विज्ञान की उपेक्षा
मनमोहन सिंह ने 99वें भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन अवसर पर कहा था कि विज्ञान को मजबूत बनाना होगा और इसके लिए सरकार शोध और विकास कार्य पर खर्च बढ़ाएगी। इसके लिए अनुसंधान कार्यो पर जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने का वायदा किया गया, जो फिलहाल 0.9 प्रतिशत है। पिछले दिनों वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए गए केंद्रीय बजट में पुरस्कारों सहित वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिए 200 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की गई है जो उम्मीद से काफी कम है। पिछले कुछ दशकों में विज्ञान के क्षेत्र में भारत की स्थिति में लगातार गिरावट आई है और चीन जैसे देश आगे निकल रहे हैं। चीन लगातार विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में बजट बढ़ाता रहा है जबकि हमारे यहां सरकार केवल घोषणाओं तक सीमित है। हमारे देश में विज्ञान और अनुसंधान पर चर्चा तभी होती है जब कोई नेता, मंत्री या प्रधानमंत्री उसकी बदहाली पर बोलते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा सालों से होता आ रहा है। विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में आज तक कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बन पाई है। सरकार अपनी नाकामी छिपाने के लिए अब इस क्षेत्र को भी निजी क्षेत्र के हवाले करने की सोच रही है, जहां मुनाफाखोरी ही एकमात्र सिद्धांत है। ऐसे में आप विज्ञान और शोध में कितने गुणात्मक सुधार की उम्मीद कर सकते है। देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध की दशा व दिशा ठीक नहीं है। आजादी के बाद ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे देश में बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके। अधिकांश युवा शोध और अनुसंधान की बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जाना चाहते हैं, क्योंकि वहां ज्यादा पैसा मिलता है। स्थिति यह है कि देश में विज्ञान में पीएचडी करने वाली दो हजार महिलाओं में से 60 फीसदी बेरोजगार हैं। इसका परिणाम है कि विज्ञान संकाय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में दाखिले में 80 फीसदी तक की कमी आई है। पिछले 50 सालों में देश एक भी ऐसा वैज्ञानिक पैदा नहीं कर पाया जिसकी पूरी दुनिया में पहचान हो। 82 साल पहले सीवी रमन को वर्ष 1930 में भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला था। तब से हम भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही खुशी मनाते आए हैं। यहां पर एक और प्रश्न महत्वपूर्ण है कि आजादी के समय जब देश में संसाधन कम थे तब हमारे यहां जगदीश चंद्र बोस, नोबल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमन, मेघनाद साहा, सत्येंद्र बोस जैसे महान वैज्ञानिक हुए, लेकिन आज जब संसाधनों की कमी नहीं है तो हमारे देश में विज्ञान की स्थिति दयनीय बनी हुई है। देश में जन्मे वैज्ञानिक डॉ. हरगोबिंद खुराना , एस. चंद्रशेखर, अमर्त्य सेन और डॉ. वेंकटरामन रामकृष्णन विदेशों में जाकर उत्कृष्ट कार्य के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हैं, लेकिन यहां रहकर नहीं। यहां पर उन्हें बुनियादी सुविधाए उपलब्ध नहीं कराई गई जिस कारण उन्हें बाहर जाना पड़ता है। सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संविदा या लेक्चर के हिसाब से एक पीएचडीधारी शिक्षक को काफी कम वेतन में काम करने को मजबूर होना पड़ता है। शोध छात्रों को सेमीनारों में जाने के लिए छुट्टी या आर्थिक सहायता शायद ही मिल पाती है जिस कारण अंतत: वह अपनी पीएचडी थीसिस बंद करने को मजबूर होते हैं। चढ्ढा कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार कर केंद्र और राज्य सरकारों ने शिक्षकों के वेतन में भारी वृद्धि की है, लेकिन अपने उच्च शिक्षा संस्थानों में कार्यरत गेस्ट शिक्षकों के शोषण को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। वास्तव में एक युवा पीएचडी का रास्ता या तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जाने के लिए चुनता है या फिर शोध संस्थानों में प्रवेश के लिए। अगर ये दोनों ही रास्ते बंद हों तो फिर शोध की संभावनाएं कैसे बनेंगी? एक तरफ तो हम अपने योग्य शोधार्थियों को लगभग दुत्कार रहे हैं, उनका शोषण कर रहे हैं तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री इसका रोना रो रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) देश में विज्ञान की दयनीय होती स्थिति पर शशांक द्विवेदी के विचार दैनिक जागरण (राष्ट्रीय ) में 8/04/2012 प्रकाशित
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