Friday, April 20, 2012

मोटे होते ग्लेशियर


मोटे होते ग्लेशियर
पहले की तुलना में आज ये ग्लेशियर ज्यादा मोटे हो गए हैं। अभी तक सुनते आए हैं कि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं ।
एशिया के कुछ ग्लेशियर मोटे हो चले हैं, खासकर कराकोरम की पहाड़ियों के। ग्लेशियर हमारे पेयजल के भंडार होते हैं। फ्रांस के वैज्ञानिकों ने उपग्रह के जरिए जो जानकारी एकत्रित की है, उससे ये सुखद संकेत मिले हैं। फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च तथा ग्रेनोबल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कराकोरम पहाड़ियों की सतह के उभार के दस साल के अंतराल में लिए गए चित्रों का जब तुलनात्मक अध्ययन किया, तो पाया कि पहले की तुलना में आज ये ग्लेशियर ज्यादा मोटे हो गए हैं। अभी तक हम यह सुनते आए हैं कि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं अर्थात दुबले हो रहे हैं। ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। फलस्वरुप धरती के तटवर्ती इलाके जलमग्न हो जाएँगे। मालदीव और बांग्लादेश जैसे देश सबसे पहले चपेट में आएँगे क्योंकि वह सबसे निचली सतह पर हैं।

दरअसल वैज्ञानिकों की किस बात पर भरोसा करें? जलवायु परिवर्तन को लेकर २००७ में अंतर सरकारी पैनल ने तो यह कह दिया था कि हिमालय के कई इलाकों से २०३५ तक बर्फ नदारद हो जाएगी। बाद में इस भ्रमपूर्ण दावे के लिए वैज्ञानिकों को क्षमा भी माँगना पड़ी। सही बात तो यह है कि ग्लेशियरों पर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन कम ही हुआ है। यह सच है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से आज तक वातावरण में कार्बन उत्सर्जन बढ़ा है। पिछले सौ सालों के उपलब्ध रेकार्ड के अनुसार २० वीं सदी के अंतिम दस वर्ष सर्वाधिक गर्म वर्षों में शुमार थे। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय बर्फ दूसरी बार अपने स्तर से काफी नीचे चली गई है। दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों से बार-बार कहा जा रहा है कि वे अपनी कार गुजारियों पर लगाम कसें। मौसमी आपदाएँ संकेत दे रहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन का दौर शुरू हो चुका है। अस्तित्व दांव पर लगा है और बाजी हाथ से निकली जा रही है। 
कनाडा के पास एल्समीयर द्वीप पर सदी से पहले तक ९ हजार वर्ग किमी क्षेत्र में फैली बर्फ सिमट कर वर्तमान में मात्र १ हजार वर्ग किमी रह गई है। म्यांमार में चक्रवात "नर्गिस" ८० हजार लोगों को लील चुका है। कैरेबियन सागर में हरीकेन करोड़ों की क्षति पहुँचा चुके हैं। भारत, बांग्लादेश बाढ़ का तांडव भुगत चुके हैं। मौसम के मिजाज बदलते जा रहे हैं। ठंड में गर्मी का अनुभव और जल स्त्रोतों का सिकु ड़ना या कभी वर्षा जैसे हालात बन जाना, फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। यही सिलसिला जारी रहा तो निर्बाध विकास की अवधारणा ध्वस्त हो जाएगी। विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था संकट में चली जाएगी। 

पिछले सौ सालों में धरती के औसत सतही तापमान में दशमलव ७४ डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है, जो शताब्दी के अंत तक डेढ़ से साढ़े चार डिग्री तक पहुँचेगा। यह स्पष्ट हो चुका है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए साठ प्रतिशत जिम्मेदार कार्बन डॉई ऑक्साइड है, जिसकी सांद्रता २९० प्रति दस लाख भाग से बढ़कर ३७०-३८० पीपीएम (पार्ट्‌स पर मिलियन) जा पहुँची है। अगर यही क्रम जारी रहा तो शताब्दी अंत तक यह ६००-७०० को पार कर जाएगी। करीब २५ करोड़ लोग पानी के लिए तरस जाएँगे और ३० प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगीं।
(साभार -नई दुनिया )


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