जल संकट की आहट
जल संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जल संसाधन मंत्रालय ने इस वर्ष से भारत जल सप्ताह को अंतरराष्ट्रीय आयोजन के रूप में मनाने का फैसला किया है। इसका उद्देश्य जल संबंधी मुद्दों को वैश्विक समस्या के रूप में मंच दिलाना है। यह कार्यक्रम इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें सभी संबंधित मंत्रालय जैसे कृषि और खाद्य प्रसंस्करण, उद्योग मंत्रालय, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, पंचायती राज मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, पर्यावरण और वन मंत्रालय तथा योजना आयोग के साथ-साथ राच्य सरकारें तथा जल संसाधन परियोजना संभालने वाले इकाइयों के प्रतिनिधि भी इसमें भाग ले रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मुताबिक जल संसाधनों की योजना, विकास और प्रबंधन का बहुत महत्व है। देश में इस समय जो सांस्थानिक और वैधानिक ढांचा मौजूद है वह पर्याप्त नहीं है जिसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है पर सवाल उठता है कि ये सुधार कब और कैसे होंगे? प्रधानमंत्री ने जल संकट से संबंधित जितनी भी गंभीर समस्याए बताई उनके समाधान के लिए सरकार तत्काल क्या कदम उठाने जा रही है इस पर कोई घोषणा नहीं की गई। जल संसाधन मंत्री पवन बंसल अब कह रहें है कि राष्ट्रीय जल नीति इसी माह तैयार हो जाएगी। आखिर अभी तक देश के लिए ठोस और सार्थक जल नीति क्यों नहीं तैयार कर पाए जबकि पिछले दिनों ही जल संकट पर फ्रांस में संपन्न हुए सम्मलेन में संयुक्त राष्ट्र संघ ने गंभीर चेतावनी देते हुए कहा था कि विश्व के अनेक हिस्सों में पानी की भारी समस्या है और इसकी बर्बादी नहीं रोकी गई तो स्थिति और विकराल हो जाएगी, क्योंकि भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक कृषि की बढ़ती जरूरतों, खाद्यान्न उत्पादन, ऊर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ रहा है। दुनिया में तकरीबन 20 फीसदी लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा है और 40 फीसदी लोग सफाई की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इन वंचितों में से आधे से ज्यादा लोग चीन या भारत में हैं। एक अरब 10 करोड़ लोग पीने के साफ पानी से वंचित हैं। इसके अलावा दो अरब 60 करोड़ लोगों को साफ-सफाई की मूलभूत सुविधाएं हासिल नहीं हैं। वास्तव में भूजल के अंधाधुंध दोहन से जल की उपलब्धता में भारी कमी आई है। जिसे देखते हुए मनचाहा भूजल निकालने की छूट को नियंत्रित करना होगा। विश्व की 17 प्रतिशत आबादी भारत में है, लेकिन पीने योग्य पेयजल मात्र चार प्रतिशत है। भारत में बढ़ती अर्थव्यवस्था और शहरीकरण ने जल की आपूर्ति और मांग के अंतर को बढ़ा दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारण भी देश के जल चक्र को खतरा पैदा हो सकता है। बेंगलूरू, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई आदि में अभी से पानी की किल्लत होने लगी है। दूसरी तरफ गांवों में 90 प्रतिशत आबादी पेयजल के लिए भूजल पर आश्रित है। कृषि के लिए भूजल के बढ़ते दोहन से भी गांवों में पीने के पानी का संकट बढ़ रहा है। दुनिया के ज्यादातर इलाकों में पानी की गुणवत्ता में कमी आ रही है और साफ पानी में रहने वाले जीवों की प्रजातियों की विविधता और पारिस्थितिकी को तेजी से नुकसान पहुंच रहा है। वन क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियों के बढ़ने, नदियों-जलाशयों के प्रदूषित होने और बिगड़ते पारिस्थितिकी संतुलन को लेकर काफी समय से चिंता जताई जा रही है। कई बड़े शहरों में तालाबों के सूख जाने की स्थिति में उनके रखरखाव की पहल करने की बजाय उन पर रिहाइशी कालोनियां या व्यावसायिक परिसर बना दिए गए हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षा जल संचयन पर बल दे रहे हैं। अगर तालाबों और झीलों जैसे पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण-संवर्धन की बजाय उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े होते गए तो इस संकट से निपटने की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) भारत में पेयजल की गहराती समस्या पर शशांक द्विवेदी के विचार जल संकट की आहट दैनिक जागरण (राष्ट्रीय ) में 15/04/2012 को प्रकाशित
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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-04-15&pageno=8#id=111738048571170136_49_2012-04-15
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