"मन और जीवन का द्वन्द "
हताश हूँ मै ,
मन से ,आत्मा से ,
सफल हूँ मै ,
अपने चहरे से ,दिखावे से
दिखावे और मन का ,
ये द्वन्द तो
चलता था
चल रहा है
और शायद
जब तक जीवन है
चलता ही रहेगा ,
हम क्यों नहीं जी पाते ?
अपने वास्तविक स्वरुप में ,
आज हमने सब कुछ
पा लिया ,
चाँद,मंगल तक
पहुँच गए ,
लेकिन अपने
वास्तविक स्वरुप से,मन से
तो दूरी बढ़ती
ही जा रही है ,
अब लगता है ,
ये दूरी कभी
कम न होगी ,
हम अपने तक
कब पहुचेगें
ये एक प्रश्न है
मेरे लिए और
आपके लिए भी !!
स्वरचित -शशांक द्विवेदी
स्वरचित -शशांक द्विवेदी
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