अग्नि- 5 पर विशेष
बीस मिनट में पांच हजार किलोमीटर की दूरी तक का अचूक निशाना साधने वाली बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण देश के लिए सामरिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, जनता का मनोबल मजबूत करने की दृष्टि से भी अहम है। हमें यह कामयाबी आशंकाओ के उस संक्रमण काल में मिली है, जब देश के सेना प्रमुख सेना के पास गोला-बारूद की कमी बता रहे थे और देश के प्रधानमंत्री विज्ञान समारोह में यह कमजोरी जाहिर कर रहे थे कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत चीन से पिछड़ रहा है। इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधानों में नवोन्मेष के लिए पूंजीपतियों की शरण में जाने की जरूरत है। मसलन, शोध केंद्रों में निजी पूंजी निवेश जरूरी है। ऐसी विरोधाभासी अटकलों में 85 प्रतिशत स्वदेशी तकनीक से निर्मित अग्नि-5 यह उम्मीद जगाती है कि हम देसज ज्ञान, स्थानीय संसाधन और बिना किसी बाहरी पूंजी के वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल करने में सक्षम हैं। वैसे भी पश्चिमी देशों ने भारत को मिसाइल तकनीक देने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। इस लिहाज से अग्नि-5 की उपलब्धि पश्चिमी देशों के लिए भी आइना दिखाने जैसा है। भारत मे रक्षा उपकरणों की उपलब्धता की दृष्टि से प्रक्षेपास्त्र श्रृंखला प्रणाली की अहम भूमिका है। अब तक इस कड़ी में देश के पास पृथ्वी से हवा में और समुद्री सतह से दागी जा सकने वाली मिसाइलें ही उपलब्ध थीं, लेकिन अग्नि-5 ऐसी अद्भुत मिसाइल है, जो सड़क और रेलमार्ग पर चलते हुए भी दुश्मन पर हमला बोल सकती है। सबसे अलग अग्नि-5 अग्नि-5 के निर्माण में कनस्तर तकनीक का इस्तेमाल किए जाने से जासूसी उपकरण और उपग्रह भी यह मालूम नहीं कर पाएंगे कि इसे कहां से दागा गया है और यह किस दिशा में उड़ान भर रही है। इसलिए दुश्मन देश के लिए इसे बीच में ही नष्ट करना नामुमकिन होगा। इसकी खासियत यह भी है कि इसे एक बार छोड़ने के बाद लक्ष्य साधने वाले सैनिक और वैज्ञानिक भी रोक नहीं पाएंगे। 50 टन वजनी इस मिसाइल में एक हजार किलोग्राम परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता है। अमेरिका को छोड़कर शेष यूरोप, पूरा एशिया और अफ्रीका इसकी मारक क्षमता के दायरे में होंगे। भारत को बार-बार आखें दिखाने वाले चीन की राजधानी बीजिंग ही नहीं, चीन का उत्तर में सबसे दूर बसा नगर हार्बिन भी अग्नि-5 जद में आ गया है। यही वजह है कि अग्नि-5 के सफल परीक्षण के तत्काल बाद चीन ने नरम रुख अपनाते हुए कहा भी कि चीन हथियारों के बाबत भारत से प्रतिस्पर्धा में शमिल नहीं है। हालांकि चीन ने यह आशंका जरूर जताई है कि इस परीक्षण के बाद एशियाई परिक्षेत्र में हथियारों का भंडारण करने की होड़ लगेगी। हालांकि यह सच्चाई नहीं है। पाकिस्तान, ईरान और कोरिया पहले से ही मिसाइलों के निर्माण और उनके परीक्षण में लगे हैं। विकसित और घातक हथिायारों के कारोबार में लगे देश भी अपने हथियारों को बेचने के लिए कई देशों को उकसाने में लगे रहते हैं। आज पूरी दुनिया के लिए भस्मासुर साबित हो रहे तालिबानी आतंकवादियों को हथियार मुहैया कराने का काम यूरोपीय देशों ने अपने हथियार खपाने के लिए ही किया था। कश्मीर में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद और उड़ीसा व छत्तीसगढ़ में चीन द्वारा पोषित माओवादी उग्रवाद ऐसी ही बदनीयती का विस्तार हैं। हालांकि इस परीक्षण के बाद भारत के प्रति कालांतर में कई देशों की सामारिक रणनीति में बदलाव देखने को मिलेगा। अतीत की उपलब्धियां भारत में एकीकृत विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1983 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुई थी। इसका मुख्य रूप से उद्देश्य देसज तकनीक और स्थानीय संसाधनों के आधार पर मिसाइल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करना था। इस परियोजना के अंतर्गत ही अग्नि, पृथ्वी, आकाश और त्रिशूल मिसाइलों का निर्माण किया गया। टैंकों को नष्ट करने वाली मिसाइल नाग भी इसी कार्यक्रम का हिस्सा है। पश्चिमी देशों को चुनौती देते हुए यह देसज तकनीक भारतीय वैज्ञानिकों ने इंदिरा गांधी के प्रोत्साहन से इसलिए विकसित की थी, क्योंकि सभी यूरोपीय देशों ने भारत को मिसाइल तकनीक देने से इनकार कर दिया था। भारत द्वारा पोखरण में किए गए पहले परमाणु विस्फोट के बाद रूस ने भी उस आरएलजी तकनीक को भारत को देने से मना कर दिया, जो एक समय तक मिलती रही थी। लेकिन एपीजे अब्दुल कलाम की प्रतिभा और सतत सक्रियता से हम मिसाइल क्षेत्र में मजबूती से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते रहे। सिलसिलेवार मिसाइलों के सफल परीक्षण के कारण ही शीर्ष वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को मिसाइल मैन कहा जाने लगा। और अब मिसाइल लेडी डॉ. अब्दुल कलाम की सेवानिवृत्ति के बाद इस काम को गति दी महिला वैज्ञानिक टेसी थॉंमस ने। थॉमस आइजीएमडीपी में अग्नि-5 अनुसंधान की परियोजना निदेशक हैं। उन्हें भारतीय प्रक्षेपास्त्र परियोजना की पहली महिला निदेशक होने का भी श्रेय हासिल है। 20 साल पहले टेसी थॉमस ने एक वैज्ञानिक की हैसियत से इस परियोजना में नौकरी की शुरुआत की थी। अग्नि-5 से पहले सुरक्षा के क्षेत्र में उनका प्रमुख अनुसंधान री-एंट्री व्हीकल सिस्टम विकसित करना है। इस प्रणाली की विशिष्टता है कि जब मिसाइल वायुमंडल में दोबारा प्रवेश करती है तो अत्यधिक तापमान 3000 डिग्री सेल्सियस तक पैदा हो जाता है। इस तापमान को मिसाइल सहन नहीं कर पाती और वह लक्ष्य भेदने से पहले ही जलकर खाक हो जाती है। आरवीएस तकनीक बढ़ते तापमान को नियंत्रण में रखती है। लिहाजा, मिसाइल बीच में नष्ट नहीं होती। इस उपलब्धि के हसिल करने के बाद से ही टेसी थॉमस को मिसाइल लेडी कहा जाने लगा है। थॉमस को रक्षा उपकरणों के अनुसांधन पर इतना नाज है कि उन्होंने अपने बेटे का नाम लड़ाकू विमान तेजस के नाम पर तेजस थॉमस रखा है। थॉमस मिसाइल अनुसांधन में लगे 400 वैज्ञानिक के समूह का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने में लगी हैं। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भुवनेश्वर में विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में कहा था कि वैज्ञानिक अनुसंधान के मामलों में भारत चीन से पिछड़ रहा है। यहां हैरानी इस बात पर थी कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्या का समाधान उन्होंने निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाशा, जबकि हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को पहले ही बाजार के हवाले किया जा चुका है। नतीजतन, शिक्षा मौलिक सोच और गुणवत्ता का पर्याय बनने की बजाए डिग्री हासिल कर केवल वैभव और विलास का जीवन व्यतीत करने की पर्याय भर रह गई है। ये हालात प्रतिभाशाली व्यक्ति के मौलिक चिंतन और शोध की गंभीर दृष्टि और भावना को पलीता लगाने वाले हैं। यहां हमें गौर करने की जरूरत है कि डॉ. अब्दुल कलाम बेहद गरीबी की हालत में सरकारी पाठशालाओं से ही शिक्षा लेकर महान वैज्ञानिक बने हैं। यही नहीं, उनकी माध्यमिक तक की शिक्षा मातृभाषा में हुई है। लिहाजा, डॉ. कलाम और टेसी थॉमस इस बात के प्रतीक हैं कि वैज्ञानिक उपलब्धियां शिक्षा को बाजार के हवाले कर देने से कतई संभव नहीं हैं? इन्हें देशज तकनीक और मौलिक सोच के वातावरण में विकसित करने की जरूरत है। लेखक -प्रमोद भार्गव (साभार –दैनिक जागरण )
बंद होनी चाहिए हथियारों की होड़
वैश्विक स्तर पर नाभिकीय हथियारों की होड़ एक अशांत और भययुक्त विश्व का निर्माण करती जा रही है। शक्तिशाली और संपन्न देशों के पास पर्याप्त हथियार हैं। जो देश तेजी से विकास करते जा रहे हैं, उनके लिए हथियारों की खरीद और घातक मिसाइलों का परीक्षण एक प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए जरूरी लगता जा रहा है। ये देश अपनी संप्रभुता की रक्षा और दिखावे के नाम पर आवश्यकता से अधिक हथियार खरीदने और हथियार विकसित करने में व्यय करते हैं। भारत का नाम भी इस सूची में दर्ज है। स्वीडन की संस्था स्टॉक होम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सर्वाधिक हथियार आयातक देश बन चुका है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत, चीन और पाकिस्तान ने विश्व के कुल हथियार आयात का लगभग पांच प्रतिशत आयात किया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2007 से 2011 के बीच भारत के हथियारों की खरीद में 38 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसी दौरान पाकिस्तान ने चीन से 50 जेएफ-17 और अमेरिका से 30 जेएफ-16 लड़ाकू विमान खरीदे हैं। चीन जो कुछ वर्ष पहले तक हथियार आयात के मामले में पहले स्थान पर था, अब चौथे पायदान पर आ गया है। यही नहीं, दुनिया के सर्वाधिक पांच हथियार आयातक देश एशिया के ही हैं। हालांकि विश्व युद्ध जैसी अब कोई स्थिति नहीं है, लेकिन विश्व शांति के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। आज कई देश हथियारों की खरीद पर इतना अधिक धन व्यय कर रहे हैं कि उनके विकास के कार्यो के लिए धन की कमी पड़ती जा रही है। विडंबना यह भी है कि हथियारों की होड़ में शामिल देश अपने परमाणु हथियारों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी नहीं कर रहे हैं। यह भी वजह है कि दुनिया में संदेह का माहौल है। पाकिस्तान का उदाहरण हमारे सामने है, जिसने भारत से परमाणु शक्ति संपन्न बनने की प्रतिस्पर्धा तो कर ली है, लेकिन उसके खुद के परमाणु हथियार सुरक्षित नहीं हैं। आज पूरी दुनिया की चिंता पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा को लेकर है। पिछले दिनों दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में दूसरे परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इस सम्मेलन में अमेरिका, भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान सहित 53 देश शामिल हुए थे। इस सम्मेलन का प्रमुख एजेंडा नाभिकीय सुरक्षा सहित आतंकवाद और दक्षिण कोरिया। वर्तमान में जिस तरह पूरी दुनिया परमाणु सुरक्षा को लेकर चिंतित है, ऐसे में सियोल जैसे सम्मेलनों से काफी उम्मीदें हैं। एक तरफ असैन्य परमाणु सुरक्षा की चिंता है तो दूसरी तरफ आतंकवाद और परमाणु हथियारों के संभावित खतरे की आहट भी महसूस की जा रही है। भारत के लिए यह ज्यादा चिंता की बात है, क्योंकि भारत आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देश है। इसकी यह चिंता 90 के दशक से शुरू हुई, जो 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद से और भी बढ़ गई है। आतंकवाद से त्रस्त सभी देश इस दिशा में कार्रवाई करने को आतुर हैं कि किसी भी तरह से आतंकी गतिविधियों को ध्वस्त किया जाए, लेकिन मौजूदा हालात में यह आसान नहीं लगता। खासकर ऐसे माहौल में, जब तालिबान का विस्तार होता जा रहा है। अफगानिस्तान के अलाव पाकिस्तान में भी उसकी गहरी पैठ होती जा रही है। वर्ष 2014 तक अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी के बाद की स्थिति और भी जटिल हो सकती है। इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर तालिबान का कब्जा हो जाए। बहरहाल, विश्वभर में परमाणु हथियारों और लंबी दूरी वाली मिसाइलों के परीक्षण के कारण कई देशों के बीच संबंध कड़वे हुए हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच मतभेदों और दोनों मुल्कों की आर्थिक विषमताओं की वजह हथियारों की होड़ भी है। भारत और चीन भी हथियारों और मिसाइलों के मामले में एक-दूसरे से होड़ करते नजर आते हैं। इसी तरह उत्तरी कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच भी घातक हथियारों की होड़ लगी रहती है। हथियारों को आज केवल रक्षा का विषय न मानकर वैभव और शक्ति संपन्न होने के दावे को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है। यह घातक प्रवृत्ति है। विश्व समुदाय को हथियारों और परमाणु तकनीक के प्रसार पर अंकुश लगाने के उपाय करने चाहिए। लेखक -गौरव कुमार साभार –दैनिक जागरण (राष्ट्रीय )
अभी और भी हैं ‘अग्नि’ परीक्षाएं
अग्नि-5 के सफल परीक्षण के साथ वि में भारत के स्वदेशी मिसाइल कार्यक्रम की धमक एक बार फिर गूंज रही है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बाद भारत आईसीबीएम मिसाइल तैयार करने वाला छठा देश बन चुका है। पांच हजार किलोमीटर तक मारक क्षमता की अग्नि-5 के परीक्षण से भारत के प्रतिद्वंद्वी देश खासकर चीन बहुत बेचैन है। चीन की यह बेचैनी वाजिब भी है क्योंकि एशिया में भारत को ही उसके समानांतर देखा जाता है। हालांकि अब अग्नि-5 के द्वारा भारत की पहुंच सिर्फ एशिया तक ही नहीं, बल्कि यूरोप और अफ्रीका तक भी होगी। अग्नि-5 को और कारगर बनाने के लिए अभी इसके कई और परीक्षण होंगे जिसके बाद इसे सेना का हिस्सा बनाया जाएगा। इससे पहले भारत ने 3500 किलोमीटर रेंज वाली अग्नि-4 का सफल परीक्षण किया था। अग्नि-5 इसी का विस्तार कहा जा सकता है। तीन चरणों वाली अग्नि-5 मिसाइल में ठोस ईधन का इस्तेमाल होगा। अग्नि-5 पहले रॉकेट की मदद से 40 कि मी की ऊंचाई तक जाएगी, जहां से इसके दूसरे चरण का रॉकेट सक्रिय होगा और ये 150 किमी की ऊंचाई तक पहुंच जाएगी। इसके बाद तीसरे चरण के रॉकेट की मदद से अग्नि-5 तीन सौ किमी की ऊंचाई पर पहुंचेगी और अंत में 800 किमी की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद यह लक्ष्य भेदेगी। यह मिसाइल परमाणु हथियारों के साथ कई वॉरहेड ले जाने में सक्षम है। मोबाइल लांचर होने की वजह से अग्नि-5 कहीं भी तैनात की जा सकती है। भारत का मिसाइल कार्यक्रम आजादी के तकरीबन दस साल बाद 1958 में ही शुरू हो गया था जब स्पेशल वीपंस डेवलपमेंट टीम का गठन हुआ। बाद में इसका नाम डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैबोरेट्रीज (डीआरडीएल) कर दिया गया। डीआरडीएल ने फ्रांस की मदद से लंबी दूरी की मिसाइल बनाने की कोशिश की, साथ में जमीन से हवा में मार करने वाली रूस की एसए-2 मिसाइल की कॉपी तैयार करनी चाही लेकिन दोनों प्रोजेक्ट फेल हो गए। लेकिन इन असफलताओं ने कुछ हद तक देश के मिसाइल कार्यक्रम की नींव तो रख ही दी। 1984 में एपीजे अब्दुल कलाम के निर्देशन में फिर मिसाइल कार्यक्रम की शुरुआत हुई। 1988 में पृथ्वी मिसाइल के पहले परीक्षण के बाद पच्चीस साल से भी कम वक्त में देश के वैज्ञानिकों ने अग्नि- 5 तक का सफर तय कर लिया है। भारत का मिसाइल कार्यक्रम शुरू में पाकिस्तान को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था लेकिन अग्नि-5 की क्षमता चीन को नजर में रखकर तय की गई। अग्नि-5 की वजह से चीन का सुदूर क्षेत्र भी भारत की पहुंच में होगा। लेकिन फिलहाल अग्नि- 5 मध्य से लंबी दूरी की तकनीक हासिल करने का जरिया मानी जा सकती है। अग्नि श्रेणी से जुड़ी दो और मिसाइलों पर भी काम जारी है। इनमें के-15 और के-4 शामिल हैं। ये पनडुब्बी से दागी जाने वाली मिसाइलें है। 750 किमी मारक क्षमता वाली के-15 और 3500 किमी क्षमता वाली के-4 भविष्य में देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत का मुख्य हथियार होंगी। इनके जरिए देश परमाणु हमला करने के तीनों माध्यमों से लैस हो जाएगा। चीन के पास अग्नि-5 से दोगुनी रेंज वाली डीएफ-31 जैसी मिसाइल है इसलिए भारत की नजर अब अग्नि-6 पर होगी। अग्नि-6 जिसे ‘सूर्या’ नाम भी दिया गया है, भारत के मिसाइल कार्यक्रम का भविष्य कही जाती है। 6-10 हजार किमी रेंज वाली सूर्या- 1 मिसाइल अग्नि-5 के बाद भारतीय वैज्ञानिकों का अगला लक्ष्य है और अगर यह हासिल हो जाता है तो मुमकिन है अगले 5 से 6 सालों में देश सूर्या-2 को भी देखे। सूर्या-2 की रेंज 15 से 20 हजार किमी तक होगी और यह पश्चिमी देशों की आईसीबीएम ‘मिनटमैन’ और ‘ट्राइडेंट’ से अव्वल साबित होगी। लेकिन भारतीय वैज्ञानिकों के लिए यह आसान चुनौती नहीं होगी क्योंकि पीएसएलवी के मुकाबले जीएसएलवी के प्रक्षेपण में भारत को बेहतर कामयाबी नहीं मिली है। 10-20 हजार किलोमीटर रेंज के लिए लंबी दूरी तक चलने वाले रॉकेट तकनीक की भी जरूरत होगी और यह जीएसएलवी की मदद से ही मुमिकन है लेकिन जीएसएलवी कार्यक्रम के तहत 2010 में हुए दो प्रक्षेपण विफल रहे थे। इससे इसरो को गहरा झटका लगा था और देश को आर्थिक नुकसान भी हुआ। सूर्या-1 और सूर्या-2 की सफलता जीएसएलवी की कामयाबी से ही मुमकिन है क्योंकि इसमें प्रयुक्त क्रायोजेनिक इंजन इसका आधार है। दिक्कत यह है कि स्वदेशी तकनीक वाला क्रायोजेनिक इंजन विफल रहा है और अग्नि-5 के बाद अग्नि-6 बेहतर क्रायोजेनिक इंजन के आधार पर ही तैयार की जा सकती है। लेकिन अग्नि-5 की सफलता के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जल्द ही यह बाधा भी दूर कर ली जाएगी। स्ट्रैटेजिक हथियार, चाहे वह परमाणु पनडुब्बी हो या फिर लंबी दूरी की मिसाइल, सरकार ने इनसे जुड़े बड़े फैसले लेने शुरू कर दिए हैं। इसकी मुख्य वजह सीमा पार से बढ़ता दबाव कहा जा सकता है जिसकी अनदेखी करना आसान नहीं है। अग्नि-5 के परीक्षण को लेकर चीन की तरफ से आ रहे बयानों से समझा जा सकता है कि दोनों देश आर्थिक संबंधों को लेकर कितने भी गंभीर क्यों न हों लेकिन सीमा को लेकर खींचतान जारी रहेगी और चीन, भारत को तब तक धमकाता रहेगा जब तक भारत सूर्या-1 जैसी मिसाइल से लैस न हो जाए। अभी चीन ने तिब्बत में कई ऐसी मिसाइलों को तैनात किया हुआ है जिनके निशाने पर भारत है। लंबी दूरी की ये मिसाइलें 8-10 हजार किलोमीटर तक मार कर सकती है। चीन अपनी परमाणु पनडुब्बियों को भी लंबी दूरी की परमाणु मिसाइलों से लैस कर चुका है। ऐसे में चीन की तुलना में भारतीय मिसाइल कार्यक्रम कुछ धीमा जरूर है लेकिन भविष्य में भारत उसके बराबर खड़ा दिखाई देगा और इसकी बुनियाद अग्नि-5 ने रख दी है।लेखक -सैयद मोहम्मद मुर्तजा,साभार -राष्ट्रीय सहारा
दैनिक जागरण सम्पादकीय
लंबी दूरी तक मार कर सकने वाली मिसाइल अग्नि-5 के सफल परीक्षण पर देश के साथ-साथ दुनिया की प्रतिक्रिया से यह स्वत: स्पष्ट है कि भारत ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। इस कामयाबी के लिए रक्षा वैज्ञानिक बधाई के हकदार हैं। उन्होंने वह कर दिखाया जो न केवल प्रतीक्षित था, बल्कि जिसकी आवश्यकता भी महसूस की जा रही थी। अग्नि-5 के सफल परीक्षण से रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की अहमियत तो बढ़ी ही है, देश का मान भी बढ़ा है। हमारे वैज्ञानिकों ने एक बार फिर यह साबित किया कि वे तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद देश की अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हैं। इस संदर्भ में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अग्नि-5 के लिए सरकार ने अप्रैल 2009 में बजट आवंटन किया और अप्रैल 2012 में हमारे वैज्ञानिकों ने लक्ष्य संधान कर लिया। यह भी महत्वपूर्ण है कि यह मिसाइल अस्सी फीसदी से अधिक स्वदेशी तकनीक और उपकरणों से सज्जित है। अग्नि-5 के सफल परीक्षण के रूप में मिली कामयाबी का एक अर्थ यह भी है कि भारत वह सब कर सकता है जो दुनिया के उन्नत राष्ट्र कर चुके हैं और इसके चलते अपनी गिनती विशिष्ट देशों में कराते हैं, लेकिन कोई भी महसूस करेगा कि विज्ञान एवं तकनीक के सभी क्षेत्रों में जैसी सफलताएं अब तक अर्जित हो जानी चाहिए थीं वे नहीं हो सकी हैं। नि:संदेह इसके लिए हमारे नीति-नियंता जिम्मेदार हैं। इसका कोई कारण नहीं कि मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में अपनी सफलता से दुनिया का ध्यान आकर्षित करने वाला भारत पारंपरिक हथियारों के मामले में अब भी सबसे बड़ा आयातक बना हुआ है। आखिर क्या कारण है कि हथियारों और उपकरणों के मामले में भारत अभी भी आत्मनिर्भर होता नहीं दिखता? रक्षा हथियारों और उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए जो अनेक योजनाएं-परियोजनाएं शुरू भी हुई हैं वे मुकाम तक पहुंचती नहीं दिख रही हैं। यह ठीक है कि आने वाले समय में परंपरागत हथियारों की आवश्यकता कम होती जाएगी, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमें ऐसे हथियार बाहर से खरीदने पड़ें। अब जब यह और अच्छे से स्पष्ट हो रहा है कि मिसाइल तकनीक और निर्माण के मामले में भारत सही दिशा में है तब फिर यह भी आवश्यक हो जाता है कि उन उपकरणों को विकसित करने पर भी ध्यान दिया जाए जो भविष्य के हथियार बनेंगे अथवा प्रतिरोधक क्षमता के रूप में इस्तेमाल होंगे। अग्नि-5 के परीक्षण के बाद चीन को छोड़कर अन्य प्रमुख राष्ट्रों की प्रतिक्रिया सकारात्मक है। पश्चिमी देश इससे संतुष्ट दिख रहे हैं कि अंतत: भारत चीन तक मार कर सकने वाली परमाणु क्षमता से लैस मिसाइल का निर्माण करने में सक्षम हो गया। यह क्षमता हासिल करना भारत के लिए आवश्यक था, लेकिन उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके और चीन के बीच हथियारों की होड़ न शुरू होने पाए। यदि भारत इस होड़ में फंसता है तो कुछ वैसा ही परिदृश्य बनेगा जैसा एक समय अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच उभरा था। हालांकि हथियारों की यह होड़ बहुत कुछ चीन के रवैये पर निर्भर करेगी, क्योंकि वही है जो अनावश्यक आक्रामकता का प्रदर्शन करता रहता है, लेकिन इसके बावजूद भारत को इसके प्रति सतर्क रहना होगा कि वह चीन के साथ हथियारों की होड़ में न फंसने पाए।
अग्नि जरूरी है उसकी तपिश नहीं
अग्नि-5 पर – द सी एक्सप्रेस
पिछले बुधवार को भारतीय मीडिया में सुबह से ही अग्नि-5 के परीक्षण की तैयारियों का विवरण जिस तरह आ रहा था, उससे लगता है कि किसी स्तर पर इस खबर को सायास ओवर प्ले करने का फैसला किया गया था। पिछले कुछ समय से सेना और रक्षा व्यवस्था को लेकर नकारात्मक बातें मीडिया में आ रही थीं। शायद इस परीक्षण से उनका असर कुछ कम हो।
बुधवार की शाम परीक्षण नहीं हो पाया, क्योंकि मौसम साथ नहीं दे रहा था, पर गुरुवार की सुबह परीक्षण सफल हो गया। उसके बाद दिनभर अग्नि की खबरें छाई रहीं। देश की सुरक्षा और भारतीय तकनीकी विकास के लिहाज से यह खबर महत्वपूर्ण है और इस परीक्षण से जुड़े लोगों को बधाई देनी भी चाहिए, पर इससे जुड़े कुछ और सवालों पर भी हमें सोचना चाहिए।
विदेश नीति के लिहाज से पिछले दो हफ्तों में काफी सरगर्मियां रही हैं।पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के दौरे के बाद दोनों के बीच व्यापार को बढ़ाने की कोशिशें तेज हो गई हैं। एक महत्वपूर्ण बात पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष अशफाक कियानी ने सियाचिन के संदर्भ में कही है। यह बात सिर्फ सियाचिन तक सीमित होती तब इसका अर्थ कुछ और होता।
जनरल कियानी ने सुरक्षा की जरूरतों और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाने और भारत के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व स्थापित करने का सुझव दिया है। पिछले हफ्ते काबुल सहित अफगानिस्तान के कई शहरों में हुए तालिबानी हमलों और पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा क्षेत्र पर में बन्नू जेल पर हमला करके बड़ी संख्या में आतंकी अपराधों से जुड़े लोगों को छुड़ा ले जाने की घटनाओं के तार भी कहीं न कहीं इन सब बातों से जुड़े हैं। शांति, सुरक्षा और विकास का तालमेल कैसे हो और हमारी मूल समस्या क्या है? अग्नि मिसाइल पर चर्चा के दौरान हमारे एंकर इस बात पर खासतौर से जोर दे रहे थे कि दुनिया के सिर्फ पांच देशों के पास ही अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हैं। और यह भी कि अब समूचा चीन हमारे निशाने पर है। हमारे मीडिया ने चीन के ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में व्यक्त विचारों को भी प्रसारित किया, जिसमें कहा गया था कि भारत को चीन से बराबरी की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसमें यह भी कहा गया था कि भारत के लोग मिसाइली विभ्रम में रहते हैं। हालांकि इस लेख में भारत के प्रति ऐसी कोई कड़वी बात नहीं थी, पर हमारे मीडिया को ऐसी बातों की तलाश थी।
चीन के इस अखबार की प्रतिक्रिया के मुकाबले वहां के विदेश विभाग के प्रवक्ता की प्रतिक्रिया संयत थी। उन्होंने कहा कि भारत हमारा प्रतिस्पर्धी नहीं सहयोगी देश है। पर मीडिया का ध्यान इस प्रतिक्रिया पर नहीं गया। क्या हमारे मीडिया की प्रतिक्रिया अतिरंजित और भड़काऊ थी? क्या हमें अपनी सुरक्षा पर ध्यान नहीं देना चाहिए और क्या अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना गलत है? एक चैनल पर बातचीत के दौरान पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने कहा कि यह हायपर नेशनलिज्म है। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले इटली और जर्मनी में इसी प्रकार की प्रतिक्रियाएं आती थीं। प्रफुल्ल बिदवई इस किस्म के खर्चो को निर्थक मानते हैं। यह धारणा भी एकांगी है। इतने बड़े और विविधता से भरे देश की सुरक्षा व्यवस्था नहीं होगी, तो उसे चलाना मुश्किल हो जाएगा। एक बड़ी अर्थव्यवस्था को सुरक्षा भी चाहिए। यह सुरक्षा जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, जर्मनी, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भी चाहिए। न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी यही सवाल किया है कि भारत को चीनी प्रेत-बाधा क्यों लगी है? तकनीक विकसित करना ठीक है, पर ऐसा क्यों लगे कि हम हथियारों की दौड़ चाहते हैं। मिसाइल परीक्षण का यह काम अचानक नहीं हो गया और न अग्नि कार्यक्रम आज शुरू हुआ है।
यह एक योजनाबद्ध कार्यक्रम है, जिसमें अग्नि-5 से आगे की मिसाइलों के परीक्षण भी होंगे। पर यह एक सामान्य गतिविधि है। इससे जुड़ा आवेश निर्थक है। बेहतर होता कि हम इस बात पर ध्यान देते कि जब अग्नि का परीक्षण हो रहा था और मुम्बई के लोकल ट्रेन यात्री भटक रहे थे। उसके सिग्नल सिस्टम में आई खराबी को ठीक करने में कई दिन लगे। हमें लाखों करोड़ रुपये चाहिए , ताकि ग्रामीण और शहरी परिवहन व्यवस्था सुधर सके। हमारा आधार ढांचा बेहद कमजोर है। उसे सुधारने की जरूरत है।
किसी देश की सुरक्षा उसके नागरिकों की ताकत पर निर्भर करती है, हथियारों पर नहीं। तकरीबन यही बात अब अशफाक कियानी कह रहे हैं। यह बात अफगानिस्तान के लोगों को भी समझनी चाहिए कि जरूरी है कि लोगों का और लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास और सार्वजनिक खुशहाली। अब समय लड़ाइयों का नहीं है।
सब ठीक रहा तो भारत की विकास दर अगले साल फिर से आठ फीसदी को छू लेगी। सन् 2014 में चन्द्रयान-2 का प्रक्षेपण होगा। उसी साल भारत का आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। सन् 2016 में पहली बार दो भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी यान में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे। इसी दशक में भारत अपना मंगल ग्रह का अभियान भी शुरू करेगा। देश का हाइपरसोनिक स्पेसक्राफ्ट अवतार अब किसी भी समय सामने आ सकता है। न्यूक्लियर एनर्जी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार है। एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत पिछले साल नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है। नए राजमार्गो और बुलेट ट्रेनों का दौर भी शुरू होने वाला है।
प्राय: सभी बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलाने की योजना है। देश की ज्ञान आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है। हम विज्ञान और तकनीक के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। पर यह सब कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति की खुशहाली पर निर्भर करेगा। इन बातों का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी सुरक्षा की अनदेखी करें। पर सुरक्षा प्रतिष्ठानों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा भी न करें। हाल में हमारे फौजी जनरल ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर सुरक्षा जरूरतों में रह गई कुछ खामियों की ओर इशारा किया था।
एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हमारी 70 फीसदी रक्षा जरूरतें विदेशी खरीद से पूरी होती हैं। इसीलिए हम दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक माने जाते हैं। इस उद्योग का स्वदेशीकरण क्यों नहीं हो पाया? इस किस्म के सवालों पर से हमारा ध्यान हट जाता है और हम एक मिसाइल के साथ जुड़े राष्ट्रवाद में खो जाते हैं। सुरक्षा जरूरी मसला है, पर ठंडे मिजाज से विचार करने वाला है। आवेश की जरूरत नहीं है। जरूरत है समूचे दक्षिण एशिया में शांति और सहयोग की। लेखक -प्रमोद जोशी (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं )
अग्नि -5 पर डॉ.एल एस यादव
हरिभूमि
भारत की सबसे ताकतवर का मिसाइल अग्नि-5 का 19 अप्रैल को सफल परीक्षण किया गया। यह परीक्षण उड़ीसा के बालासोर में हुआ। अग्नि-5 मिसाइल के अचूक निशाने के लिए लेजर सेंसर से लेकर वातावरण में वापस आने के बाद वार करने वाले री-एंट्री व्हीकल की सतह पर कार्बन कंपोजिट मैटेरियल का विकास भी स्वदेशी तकनीक से किया गया है। यह 17़5 मीटर लंबी है। इसमें सात किलोमीटर लंबी वायरिंग है। यह मिसाइल तीन स्थितियों में मार करेगी। सबसे पहले इसे रॉकेट इंजन चालीस किलोमीटर ऊपर ले जाता है। दूसरी स्थिति में यह 150 किलोमीटर तक जाएगी। तीसरी स्टेज में 300 किलोमीटर तक जाती है। इसके बाद यह 800 किलोमीटर की उंचाई तक जाकर लक्ष्य की ओर जाती है। यह मिसाइल यदि एक बार छूट गई तो रोकी नहीं जा सकती। यह 1000 किलोग्राम से अधिक का परमाणु वारहेड ले जाने में सक्षम है। अग्नि-5 मिसाइल की आक्रामक क्षमता अत्यन्त घातक है। यह मात्र 20 मिनट में 5000 किलोमीटर की दूरी तय कर लेगी और डेढ़ मीटर के लक्ष्य को भेदने में सक्षम है। यह भारत के मिसाइल तरकश में सबसे लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल है और देश की सामरिक रणनीति में एक विशेष बदलाव लाएगी क्योंकि समस्त एशिया ,अफ्रीका महाद्वीप व यूरोप के अधिकांश हिस्से इसकी मारक जद में होंगे।
इस तरह भारत अब अमेरिका, रूस, चीन और फ्रांस के साथ इंटर कान्टीनेण्टल बैलिस्टिक मिसाइल के क्लब में शमिल हो गया है। अग्नि-5 अधिक दूरी तक मार करने वाली यह पहली मिसाइल होगी जिसकी मारक जद में चीन के सभी इलाके आएंगे। भारत के पूर्वोत्तर सीमान्त से अगर इसे छोड़ा जाए तो यह चीन की उत्तरी सीमा पर स्थित हरबिन को अपनी चपेट में ले लेगी। यह मिसाइल चीन की डोंगफोंग-31ए व अमेरिका की परशिंग मिसाइल की बराबरी वाली है। देश के विभिन्न भागों में तैनात किए जाने के बाद कमोवेश सारा संसार इसकी मारक दूरी में आ जाएगा। यदि इसे अमृतसर से छोड़ा जाए तो स्वीडन की राजधानी को भी निशाना बनाया जा सकेगा। वैसे भारतीय वैज्ञानिकों का पूरा ध्यान अग्नि र्शेणी की मिसाइलों को दुश्मन की बैलेस्टिक मिसाइल रोधी प्रणालियों को भेदने में सक्षम बनाने पर लगा हुआ है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन इन मिसाइलों को अधिक संहारक एवं घातक बनाने के लिए ऐसे पेलोड पर काम रहा है जो एक साथ कई नाभिकीय हथियार ले जा सके।
इस सफलता के बाद भारत का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन अपनी स्वदेशी तकनीक की एक नई ऊंचाई को हासिल कर लेगा। इसका वजन अग्नि-3 से एक टन ज्यादा है। यह तीन से दस परमाणु अस्त्र को ले जाने में सक्षम है और इसमें प्रत्येक अस्त्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर अलग-अलग निशाने लगाए जा सकने की खूबी है। इस मिसाइल का वारहेड मल्टीपल है और इसमें एंटी बैलेस्टिक मिसाइल की भी क्षमता होगी। दूसरे देशों के हमले से बचाव के लिए यह मिसाइल कवच प्रणाली से लैस होगी। इसे मोबाइल लांचर, रेल मोबाइल लांचर व कनस्तर युक्त मिसाइल पैकेज से भी दागा जा सकता है। इस खूबी के कारण इसे दुश्मन के उपग्रहों की नजरों से भी बचाया जा सकेगा। अग्नि-5 को लांच करने के लिए स्टील का एक खास कनस्तर बनाया गया है जो 400 टन तक वजन सह सकता है। 50 टन भार वाली मिसाइल जब दागी जाएगी तो यह भारी दबाव को झेल सकेगी।
इस मिसाइल के साथ ही भारत चीन के विमानवाही पोतों के खतरे से निपटने के लिए 7000 किलोमीटर की लम्बी दूरी तक मार करने वाली अग्नि-6 मिसाइल बनाने पर विचार कर रहा है। अग्नि-5 मिसाइल की मारक जद में भले ही पूरा चीन आता हो लेकिन उसके विमानवाही पोत जो कि चीन से दूर प्रशांत महासागर व अटलांटिक महासागर में तैनात हैं, वहां से भी भारत पर मिसाइल दाग सकते हैं। ऐसे में लम्बी दूरी तक मार करने वाली अग्नि-6 जैसी मिसाइलों का विकास अत्यन्त आवश्यक हो गया है।
इस तरह भारत अब अमेरिका, रूस, चीन और फ्रांस के साथ इंटर कान्टीनेण्टल बैलिस्टिक मिसाइल के क्लब में शमिल हो गया है। अग्नि-5 अधिक दूरी तक मार करने वाली यह पहली मिसाइल होगी जिसकी मारक जद में चीन के सभी इलाके आएंगे। भारत के पूर्वोत्तर सीमान्त से अगर इसे छोड़ा जाए तो यह चीन की उत्तरी सीमा पर स्थित हरबिन को अपनी चपेट में ले लेगी। यह मिसाइल चीन की डोंगफोंग-31ए व अमेरिका की परशिंग मिसाइल की बराबरी वाली है। देश के विभिन्न भागों में तैनात किए जाने के बाद कमोवेश सारा संसार इसकी मारक दूरी में आ जाएगा। यदि इसे अमृतसर से छोड़ा जाए तो स्वीडन की राजधानी को भी निशाना बनाया जा सकेगा। वैसे भारतीय वैज्ञानिकों का पूरा ध्यान अग्नि र्शेणी की मिसाइलों को दुश्मन की बैलेस्टिक मिसाइल रोधी प्रणालियों को भेदने में सक्षम बनाने पर लगा हुआ है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन इन मिसाइलों को अधिक संहारक एवं घातक बनाने के लिए ऐसे पेलोड पर काम रहा है जो एक साथ कई नाभिकीय हथियार ले जा सके।
इस सफलता के बाद भारत का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन अपनी स्वदेशी तकनीक की एक नई ऊंचाई को हासिल कर लेगा। इसका वजन अग्नि-3 से एक टन ज्यादा है। यह तीन से दस परमाणु अस्त्र को ले जाने में सक्षम है और इसमें प्रत्येक अस्त्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर अलग-अलग निशाने लगाए जा सकने की खूबी है। इस मिसाइल का वारहेड मल्टीपल है और इसमें एंटी बैलेस्टिक मिसाइल की भी क्षमता होगी। दूसरे देशों के हमले से बचाव के लिए यह मिसाइल कवच प्रणाली से लैस होगी। इसे मोबाइल लांचर, रेल मोबाइल लांचर व कनस्तर युक्त मिसाइल पैकेज से भी दागा जा सकता है। इस खूबी के कारण इसे दुश्मन के उपग्रहों की नजरों से भी बचाया जा सकेगा। अग्नि-5 को लांच करने के लिए स्टील का एक खास कनस्तर बनाया गया है जो 400 टन तक वजन सह सकता है। 50 टन भार वाली मिसाइल जब दागी जाएगी तो यह भारी दबाव को झेल सकेगी।
इस मिसाइल के साथ ही भारत चीन के विमानवाही पोतों के खतरे से निपटने के लिए 7000 किलोमीटर की लम्बी दूरी तक मार करने वाली अग्नि-6 मिसाइल बनाने पर विचार कर रहा है। अग्नि-5 मिसाइल की मारक जद में भले ही पूरा चीन आता हो लेकिन उसके विमानवाही पोत जो कि चीन से दूर प्रशांत महासागर व अटलांटिक महासागर में तैनात हैं, वहां से भी भारत पर मिसाइल दाग सकते हैं। ऐसे में लम्बी दूरी तक मार करने वाली अग्नि-6 जैसी मिसाइलों का विकास अत्यन्त आवश्यक हो गया है।
अग्नि -5 पर प्रभात कुमार रॉय
हरिभूमि
पां च हजार किलोमीटर की दूरी तक दागी जा सकने वाली इंटर कांटिनेंटल बेलेस्टिक मिसाइल अग्नि-5 का भारत ने कामयाब परीक्षण कर लिया। इसी के साथ भारत ने उन पांच प्रबल राष्ट्रों की कतार में कदम रख लिया, जिनके पास सर्वोच्च मारक क्षमता है। अग्नि-6 के माध्यम से भारत यूरोप और चीन तक जंगजू मार कर सकने में सक्षम हो गया। उल्लेखनीय है कि इंटर कांटिनेंटल बेलेस्टिक मिसाइल का उपयोग केवल परमाणु युद्ध शुरु होने की स्थितियों में किया जा सकेगा। सैन्यशक्ति में संतुलन की दृष्टि से भारत के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि भारत अब चीन के समकक्ष खड़ा हो गया है। भारत को अपनी वायु सेना और थल सेना को भी चीन के समकक्ष खड़ा करने का प्रबल प्रयास करना होगा। सर्वविदित है कि भारत की तुलना में चीन का रक्षा बजट तकरीबन पांच गुना रहा है।
परमाणु युद्ध के संभावित खतरे के अतिरिक्त अपने प्रति शत्नुतापूर्ण रवैया रखने वाले देशों पाकिस्तान और चीन के साथ भारत को कूटनीतिक एवं अनेक तरह की सैन्य चुनौतियों से निरंतर निपटना पड़ता रहा। इन सैन्य चुनौतियों में प्राक्सी वार के तौर पर प्रायोजित आतंकवाद से भारत आज़ादी हासिल करने के तुरंत बाद से ही बखूबी जूझता रहा है। सबसे पहले भारत के पूर्वाेत्तर में नगालैंड में आतंकवादी बगावत का सामना भारतीय सुरक्षा बलों को करना पड़ा। नगा विद्रोहियों को चीन की लाल फौज ने भरपूर हथियार और सैन्य प्रशिक्षण प्रदान किया। अक्साई चीन के सीमावर्ती इलाके को लेकर भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद इस कदर आगे बढ़ा कि दोनों देशों के मध्य 1962 का सैन्य युद्ध हो गया।
अक्साई चीन के विवादित 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर आधिपत्य के अतिरिक्त चीन को पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जाए भारतीय कश्मीरी क्षेत्र से पांच हजार एक सौ अस्सी वर्ग किलोमीटर भूमि को दोस्ती में उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया। इसके अलावा चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश पर भी अपने प्रभुत्व का दावा पेश करता रहा है। चीन सरकार अरुणाचल के निवासी भारतीयों को स्टेपल किया हुआ वीजा देती है, जिसके कारण चीन के साथ संबंधों में कटु तनाव बढ़ता है। पाकिस्तान के ग्वादर शहर से लेकर म्यांमार तक चीन ने अपनी सुरक्षा पट्टी को कुछ इस तरह पुख्ता किया है कि भारत को सुरक्षात्मक दृष्टि से चीन द्वारा घेर लिए जाने का अहसास होता है।
एक बात महत्त्वपूर्ण है कि चीन भारत को ही सीमा विवाद नहीं सुलझाने के लिए दोषी बताता है। चीन के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली में प्रकाशित लेख में कहा गया कि भारत और चीन के बीच विवादों को निपटाने के लिए सीमा विवाद पर बातचीत जारी है। अब तक 15 बार इस मुद्दे पर उच्चस्तरीय बातचीत हो चुकी है परंतु हम निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और उचित समझौते से बहुत दूर हैं। इसके लिए भारत अधिक जिम्मेदार है, क्योंकि भारत का मीडिया इस बात पर जोर देता है कि भारत-चीन की सीमा रेखा ब्रिटिश हाकिमों द्वारा निर्धारित मैकमोहन लाइन पर तय होनी चाहिए। भारत को लगता है कि पूर्वाेत्तर के 90 हजार वर्ग किलोमीटर में ही सिर्फ विवादित सीमा नहीं है, बल्कि पश्चिम में भी 30 हजार वर्ग किलोमीटर भी विवादित सीमा है।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग ली ने सीमावर्ती क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए भारत से चीन के साथ एकजुट होकर काम करने का आह्वान किया, लेकिन हांग ली ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि चीनी हुकूमत सीमा विवाद पर अपने रुख पर कायम है। चीन हुकूमत की तरफ से ऐसी तल्ख बयानबाजी प्रथम बार नहीं हुई है, बल्कि यह ताजा बयान तो भारत के विरुद्ध चीनी वैमनस्यता की उस र्शृंखला की एक कड़ी मात्र है, जिसे कि चीन 1955 से बाकायदा निभाता रहा।
चीन ने हमारे रक्षा मंत्री एके एंटनी के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर कूटनीतिक एतराज जताते हुए पुन: प्रकट कर दिया कि वह भारत के साथ मैत्नीपूर्ण दृष्टिकोण नहीं रखता। इससे पहले चीन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल दौरे पर भी विरोध प्रकट किया था। ज्वलंत प्रश्न है कि चीन अरुणाचल प्रदेश को भारत का भू-भाग नहीं मानता और कश्मीर के प्रश्न पर भी चीन का रुख खुले तौर पर उजागर रहा है। पाक-अधिकृत कश्मीर में चीन की सामरिक तैयारियां भारत के लिए चिंताजनक बनी हुई हैं। इन सभी तथ्यों को बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ पीपुल्स में विराजमान होकर भारत के नेता आखिरकार क्यों भूल जाते हैं?
परमाणु युद्ध के संभावित खतरे के अतिरिक्त अपने प्रति शत्नुतापूर्ण रवैया रखने वाले देशों पाकिस्तान और चीन के साथ भारत को कूटनीतिक एवं अनेक तरह की सैन्य चुनौतियों से निरंतर निपटना पड़ता रहा। इन सैन्य चुनौतियों में प्राक्सी वार के तौर पर प्रायोजित आतंकवाद से भारत आज़ादी हासिल करने के तुरंत बाद से ही बखूबी जूझता रहा है। सबसे पहले भारत के पूर्वाेत्तर में नगालैंड में आतंकवादी बगावत का सामना भारतीय सुरक्षा बलों को करना पड़ा। नगा विद्रोहियों को चीन की लाल फौज ने भरपूर हथियार और सैन्य प्रशिक्षण प्रदान किया। अक्साई चीन के सीमावर्ती इलाके को लेकर भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद इस कदर आगे बढ़ा कि दोनों देशों के मध्य 1962 का सैन्य युद्ध हो गया।
अक्साई चीन के विवादित 50 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर आधिपत्य के अतिरिक्त चीन को पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जाए भारतीय कश्मीरी क्षेत्र से पांच हजार एक सौ अस्सी वर्ग किलोमीटर भूमि को दोस्ती में उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया। इसके अलावा चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश पर भी अपने प्रभुत्व का दावा पेश करता रहा है। चीन सरकार अरुणाचल के निवासी भारतीयों को स्टेपल किया हुआ वीजा देती है, जिसके कारण चीन के साथ संबंधों में कटु तनाव बढ़ता है। पाकिस्तान के ग्वादर शहर से लेकर म्यांमार तक चीन ने अपनी सुरक्षा पट्टी को कुछ इस तरह पुख्ता किया है कि भारत को सुरक्षात्मक दृष्टि से चीन द्वारा घेर लिए जाने का अहसास होता है।
एक बात महत्त्वपूर्ण है कि चीन भारत को ही सीमा विवाद नहीं सुलझाने के लिए दोषी बताता है। चीन के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली में प्रकाशित लेख में कहा गया कि भारत और चीन के बीच विवादों को निपटाने के लिए सीमा विवाद पर बातचीत जारी है। अब तक 15 बार इस मुद्दे पर उच्चस्तरीय बातचीत हो चुकी है परंतु हम निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और उचित समझौते से बहुत दूर हैं। इसके लिए भारत अधिक जिम्मेदार है, क्योंकि भारत का मीडिया इस बात पर जोर देता है कि भारत-चीन की सीमा रेखा ब्रिटिश हाकिमों द्वारा निर्धारित मैकमोहन लाइन पर तय होनी चाहिए। भारत को लगता है कि पूर्वाेत्तर के 90 हजार वर्ग किलोमीटर में ही सिर्फ विवादित सीमा नहीं है, बल्कि पश्चिम में भी 30 हजार वर्ग किलोमीटर भी विवादित सीमा है।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग ली ने सीमावर्ती क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए भारत से चीन के साथ एकजुट होकर काम करने का आह्वान किया, लेकिन हांग ली ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि चीनी हुकूमत सीमा विवाद पर अपने रुख पर कायम है। चीन हुकूमत की तरफ से ऐसी तल्ख बयानबाजी प्रथम बार नहीं हुई है, बल्कि यह ताजा बयान तो भारत के विरुद्ध चीनी वैमनस्यता की उस र्शृंखला की एक कड़ी मात्र है, जिसे कि चीन 1955 से बाकायदा निभाता रहा।
चीन ने हमारे रक्षा मंत्री एके एंटनी के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर कूटनीतिक एतराज जताते हुए पुन: प्रकट कर दिया कि वह भारत के साथ मैत्नीपूर्ण दृष्टिकोण नहीं रखता। इससे पहले चीन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल दौरे पर भी विरोध प्रकट किया था। ज्वलंत प्रश्न है कि चीन अरुणाचल प्रदेश को भारत का भू-भाग नहीं मानता और कश्मीर के प्रश्न पर भी चीन का रुख खुले तौर पर उजागर रहा है। पाक-अधिकृत कश्मीर में चीन की सामरिक तैयारियां भारत के लिए चिंताजनक बनी हुई हैं। इन सभी तथ्यों को बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ पीपुल्स में विराजमान होकर भारत के नेता आखिरकार क्यों भूल जाते हैं?
कामयाबी के साथ चुनौतियाँ भी बढ़ी
दैनिक भास्कर में शशांक द्विवेदी
एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भारत ने स्वदेशी तकनीक से तैयार इंटर कांटीनेंटल बैलास्टिक मिसाइल (आईसीबीएम )अग्नि -5 का सफल परीक्षण कर लिया है । वास्तव में ये भारत के इतिहास की सबसे बड़ी सामरिक उपलब्धि है क्योंकि इस कामयाबी में स्वदेशी तकनीक के साथ साथ आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ते कदम की भी पुष्टि होती है । अगर सकारात्मक सोच और ठोस रणनीति के साथ हम लगातार अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने की दिशा में हम कदम बढ़ाते रहें है तो वो दिन दूर नहीँ जब हम खुद अपने नीति नियंता बन जायेगे और हमें किसी तकनीक,हथियार और उपकरण के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा ।
भारत के सामरिक कार्यक्रम के लिए काफी महत्वपूर्ण इस मिसाइल से भारत को 5000 किलोमीटर तक मारक क्षमता के साथ इसकी रेंज में पूरे चीन सहित आधी दुनिया आ जायेगी। रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा विकसित अग्नि 5 के सफल परीक्षण के साथ ही भारत आईसीबीएम क्षमता रखने वाले दुनिया के चुनिन्दा मुल्कों में शामिल हो गया है । दुनिया में अभी तक केवल अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन के पास ही आईसीबीएम को संचालित करने की क्षमता है । अग्नि-5 तीन स्तरीय, पूरी तरह से ठोस ईंधन पर आधारित तथा 17 मीटर लंबी मिसाइल है जो विभिन्न तरह के उपकरणों को ले जाने में सक्षम है। इसमें मल्टीपल इंडीपेंडेंटली टागेटेबल रीएंट्री व्हीकल (एमआरटीआरवी) भी विकसित किया जा चुका है। यह दुनिया के कोने-कोने तक मार करने की ताकत रखता है तथा देश का पहला कैनिस्टर्ड मिसाइल है। जिससे इस मिसाइल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना सरल होगा.
आज के इस तकनीकी युग में हजारों किलोमीटर दूर तक मार करने वाली बैलिस्टिक मिसाइलों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। क्योंकि जिस तरह से चीन एशिया में लगातार अपनी सैन्य ताकत को बढ़ा रहा है ऐसे में भारत को भी अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाते हुए उसे अत्याधुनिक तकनीक से लैस करते जाना होगा । तभी देश बदलते समय के साथ विश्व में अपनी मजबूत सैन्य उपस्थिति दर्ज करा सकेगा ।
जमीन और सीमा विवाद को लेकर जिस तरह चीन भारत को लगातार चुनौती दे रहा है और कट्टरपंथी ताकतों को बढ़ावा देकर पकिस्तान अपने सामरिक हित पूरा कर रहा ऐसे में देश के पास लंबी दूरी की अग्नि-5 जैसी बैलेस्टिक मिसाइलों का होना बेहद जरूरी है । देश की रक्षा जरूरतों को देखते हुए अग्नि -5 का परीक्षण काफी जरूरी हो गया था क्योंकि पड़ोस में चीन के पास बैलिस्टिक मिसाइलों का अंबार लगा हुआ है जिससे एक सैन्य असंतुलन पैदा हो गया था । चीन ने दो साल पहले ही 12 हजार किलोमीटर दूर तक मार करने वाली तुंगफंग-31 ए बैलिस्टिक मिसाइलों का विकास कर लिया था । लेकिन अब अग्नि 5 के सफल परिक्षण से कोई दुश्मन देश हम पर हावी नहीं हो सकेगा । अग्नि-5 की सफलता ने भारत की सामरिक प्रतिरोधक क्षमता की पुष्टि कर दी है और डीआरडीओ ने अपनी ख्याति और क्षमताओं के अनुरूप ही अग्नि 5 को आधुनिक तकनीक के साथ विकसित किया है । लेकिन देश की रक्षा प्रणाली में आत्मनिर्भरता और रक्षा जरूरतों को समय पर पूरा करने की जिम्मेदारी सिर्फ डीआरडीओ की ही नहीं होनी चाहिए बल्कि रक्षा मंत्रालय से जुड़े सभी पक्षों की होनी चाहिए। देश में स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकी को बड़े पैमाने पर विकसित करने की जरुरत है और इस दिशा में जो भी समस्याएं है उन्हें सरकार द्वारा अबिलम्ब दूर करना होगा तभी सही मायनों में हम विकसित राष्ट्र का अपना सपना पूरा कर पायेगे । सरकार को यह महसूस करना चाहिए कि अत्याधुनिक आयातित प्रणाली भले ही बहुत अच्छी हो लेकिन कोई भी विदेशी प्रणाली लंबे समय तक अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती। सैन्य तकनीकों और हथियार उत्पादन में आत्मनिर्भरता देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत जरुरी है । इसके साथ ही भारत को हथियारों के आयात की प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिए।
अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो आतंरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी । क्योंकि भारत पिछले छह दशक के दौरान अपनी अधिकांश सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति दूसरे देशों से हथियारों को खरीदकर कर रहा है । वर्तमान में हम अपनी सैन्य जरूरतों का 70 फीसदी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर आयात कर रहे हैं।
रक्षा जरूरतों के लिए भारत का दूसरों पर निर्भर रहना कई मायनों में खराब है एक तो यह कि अधिकतर दूसरे देश भारत को पुरानी रक्षा प्रौद्योगिकी ही देने को राजी है,और वह भी ऐसी शर्ताे पर जिन्हें स्वाभिमानी राष्ट्र कतई स्वीकार नहीं कर सकता। वास्तव में स्वदेशी व आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं है।
पिछले वर्षों में सैन्य हथियारों ,उपकरणों की कीमत दोगुनी कर देने, पुराने विमान,हथियार व उपकरणों के उच्चीकरण के लिए मुंहमांगी कीमत वसूलने और सौदे में मूल प्रस्ताव से हट कर और कीमत मांगने के कई केस देश के सामने आ चुके है । वहीं अमेरिका “रणनीतिक रक्षा प्रौद्योगिकी में भारत को भागीदार नहीं बनाना चाहता । अमेरिका भारत को हथियार व उपकरण तो दे रहा है पर उनका हमलावर इस्तेमाल न करने व कभी भी इस्तेमाल की जांच के लिए अपने प्रतिनिधि भेजने जैसी शर्मनाक शर्ते भी लगा रहा है।वर्तमान हालात ऐसे हैं कि हमें बहुत मजबूती के साथ आत्मनिर्भर होने की जरूरत है। वर्तमान समय में भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बनता जा रहा है। रक्षा मामले में आत्मनिर्भर बनने की तरफ मजबूती से कदम उठाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।
हमारे घरेलू उद्योगों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करायी है इसलिए सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय उद्योग के कौशल संसाधनों एवं प्रतिभाओं का बेहतर उपयोग करना जरुरी है । क्योंकि आयातित टैक्नोलाजी पर हम ब्लैकमेल का शिकार भी हो सकते है।
अग्नि 5 जैसी मिसाइलें देश के पास होने पर कोई भी देश हमें युद्ध या जनसंहार की धमकी नहीं दे सकेगा क्योंकि उसे भी जवाबी हमले का डर होगा। इस धारणा से भारत के मिसाइल कार्यक्रम के महत्व को समझा जा सकता है। भारत ने 1983 से मिसाइलों के विकास का अपना महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किया था और आज भारत के पास अग्नि-1 (700 किमी.), अग्नि-2 (2000 किमी.) और अग्नि-3 (3500 किमी.) वाली बैलिस्टिक मिसाइलों के अलावा ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल और पृथ्वी की 150 से 350 किमी. दूर तक मार करने वाली कई मिसाइल मौजूद हैं। लेकिन अग्नि 5 मिसाइल की खासियत यह है कि इस पर एक साथ कम से कम तीन मिसाइलों का तैनात होना। यानी एक रॉकेट पर तीन मिसाइलें एक साथ छोड़ी जा सकेंगी, जो दुश्मन के इलाके में एक साथ तीन अलग-अलग ठिकानों को तबाह कर सकेंगी। इस तरह की तकनीक वाली मिसाइल को एमआईआरवी (मल्टिपल इंडिपेंडेंट टारगेटेबेल रीएंट्री वेहिकल) मिसाइल यानी कई विस्फोटक सिरों वाली मिसाइल कहते हैं ।
अग्नि 5 के सफल परीक्षण के बाद रक्षा वैज्ञानिकों को दुश्मन मिसाइल को मार गिराने वाली इंटरसेप्टर मिसाइल और मिसाइल डिफेंस सिस्टम पर अधिक काम करने की जरुरत है । क्योंकि अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन जैसे देश इस सिस्टम को विकसित कर चुके हैं । मिसाइल डिफेंस सिस्टम के तहत दुश्मन देश के द्वारा दागी गई मिसाइल को हवा में ही नष्ट कर दिया जाता है । इस कामयाबी के साथ ही हमारी चुनातियाँ भी अधिक बढ़ गई है क्योंकि अब चीन और पाकिस्तान इसका जवाब देने के लिए हथियारों और उपकरणों की होड़ में शामिल हो जायेगें इसलिए हमें सतर्क रहते हुए अपने रक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करते जाना होगा । इस कामयाबी को आगे बढ़ाते हुए हमें अपनी सैन्य क्षमताओ को स्वदेशी तकनीक से अत्याधुनिक बनाना है जिससे कोई भी दुश्मन देश हमारी तरफ देखने से पहले सौ बार सोचे ।
लेखक-शशांक द्विवेदी (दैनिक भास्कर में 23/04/12 प्रकाशित )
लेख लिंक
Mr. Shashank Divedi is wonderful young scholar and a vary good columnist of daily news papers. His blog is also vary good & worth readable. My hearty congratulation to Shashank Divedi.
ReplyDeletethanks sir for ur nice word & encouragement..
Delete