Sunday, April 22, 2012

पृथ्वी दिवस पर विशेष


पृथ्वी पर गहराता खतरा

हाल के दिनों में इंडोनेशिया में 8.7 तीव्रता का भूकंप आया और भारत में भी सुनामी आने की चेतावनी दी गई थी। पर सौभाग्य से ये बड़ा खतरा टल गया, लेकिन पूरी दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के बड़े खतरे मसलन भूकंप, बाढ़, बर्फबारी, सुनामी आदि कब तक टलते रहेंगे। पूरी दुनियां जिस तरह कथित विकास की दौड़ में अंधी हो चुकी है उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल मानव सभ्यता का विनाश निश्चित है। प्राकृतिक आपदाओं का आना और उनका टलना हमें बार-बार चेतावनी दे रहा है कि अभी भी समय है और हम अपनी बेहोशी से जाग जाएं अन्यथा बड़ा विनाश सुनिश्चित है। इस संदर्भ में 22 अप्रैल, 1970 में धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई, लेकिन वर्तमान में यह दिवस सिर्फ आयोजनों तक सीमित रह गया है। जलवायु परिवर्तन दुनिया में अन्न के पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है। अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। किसान तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा जिसे दुनिया में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी। एक अमेरिकी अध्ययन में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा वर्ष 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार के खतरे को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। इससे अकेले अफ्रीका के उप-सहारा इलाके में युद्ध भड़कने से 3 लाख 90 हजार मौतें हो सकती हैं। आइपीसीसी की मानें तो1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं। परंतु इन मुद्दों पर सरकार द्वारा कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। वास्तव में पर्यावरण सरंक्षण का मुद्दा पार्टियों के राजनीतिक एजेंडे में ही शामिल नहीं है, जबकि यह हमारे अस्तित्व का सवाल है। जलवायु परिवर्तन पलायन की बडी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल आर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन की मानें तो 2050 तक तकरीबन 20 करोड लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा। वहीं कुछ और संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड तक हो सकती है, क्योंकि 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर 9 अरब तक पहुंचने का अनुमान है। जाहिर है दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे। एशियाई विकास बैंक के मुताबिक अगले 25 वर्षो में एशिया में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तीन गुना बढ़ सकता है। इसके अलावा भारत और चीन के ग्लेशियर पिघलने से इनके सामने पीने के पानी का संकट खड़ा हो सकता है। अब हर साल औसतन 500 आपदाएं आती हैं जिनकी सख्या 20 साल पहले 120 के आसपास थी। दुनिया पूंजीवाद के पीछे इस तरह से भाग रही है कि उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख नही रहा है। वास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है वह विकास है ही नहीं? क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी को विकास माना जा सकता है? वास्तव में प्रकृति का संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। पर्यावरण सुरक्षा तो हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए। यह सामुदायिक के साथ-साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। इस कथित विकास की बेहोशी से जगने का बस एक ही मूल मंत्र है कि विश्व में सह अस्तित्व की संस्कृति का निर्वहन हो। सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे। प्रकृति और मानव दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो ऐसा संकल्प किया जाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं पर शशांक द्विवेदी के विचार पृथ्वी पर गहराता खतरा,दैनिक जागरण 22/04/12 को प्रकाशित 

dainik jagran artilce link (पृथ्वी पर गहराता खतरा )







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