है। डॉ. सुमेध का कहना है कि अगर हम एक मरीज को ज्यादा समय देते हैं तो सुबह 6 बजे से अपनी बारी का इंतजार कर रहे बाकी मरीज हल्ला करने लगते हैं। यह समस्या पेशंट और अस्पतालों या सिस्टम के बीच है। डॉक्टर सिर्फ इलाज कर सकता है, जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराना उसका काम नहीं है। यह काम सरकार या अस्पताल प्रशासन का होता है।
संभावित समाधान: इमरजेंसी में हर किसी को इलाज फ्री में मिलना चाहिए। यह सरकार का फर्ज बनता है कि वह अपनी जनता को इमरजेंसी में इलाज उपलब्ध कराए। उसके बाद योजना बनाकर कराई जाने वाली सर्जरी या इलाज में यह मरीज की मर्जी पर हो कि वह जल्दी कराना चाहे तो प्राइवेट अस्पताल में जाए, इंतजार कर सकता है तो सरकारी में इलाज कराए।

मुद्दा 2
इलाज में डॉक्टरों से लापरवाही या गलतियां
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): डॉक्टर कई बार गलती करते हैं। कभी लेफ्ट की जगह राइट हैंड का प्लास्टर कर देते हैं, तो कभी कॉटन बॉल पेट में छोड़ देते हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब पेट में कैंची, सुई जैसी चीजें भी छोड़ दी गई हैं। इसका भयावह नतीजा बाद में सामने आता है। कई बार तो मरीज की जान तक चली जाती है।

डॉक्टरों का पक्ष: डॉक्टर भी इंसान होते हैं, उनसे भी गलतियां हो सकती हैं। यहां एक बात समझने की जरूरत है। मान लें किसी ऑपरेशन के दौरान पेशंट के शरीर में 25 कॉटन बॉल का उपयोग हुआ। ऑपरेशन खत्म होने के बाद 25 कॉटन बॉल गिनती करके देख लेना चाहिए कि पूरे हैं या नहीं। अगर डॉक्टर ने गिनती की और ध्यान भटकने की वजह से एक कॉटन पेशंट के शरीर में रह गया तो यह गलती है। वहीं अगर डॉक्टर ने गिनती ही नहीं की तो यह लापरवाही है।
संभावित समाधान: डॉक्टरों की गलती होने पर कानून में कुछ लोचे हैं। कुछ अधिकार आईएमए (इंडियन मेडिकल एसोसिएशन) के पास हैं, कुछ राज्य सरकार के पास तो कुछ केंद्र सरकार के पास। इसलिए सही और स्पष्ट कानून बनाने की जरूरत है। मेडिकल लापरवाही पर कन्ज्यूमर ऐक्ट में सुधार की जरूरत है।

मुद्दा 3
लापरवाही की सुनवाई और जांच
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): जब मेडिकल काउंसिल में या कन्ज्यूमर कोर्ट में डॉक्टर की शिकायत होती है तो डॉक्टर की गलतियों की जांच भी डॉक्टर ही करते हैं। जांच करने वाला डॉक्टर भी कहीं न कहीं उसका जानने वाला होता है। इसलिए डॉक्टर की गलती नहीं निकलती और उसे सजा भी नहीं मिलती।

डॉक्टरों का पक्ष: यहां एक बात समझने लायक है कि डॉक्टरी पेशे में अगर कोई गलती होती है तो उसकी जांच कोई न कोई डॉक्टर ही करेगा जैसे पुलिस की गलती की जांच पुलिस ही करती है। जब किसी को मेडिकल बारीकियां पता ही नहीं हैं तो वह गलती बताएगा कैसे। जहां तक सजा की बात है तो डॉक्टरों को भी सजा मिलती है बशर्ते कि सही ढंग से कोर्ट में बात को रखें। मारपीट करने से चीजें और बिगड़ जाती हैं।
संभावित समाधान: गलतियां ज्यादा भीड़ की वजह से होती है। ऐसे में इस समस्या का समाधान भी वही है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधार कर बड़े शहरों में भीड़ कम की जाए। दिल्ली में किसी भी मरीज को इमरजेंसी वॉर्ड में तभी भर्ती करे, जब उसे मोहल्ला क्लिनिक (जहां हो) रेफर करे। इससे इमरजेंसी में गैरजरूरी भीड़ कम होगी। साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाना चाहिए। अभी यह जीडीपी का 1.15 फीसदी है। यह 3 पर्सेंट हो।

मुद्दा 4
OPD में मरीजों को पूरा वक्त न देना
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): डॉक्टर आम तौर पर प्राइवेट अस्पतालों में तो मरीज को सही तरीके से देखते हैं। हां, पैसा बनाने के लिए कई जांच ऐसे ही लिख देते हैं। सरकारी अस्पतालों में बस संख्या की गिनती करते हैं। एक मरीज को 1 या 2 मिनट में देखकर निपटा देते हैं। मरीज की तसल्ली नहीं होती।

डॉक्टरों का पक्ष: अगर सही तरीके से मरीज को देखना और उसकी बीमारियों के बारे में जानना है तो ओपीडी में कम से कम 20 मिनट का समय देना चाहिए, लेकिन हमारे पास मरीजों की भीड़ इतनी होती है कि यह मुमकिन नहीं है। हम एक मरीज पर 2 से 4 मिनट तक का समय ही दे पाते हैं। जहां तक प्राइवेट और सरकारी की बात है तो प्राइवेट में भीड़ कम होती है और सरकारी में बहुत ज्यादा।
संभावित समाधान: सरकरी अस्पतालों में एक दिन में एक विभाग में मरीजों की संख्या निश्चित होनी चाहिए। मसलन, ऑर्थो में रोज 300 मरीज ही देखे जाएंगे। इससे ज्यादा नहीं। इससे मरीजों को क्वॉलिटी वाला इलाज मिल पाएगा और गलतियां भी कम होंंगी और तनाव में कमी आएगी। इससे मरीज भी ज्यादा संतुष्ट होंगे।

मुद्दा 5
सीनियर डॉक्टरों का गायब रहना
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): अस्पताल सरकारी हो या प्राइवेट, सब जगह मरीजों के संपर्क में जूनियर डॉक्टर ही रहते हैं। सीनियर डॉक्टर तो एक-दो मिनट के लिए ही आते हैं या फोन पर ही निर्देश देकर खानापूर्ति कर लेते हैं। इलाज के दौरान जूनियर डॉक्टर से बात करने पर वे कई बार बातों को घुमा देते हैं और सीनियर डॉक्टर नहीं हैं, ऐसा कहकर टाल देते हैं।

डॉक्टरों का पक्ष: सीनियर डॉक्टरों के पास इतना वक्त नहीं होता कि वह हर वक्त मरीज के साथ जुटा रहे। इसलिए वे रेजिडेंट डॉक्टरों के सहारे अपना काम चलाते हैं। इन्हें जूनियर रेजिडेंट कहना ही गलत है। इन्हें यंग डॉक्टर कहना चाहिए। अगर ये न हों तो सीनियर डॉक्टर एक कदम नहीं चल सकते। कोई भी ऑपरेशन नहीं कर सकते। आईवी लगाना भी सीनियर डॉक्टर भूल जाते हैं।
संभावित समाधान: मरीज को इस बारे में जागरूक करने की जरूरत है कि जूनियर-सीनियर डॉक्टर से इलाज की क्वॉलिटी में कोई फर्क नहीं पड़ता है। अस्पतालों में यह सिस्टम हमेशा से चलता आ रहा है। हां, सीनियर डॉक्टरों को भी मरीज को ज्यादा वक्त देना चाहिए ताकि मरीजों की पूरी तसल्ली हो।

मुद्दा 6
डॉक्टरों से मारपीट के मामले बढ़ना
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): डॉक्टर अब ज्यादा लापरवाह हो गए हैं। मरीज को देखने और यहां तक कि सर्जरी के दौरान भी कई बार वे मोबाइल पर बातचीत में लगे होते हैं। वे अब ज्यादा लालची हो गए हैं। मेडिकल प्रफेशन में वह लूटने के लिए ही आते हैं। पहले ऐसा नहीं था। पहले डॉक्टरों में सेवा भाव होता था।

डॉक्टरों का पक्ष: ऐसा नहीं है। पहले भी डॉक्टर मरीजों को ठीक करने की ही कोशिश करते थे। अब भी डॉक्टरों की यही चाहत होती है। लोगों में अब धैर्य की कमी होती जा रही है। हर बात के लिए लोग डॉक्टरों को ही दोषी मानते हैं। कई बार सरकार या प्रशासन के कुप्रबंधन के कारण डॉक्टरों की कमी होती है या मशीनें भी काम नहीं करतीं। पर डॉक्टर ही मरीजों के सामने आते हैं वही मारपीट के शिकार बनते हैं।
संभावित समाधान: कोई भी समाधान मारपीट से नहीं हो सकता। इस बारे में मरीजों को शिक्षित किया जाना चाहिए। समाज के प्रभावशाली लोगों को सोशल मीडिया पर बयान जारी करने चाहिए कि डॉक्टराें के साथ मारपीट करके हम अपना ही नुकसान करते हैं। इस वजह से बहुत से डॉक्टर गंभीर मामलों में इलाज करने से इनकार कर देते हैं और मरीज की जान चली जाती है।

मुद्दा 7
शिकायतें दूर करने का पुख्ता सिस्टम
जनता (वकील, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट): मरीजों को कुछ मालूम ही नहीं होता कि अगर वे किसी डॉक्टर के इलाज से असंतुष्ट हैं तो वे किसके पास जाकर शिकायत करें। इस बारे में अस्पताल में जानकारी वाले बोर्ड कहीं दिखाई नहीं देते। अस्पताल प्राइवेट हो या सरकारी, सब जगह यही हाल है। सामने डॉक्टर होता है तो वही गुस्से का शिकार बन जाता है।

डॉक्टरों का पक्ष: मरीजों को हमसे शिकायतें हो सकती हैं क्योंकि न तो सिस्टम परफेक्ट होता है आर न हम डॉक्टर। लेकिन हमारे पास इतना वक्त नहीं होता कि हम विस्तार से सभी मरीज और परिजनों को समझाते रहें। अस्पताल के बड़े अधिकारियों को कुछ ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए कि मरीज और उसके परिजनों की शिकायतों की सुनवाई हो सके। इस बारे में काउंसलर भर्ती करना एक समाधान हो सकता है।
संभावित समाधान: अस्पताल में जगह-जगह बोर्ड लगे हों कि शिकायत होने की स्थिति में फलां काउंसलर से मिलें। साथ में काउंसलर का मोबाइल नंबर और कमरा नंबर भी हो। मरीज और उसके परिजनों को समझाने का काम काउंसलर का होगा। इससे डॉक्टरों पर दबाव घटेगा।

किसने क्या कहा
इलाज को लेकर मरीजों की जानकारी बढ़ी है, लेकिन डॉक्टरों का रवैया अब भी वही है। मरीज जितने जानकार होंगे, उनकी उम्मीदें उतनी ही बढ़ेंगी। मरीज का जो अधिकार है, वह उन्हें मिलना ही चाहिए। डॉक्टर्स डे तो सच मायने में मरीजों को मनाना चाहिए, डॉक्टरों को नहीं।
-डॉ. के. के. अग्रवाल, अध्यक्ष, हार्ट केयर फाउंडेशन

यह सच है कि अस्पतालों में विवाद हमेशा इमरजेंसी के मामलों में होता है। इमरजेंसी को अगर कमर्शल करेंगे तो ऐसे मामले आएंगे ही। वहां पर लोगों के जीवन-मरण की बात होती है। इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करें। इमरजेंसी में सबको मुफ्त इलाज की सुविधा दें। अगर कुछ कमी है तो सरकार इसकी जिम्मेदारी ले।
-डॉ. गिरीश त्यागी, प्रेसिडेंट, दिल्ली मेडिकल ऐसासिएशन

डॉक्टरों को यह समझना होगा कि वे पैसा कमाने के लिए इस प्रफेशन में नहीं आए हैं। यह सेवा का काम है। उन्हें किसी दूसरे फील्ड में जाना चाहिए।
-प्रफेसर श्रीराम खन्ना, कन्ज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट

90 फीसदी लोग आज भी डॉक्टरों पर भरोसा करते हैं, लेकिन इस सरकारी सिस्टम से पब्लिक खुद परेशान रहती है, उसे कुछ भी समय पर नहीं मिल पाता। अस्पताल की कमियों को लेकर मरीज को लगता है कि यह काम डॉक्टर का है। जरूरत है कि मीडिया आम लोगों को बताए कि यह काम सरकार का है।
-डॉ. विजय कुमार, असिस्टेंट प्रफेसर, एम्स

सेहत पर खर्च करने के मामले में नेपाल और भूटान से भी कम हम अपनी जीडीपी का हिस्सा खर्च करते हैं। ऐसे में हम और देश की जनता क्या उम्मीद कर सकते हैं? हर साल चमकी बुखार मुजफ्फरपुर में आता है, बच्चे मरते हैं। इसके बावजूद सरकार और प्रशासन पहले से तैयारी नहीं करते।
-डॉ. अमरिंदर सिंह, प्रेसिडेंट, रेजिडेंट डॉक्टर्स ऐसासिएशन, एम्स

जनप्रतिनिधि तरह-तरह की अपील करते हैं। लाल किले से पीएम मोदी ने अपील की सफाई को लेकर, ठीक वैसे ही अगर वे अपील करें कि डॉक्टरों के साथ हिंसा न करें तो इसका बहुत फर्क पड़ेगा।
-डॉ. अंकित ओम, अध्यक्ष, यूनाइटेड रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन

मेडिकल लापरवाही के मामले उपभोक्ता अदालतों में अक्सर आते हैं, लेकिन इस पर फैसला होने में बरसों लग जाते हैं। कानून में भी सुधार की जरूरत है।
-अंकित गुप्ता, ऐडवोकेट, कन्ज्यूमर अफेयर्स

धैर्य रखने की जरूरत दोनों को है। दोनों एक-दूसरे की मजबूरी और जरूरत को सही ढंग से नहीं समझेंगे, समस्या बनी रहेगी।
-डॉ. विवेक दीक्षित, सीनियर साइंटिस्ट, डिपार्टमेंट ऑफ ऑर्थोपेडिक्स, एम्स

किसी भी प्रफेशन में ऐसा नहीं होता कि आप सर्विस से संतुष्ट न हों तो मारपीट करें तो फिर डॉक्टरों के साथ ऐसा क्यों होना चाहिए।
-डॉ. सुमेध संदनशिव, अध्यक्ष, फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन

संडे नवभारत टाइम्स  

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