विकास का वर्तमान माँडल बेकार है
पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक वृद्धि एक नया मंत्र बनकर उभरा है। हम लोगों को यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर ही आर्थिक वृद्धि और विकास की कसौटी है। इसके पीछे तर्क दिया गया कि जीडीपी की दर जितनी अधिक होगी, गरीबी और भुखमरी उतनी ही कम होगी। इसीलिए आर्थिक विशेषज्ञ और नियोजक औद्योगिक गतिविधियों के लिए योजनाएं बनाने और निवेश करने में लग गए ताकि रोजगार के नए अवसर सृजित किए जा सकें, साथ ही देश की आर्थिक वृद्धि भी हो। इस सोच का आर्थिक नुस्खा यह था कि जीडीपी की वृद्धि दर को यदि नौ प्रतिशत से भी ऊपर रखा जाए तो तमाम चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
इस कहानी की शुरुआत 1991 में मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के बाद शुरू होती है। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण का नारा दिया। सारा ध्यान तीव्र औद्योगीकरण पर केंद्रित कर दिया गया। विनिर्माण और उद्योग सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द बन गए। निजीकरण, वैश्वीकरण और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आर्थिक विकास के नए रास्ते बन गए। शहरी केंद्रों का पुर्ननिर्माण हुआ और सुपरमॉल, शानदार रेस्टोरेंट, नई मॉडलों की कारें और रीयल इस्टेट की धूम मच गई।
हालांकि इस बीच गरीबी और भुखमरी कम होने के बजाए बढ़ती गई। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1990 के दशक में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोग 26 फीसदी थे जिसे वर्तमान में खुद योजना आयोग ने बढ़ाकर 37.2 फीसदी कर दिया है। एक तरफ समाज के उच्च वर्ग की आय में लगातार इजाफा होता जा रहा है लेकिन साथ ही हर साल लाखों लोग गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में जा रहे हैं। अमीर और गरीब के बीच की खाई हर गुजरते साल के साथ बढ़ती जा रही है।
हम लोगों को यह यकीन दिलाया जा रहा है कि देश से गरीबी और भुखमरी खत्म करने के लिए आर्थिक वृद्धि ही एकमात्र रास्ता है।
जबकि इसके ठीक उलट संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून का मानना है कि ‘जलवायु परिवर्तन इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि विकास का पुराना मॉडल बेकार हो चुका है।
विनाश: अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ धरती हमारे लिए एक ऐसा वरदान थी जिसके सहारे मानव सभ्यता पुष्पित-पल्लवित होती रही। इसने हमें रहने के लिए आसरा दिया। पीने के लिए पानी दिया। खाने के लिए भोजन सुलभ कराया। यही नहीं सांस लेने के लिए अपने शुद्ध पर्यावरण की विशुद्ध ऑक्सीजन भी हमारे लिए सुलभ किया। युगों तक यह संतुलित रिश्ता दोनों के बीच बना रहा। एक दिन वह भी आया जब प्राकृतिक संसाधनों के जरूरत भर उपयोग से हमारा जी उकता गया। हमारे अंदर लालच घर कर गया। हम बड़ी जरूरत का हवाला देकर धरती का दोहन करने लगे। लिहाजा हमारा पर्यावरण दूषित होता गया और धरती के संसाधनों की न केवल मात्रा कम होती गई, उनकी गुणवत्ता में भी विकार आ गया।
विकास: आर्थिक विकास से ही सभी को बेहतर जीवन उपलब्ध कराया जा सकता है। अत: हमारे जैसे विकासशील देश तेज विकास की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। हमारी इस कोशिश पर पश्चिमी देश भले ही ग्र्रीन हाउस गैसों के ज्यादा उत्सर्जन का आरोप लगाएं लेकिन अभी तक हुए पर्यावरण नुकसान के लिए ज्यादा जिम्मेदार वही लोग हैं। बहरहाल सृष्टि की भलाई के लिए पर्यावरण का संरक्षण अब गंभीर मसला बन चुका है। इसके लिए पूरी दुनिया को एक साथ आना होगा। हमें विकास का ऐसा मॉडल अपनाना होगा जिसमें हमारी मूलभूत जरूरतें भी पूरी होती रहें और हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहे। आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित करना अब अहम मुद्दा बन चुका है।
विश्व पर्यावरण दिवस के इस मौके पर ऐसी निर्वहनीय योजनाएं बनाने का संकल्प लिया जाना चाहिए जो इस धरती को नष्ट होने से बचाने में मददगार हों।
जैव-विविधता, मृदा का पुनर्पोषण, सिकुड़ते जल संसाधनों का संरक्षण, दूषित पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने जैसी निर्वहनीय नीतियों को अपनाकर विकास एवं आर्थिक वृद्धि के पथ को प्रशस्त कर एक बेहतर जीवन जिया जा सकता है।
-बान की मून, संयुक्त राष्ट्र महासचिव (2011 में दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच में दिया गया बयान): विश्व का वर्तमान आर्थिक मॉडल पर्यावरणीय आत्महत्या है। वैश्विक अर्थव्यवस्था को निर्वहनीय (सस्टेनेबल) बनाने के लिए क्रांति की जरूरत है।
निर्वहनीय विकास और आर्थिक वृद्धि के बीच संतुलन स्थापित कर ग्लोबल वार्मिंग और उससे उत्पन्न होने वाले खतरे से निजात पाई जा सकती है। इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए हमें कुछ कदमों को तत्काल उठाने की जरूरत है जिससे शांति और प्रसन्नता हासिल की जा सके.
वैश्वीकरण से स्थानीयकरण: वैश्विक व्यापार के बढ़ने का मतलब है कि जीवाश्म ईंधनों का अधिक दहन होना। नतीजतन, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी। यह बहुत तर्कसंगत नहीं लगता कि सेब का आयात चिली और न्यूजीलैंड से किया जाए। औसतन खाद्य पदार्थ 1500 मील की यात्रा करने के बाद हमारी टेबल तक पहुंचते हैं। यह वैश्विक कमोडिटी बाजार को नुकसान पहुंचाता है। साथ ही यह कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए और अधिक रसायन को इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करता है। इसका नतीजा यह होता है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है, भू-जल को प्रदूषित करने के साथ मृदा को संक्रमित कर पूरी खाद्य श्रृंखला पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
सट्टेबाजी पर रोक: सोना और चांदी की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। पेट्रोल के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों की कमी के कारण वर्ष 2007-08 में 37 देशों में दंगे हो चुके हैं। कीमतों में बढ़ोतरी की मुख्य वजह सट्टेबाजी और कमोडिटी ट्रेडिंग है। स्टॉक बाजार से कुछ निवेशकों को फायदा होता है और इसकी कीमत अन्य लोगों को चुकानी पड़ती है। कमोडिटी ट्रेडिंग में सट्टेबाजी के कारण प्राकृतिक संसाधनों का निर्मम दोहन किया जाता है। कृषि क्षेत्र में सट्टेबाजी को खत्म करते हुए इसके अंत की शुरुआत की जानी चाहिए।
शहरीकरण को हतोत्साहन: अधिकांश औद्योगिक इकाइयां शहरी केंद्रों में होने से निवेश भी यहीं किया जाता है। नतीजतन, गांव एवं कस्बों से शहरों की ओर रोजगार के लिए आबादी का पलायन होता है। अनुमान है कि 2030 तक करीब 65-70 प्रतिशत देश की आबादी शहरों में रहने लगेगी। ऐसे में गांव आबादी के लिहाज से खाली होते जाएंगे और शहर बढ़ती आबादी का बोझ सहने में असमर्थ होते जाएंगे। इस प्रवृत्ति को बदलने की जरूरत है। गांवों का विकास इस तरह किया जाना चाहिए ताकि वे आर्थिक विकास के स्रोत बन कर लोगों की जीविका स्रोत भी बन सकें। इससे गांव और शहरों के बीच एक प्रकार का संतुलन स्थापित होगा।
खुशहाली सूचकांक का विकास: यदि उच्च जीडीपी से मापा जा रहा वर्तमान आर्थिक मॉडल निर्वहनीय होता तो दुनिया को आर्थिक मंदी की मार न झेलनी पड़ती। इससे धरती का भविष्य भी अंधकारमय देखा गया। वैश्विक अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए 2008-09 में करीब 20 ट्रिलियन डॉलर झोंका गया। इसके बजाए यदि केवल पांच ट्रिलियन डॉलर का निवेश गरीबी, भुखमरी और बीमारियों से लड़ने में किया जाता तो इन समस्याओं को खत्म किया जा सकता था। ऐसे में इस बात की सख्त आवश्यकता है कि वर्तमान आर्थिक मॉडल की जगह वैश्विक खुशहाली सूचकांक को अपनाया जाए। लेखक -देविंदर
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